Uttarakhand Glacier Burst: सरकारों के स्वार्थ ने किया नगाधिराज को नाराज!
उत्तराखंड में जो हुआ है यदि उसपर गौर करें तो मिलता है कि वर्तमान त्रासदी मानव-भोग के लिए पर्यावरण को संसाधन-मात्र देख निर्मम दोहन, तीर्थों को टूरिस्म हॉट-स्पॉट और चारधामों को चार-दामों में बदलने की होड़ का परिणाम है.
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चारधाम हिमालय में स्थित ऋषि गंगा और धौली गंगा घाटियों में आए भीषण जल-प्रलय ने एक बार फिर से जून-2013 की याद ताजा करा दी. अभी तक 100 से ऊपर लोगों के हताहत होने की खबर है और बचाव अभियान जारी है. जो पहाड़ अब तक बरसात में कड़कती बिजली और मूसलाधार बारिश के बीच बादल-फटने और बाढ़ जैसी आपदा देख रहे थे उनकी शान्ति शीतकाल में भी इस तरह भंग हो सकती है ये शायद किसी ने नहीं सोचा था. सर्दियों के साफ़ मौसम, चिलचिलाती धूप के बीच जल-प्रलय का नजारा अभी तक अनसुना और अनदेखा था. जब बर्फबारी और ग्लेसिएर के जमने का समय हो उस समय यदि ग्लेसिएर टूट कर जल-प्रलय का सबब बनें तथा सरकार इन घाटियों में विकास के नाम पर प्रकृति में किये गंभीर खिलवाड़ को नजरअंदाज कर अब भी यदि इसे ‘प्राकृतिक आपदा’ का नाम दे तो इससे बड़ी ठगी और इस आपदा में जान-गंवाने वालों का अपमान और क्या हो सकता है?
साल 2013 की आपदा के बाद माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति (Expert Body) ने साफ़ तौर पर अपनी रिपोर्ट में उच्च-हिमालयी क्षेत्रों में इस खतरे के बारे में आगाह किया था. समिति ने कहा था कि ये क्षेत्र ‘पैरा ग्लेसिअल ज़ोन’ के खतरे में हैं जहाँ ग्लेसियर की कोई भी गतिविधि और इनके द्वारा छोड़ें मलबे (Glacier deposits) की सक्रियता आपदा का सबब बन सकती है. इसलिए समिति ने इन क्षेत्रों में बाँध-परियोजनाओं को घातक बता इन्हें स्थापित नहीं करने की ठोस सिफारिश की थी.
उत्तराखंड में राहत और बचाव में जुटे एनडीआरएफ के लोग
समिति की रिपोर्ट के बाद वर्ष 2014 में ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उन 24 बांधों का निर्माण काम रोक दिया था जो प्रस्तावित थे, जिनमेंं से कई प्रोजेक्टों को आज भी शुरू करवाने की कवायद में राज्य सरकार और निर्माण कम्पनियां लगी हैं. निर्माणाधीन ऋषि गंगा पॉवर प्रोजेक्ट पूर्णतः तथा तपोवन-विष्णुगाड पॉवर प्रोजेक्ट भी भारी रूप से क्षतिग्रस्त हुआ तथा इन्ही के इर्द-गिर्द अधिकाँश लोगों की प्राण-हानि हुई. वर्ष 2014 की रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के प्रस्तावित बांधों पर आये निर्णय के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा भी दिसंबर-2014 में सुप्रीम कोर्ट में गंगा के हिमालयी क्षेत्र में बिगड़ रहे पर्यावरण पर विस्तृत हलफनामा दाखिल किया गया.
केंद्र ने एक्सपर्ट कमेटी की रिपोर्ट तथा पूर्व में हुए तमाम अध्ययनों का हवाला देते हुए स्वीकार किया कि चारधाम के इन क्षेत्रों में पर्यावरण की अपूरणीय क्षति हो चुकी है तथा बांधों के निर्माण ने जून-2013 की आपदा के प्रभाव को बढ़ाने में आग में घी का काम किया है. किन्तु ये सब स्वीकारने के बाद भी सरकार ने कोई ठोस निर्णय नहीं लिया अपितु कोर्ट में मुद्दा लंबित कर दिया गया और पीछे से इन बांधों का काम बदस्तूर जारी रखा गया. राष्ट्रीय नदी माँ गंगा की इस उपेक्षा से आहत डॉ. जी. डी. अग्रवाल (स्वामी सानंद) ने वर्ष 2018 में गंगा की अविरलता हेतु इन बांधों को निरस्त करने की मांग उठाते हुए आमरण उपवास किया.
115 दिन उपवास के बाद स्वामी सानंद के प्राण नहीं बच पाए और माँ गंगा के लिए उनका बलिदान हो गया पर सरकारी संवेदनहीनता फिर भी बनी रही. हालांकि उसके बाद प्रधानमन्त्री कार्यालय ने निर्णय लिया कि 50% तक जिन बांधों में काम हो चुका है उन्हें रद्द कर दिया जाएगा पर राज्य सरकार के बाँध प्रेम ने प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्णय तक को स्वीकार नहीं किया और तब केंद्र ने भी उत्तराखंड की बिगडैल जिद के आगे बेबस होकर चुप्पी साध ली. इसलिए आज इन बांधों की तबाही, इनसे हुए पर्यावरणीय नुकसान और भारी जान-माल की हानि की जिम्मेदारी से हमारा तंत्र इसे ‘प्राकृतिक आपदा’ घोषित कर छिप नहीं सकता!
