यूपी निकाय चुनाव में क्या सार्थक रही नरेंद्र मोदी की पसमांदा नीति?
पिछले वर्ष से ही प्रधानमंत्री मोदी जी लगातार मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय पर बल देते हुए पसमांदा मुद्दे की चर्चा कर रहें हैं जिस कारण पहली बार राष्ट्रव्यापी तौर पर मुख्य धारा में मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय का प्रश्न चर्चा का विषय बना हुआ है.
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कर्नाटक विधान सभा में भाजपा की हार पर उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में उसकी जीत ने कुछ हद तक जख्म पर मरहम लगाने का काम किया. हालांकि विधान सभा और निकाय चुनाव की तुलना नहीं किया जा सकता क्योंकि दोनो चुनावो का वातावरण और परिस्थितियां भिन्न होती है फिर भी राजनैतिक पार्टियां इसको मनोवैज्ञानिक बढ़त के रूप में जरूर लेती हैं. उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में सबसे अधिक जिस बात की चर्चा थी वो प्रधानमंत्री मोदी की पसमांदा नीति की थी.
ज्ञात रहें कि पिछले वर्ष से ही प्रधानमंत्री मोदी जी लगातार मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय पर बल देते हुए पसमांदा मुद्दे की चर्चा कर रहें हैं जिस कारण पहली बार राष्ट्रव्यापी तौर पर मुख्य धारा में मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय का प्रश्न चर्चा का विषय बना हुआ है. जहां एक ओर देशज पसमांदा समाज और पसमांदा कार्यकर्ताओ में इसको लेकर उत्साह का माहौल है कि पहली बार राष्ट्रव्यापी स्तर पर उनके सुख दुःख की चर्चा हो रही है तो वही दूसरी ओर अशराफ वर्ग और तथाकथित लेफ्ट लिबरल सेक्युलर खेमे में इसे संदेह की दृष्टि से देखते हुए मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय को आंतरिक मामला बता इसे मुस्लिम समाज को बाटकर वोट की राजनीति करने का भी आरोप लगाया जा रहा है.
पसमांदा नीति को प्रयोग के रूप में राजनैतिक रूप से सबसे जटिल राज्य उत्तर प्रदेश को प्रयोगशाला के रूप में चुना गया. विधान सभा चुनाव 2022 से पहले अल्पसंख्यक आयोग, मदरसा बोर्ड और उर्दू अकादमी के अध्यक्ष पदों पर पहली बार पसमांदा समाज के लोगो को आसीन किया गया. जहां अब तक पारंपरिक रूप से मुस्लिम समाज का संभ्रांत शासक वर्गीय अशराफ वर्ग ही काबिज होता आया था. लोक कल्याणकारी स्कीमो और हुनर हाट के जरिए पसमांदा समाज को जोड़ने का प्रयास किया गया. यूपी विधान सभा चुनाव के दौरान भाजपा के शीर्ष नेताओं ने मुस्लिम समाज में सामाजिक न्याय की बात करते हुए मुस्लिम समाज के वंचितों के उत्थान की बात किया गया.
हालांकि भाजपा के पक्ष में केवल 8% वोट ही मुसलमानों का मिला जिसमें संभवतः अधिकांश भाग पसमांदा का था. लेकिन महत्त्वपूर्ण यह था कि यह प्रतिशत पिछले विधान सभा के तुलना में लगभग दुगना था. जिसका आंशिक रूप से ही सही चुनाव पर प्रभाव पड़ा और ऐसा अनुमान लगाया गया कि लगभग 70-80 सीटों पर जहां बहुत ही कम वोटो से हार जीत हुई वहां भाजपा के पक्ष में ये वोट निर्णायक साबित हुए. और शायद यही एक बड़ी वजह थी कि इतिहास में पहली बार भाजपा ने सैयद को मंत्रालय देने की अपनी परम्परा को तोड़ते हुए पसमांदा बुनकर समाज से एक मंत्री बनाया.
निकाय चुनाव में पसमांदा नीति को आगे बढ़ाते हुए भाजपा ने लगभग 394 टिकट (निकाय सदस्य और निकाय अध्यक्ष हेतु) मुस्लिम समाज को दिए जिसमें अधिकांश पसमांदा समाज से थे. जिसमें लगभग 37 के आस-पास अध्यक्ष पद के लिए और 350 के आस पास सदस्य पद के लिए थे. जिसमें पसमांदा समाज की तीन महिलाओं समेत कुल पांच अध्यक्ष पद के प्रत्याशी विजयी हुए. सदस्य पद के लिए लगभग 55 प्रत्याशी विजेता घोषित हुए. भाजपा के नेतृत्व में पसमांदा महिलाओं का चुनाव जीतना भी एक नए युग की शुरुवात की ओर इशारा करता है. नगर निगम में महापौर के लिए किसी भी सीट पर भाजपा ने पसमांदा प्रत्याशी नहीं दिया था फिर भी सभी सीटें भाजपा के पक्ष गईं विशेष रूप से पसमांदा बहुल क्षेत्रों में. निःसंदेह इसमें पसमांदा वोटरों ने एक बड़ी भूमिका निभाई.