संकीर्ण चारधाम-घाटियों में फैला बांध-परियोजनाओं का जाल और साथ में चल रही चारधाम हाइवे चौड़ीकरण परियोजना
क्यों 2014 के बाद से अब तक देश के अरबों रुपये इन बांधों के अवैज्ञानिक निर्माण में बहाये गए जब इनकी नियति की स्पष्ट घोषणा 2014 की एक्सपर्ट रिपोर्ट में कर दी गयी थी? सुप्रीम कोर्ट का धन्यवाद है कि उसने 2014 में ही प्रस्तावित 24 बांधों को रोक दिया था जिनमे ऋषि गंगा में बनने वाले 2 और पावर प्रोजेक्ट भी शामिल थे, अन्यथा आपदा का दायरा तथा जान-माल की तबाही का आंकड़ा कई गुना अधिक होता!
उस समय पर्यावरण मंत्रालय ने यह स्वीकार किया था कि इन घाटियों की धारण क्षमता (carrying capacity) का अध्ययन होना चाहिए और उसी अनुसार विकास की योजनायें तय होनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट की एक्सपर्ट कमेटी ने हिमालयी नीति (Himalayan Policy) का एक मसौदा भी केंद्र को सौंपा था जिसमे ‘भागीरथी इको सेंसिटिव ज़ोन’ की तर्ज पर इन सभी हिमालयी घाटियों के 100 किलोमीटर जलग्रहण क्षेत्र को इको सेंसिटिव ज़ोन बनाने की सिफारिश की थी. इसके तहत प्रतिबंधित, नियंत्रित और अनुमन्य गतिविधियाँ इन क्षेत्रों में चिन्हित कर उनकी गाइडलाइन्स तैयार होनी चाहिए. किन्तु यह सब बातें न केवल ठन्डे बस्ते में डाल दी गयी अपितु 2016 में सारे सबक भुला ऊपर से चारधाम प्रोजेक्ट के नाम पर इन्ही हिमालयी घाटियों में सड़को के एक-मुश्त चौडीकरण की अंधाधुन्द गतिविधि और शुरू हो गयी.
हजारों पेड़, सैकड़ों हेक्टेयर जंगल, करोड़ों टन टॉप-सोइल की हानि एक झटके में हिमालय ने इस परियोजना के चलते देखी और देख रहा है. न केवल पर्यावरणीय मानकों अपितु पहाडी सड़क की चौड़ाई के मानकों की भी इस परियोजना में अनदेखी की गयी और परिणामस्वरूप कई भू-स्खलन क्षेत्र सक्रिय हो गए. 2013 के बाद सारे सबक भुला कर एक बार फिर से इन हिमालयी घाटियों को विकास के नाम पर लादा जाने लगा, चाहे बांधों का बदस्तूर निर्माण हो, चारधाम परियोजना हो, अंधाधुन्द टूरिज्म हो, यहाँ तक कि पवित्र बुग्याल क्षेत्रों को भी शादी-ब्याह और पार्टियों के हॉट-स्पॉट के रूप में देखा जाने लगा. भविष्य में चारधाम क्षेत्रों में रेलवे पहुंचाने की योजना भी गतिमान है. उच्च दिव्य हिमालयी तीर्थों को अब उनकी पारंपरिक और प्राचीन मर्यादा से खिलवाड़ कर टूरिस्ट हॉट-स्पॉट के नजरिये से देख उन्हें टाउनशिप रूप दिया जा रहा है.
परिणामस्वरूप जंगल तेजी से कटे, मृदा-क्षरण बढ़ा, जल-श्रोत तेजी से सूख रहे हैं, पहाडी ढाल कमजोर और जर्जर पड़ रहे हैं, जंगलों में नमी घट गयी और आग लगने की घटनाएं सर्दियों में भी विकराल रूप लेने लगी. इस घटना के पीछे इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि पिछले तीन महीने से इस हिमालयी क्षेत्र में जंगलों में लगाई आग विकराल रूप से फैली हुई थी. आग लगाए जाने की लगभग 250 घटनाएं इसी शीतकाल में अप्रत्याशित रूप से उत्तराखंड में दर्ज हुई. जंगल में लगी भीषण आग से उत्सर्जित ब्लैक-कार्बन का ग्लेसिएर पर जाकर बैठना ग्लेसियरों की स्थिरता को कम करता है.
क्लाइमेट चेंज के प्रति हमारा हिमालय वैसे ही अधिक संवेदनशील है किन्तु अंधाधुंध विकास (unsustainable development) के नाम पर इन घाटियों को हर तरह से लादा जाना, वनों के प्रति संवेदनहीन बन इन्हें जलाया जाना और चारधामों को ‘चार- दामों’ में बदलने की सोच और होड़ ही है इन आपदाओं का मूल-कारण. आज हमें चाहिए कि इसे प्राकृतिक आपदा कहने की भूल न करें, जब प्रकृति में कुछ भी हमने अनछुआ नहीं छोड़ा, धरती से आकाश तक हर जगह मानव का गंभीर-हस्तक्षेप पहुँच चुका है तो फिर आपदा प्राकृतिक कैसे? निश्चित ही यह मानवीय कर्मों की उपज है.
(लेखक डॉ. हेमंत ध्यानी, गंगा-आह्वान नामक जन-अभियान से जुड़े हैं. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा June-2013 आपदा के बाद गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य रहे हैं तथा वर्तमान में चारधाम परियोजना पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर गठित हाई पावर समिति के भी सदस्य हैं.)
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