हालांकि अभी भी भाजपा इस मामले में सपा और बसपा से पीछे रह गई जहां पसमांदा समाज के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी क्रमशः 16 और 11 की संख्या में विजयी हुए लेकिन यह भी देखने वाली बात है कि भाजपा, कांग्रेस और एआईएमआईएम जिसके क्रमशः 3 और 2 ही पसमांदा समाज के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी जीत दर्ज कर सके आगे रही. पसमांदा समाज को भाजपा से जोड़ने की नीति के शुरूवात में यह एक अच्छा परिणाम माना जा सकता है विशेष रूप से एक ऐसे समाज से जुड़ना जो अब तक भाजपा को अछूत मानकर चुनाव के दौरान उसे वोट देने की बात करना तो दूर सोचता तक नहीं था.
निकाय चुनाव में पसमांदा वोटरों ने निर्भीक होकर अशराफ के विरुद्ध, पसमांदा प्रत्याशियों को और जहां पसमांदा नहीं थे वहां हिन्दू प्रत्याशियों को अपना मत देना उचित समझा. जहां तक मेरी जानकारी का प्रश्न है 1946 के चुनाव (जो सेपरेट इलेक्ट्रेट और सीमित मताधिकार पर केंद्रित था) के बाद शायद यह पहला चुनाव था जिसमें पसमांदा समाज ने खुल कर अशराफ वर्ग के विरुद्ध चुनाव प्रचार और वोटिंग किया. जिस कारण पिछ्ले चुनाव की तुलना में अधिक संख्या में निर्दल एवं अन्य पार्टियों से भी पसमांदा उम्मीदवार जीत दर्ज कर सकें.
इस चुनाव में पसमांदा ने मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने वाले अशराफ मुसलमानो के प्रभाव से निकलते हुए स्वतंत्र रूप से अपने मताधिकार का प्रयोग करना सीखा फिर यह अवधारणा भी खत्म हुआ कि भाजपा को मुसलमान वोट नहीं करता दूसरे यह रास्ता भी मिल गया कि अगर भाजपा को मुसलमानो पर ध्यान केंद्रित करना है तो वो कौन सा वर्ग है जिस पर उसको ध्यान केंद्रित करना है और यह वर्ग निःसंदेह मुसलमानो का वंचित तबका है जिसे अब देशज पसमांदा कहा जाने लगा है जो एक अनुमान के मुताबिक कुल मुसलमानो की जनसंख्या का लगभग 90% भाग है. भाजपा के रणनीतिकार यह समझ रहें हैं कि इतने बड़े समूह को अगर जोड़ने का प्रयास किया गया तो अगर पूरा न सही कुछ भी लोग लामबंद हुए तो वोटरों की एक अच्छी संख्या उनके पक्ष में आ सकती है.
इससे ना सिर्फ उत्तर भारत बल्कि दक्षिण भारत में भी पांव पसारने में आने वाली रुकावटें काफी कम हो हो सकती हैं. जो भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को भाजपा के पक्ष में बदलने में निर्णायक साबित हो सकता है. और पसमांदा समाज जो अब तक राजनैतिक रूप से अपनी पहचान और नेतृत्व बनाने में नाकामयाब रहा है, भाजपा उनकी इस नाकामी को कामयाबी में बदल सकती है. इसलिए ऐसा अनुमान है कि आने वाले विधान सभाओं और लोकसभा के चुनाव में भाजपा की योजना में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिल सकता है कि अब वो मुसलमानो को अपने लक्ष्य से बाहर रखने के बजाय मुसलमानो के वंचित एवं बड़े तबके पसमांदा वर्ग पर ध्यान केंद्रित कर अपने तरीके से आगे बढ़ेगी.
दूसरी ओर पसमांदा समाज भी अब तथाकथित सेक्युलर और सामाजिक न्याय की पार्टियों के बंधुआ वोटर की पहचान से बाहर निकल कर भाजपा के विकल्प पर भी आगे बढ़ सकता है. कुल मिला कर आने वाले चुनावों में मुस्लिम समाज को धुव्रीकरण कर एक मुश्त वोटो लेने की सम्प्रदायिक राजनीति पर विराम लग सकता है और अब मुस्लिम समाज में हिन्दू समाज की तरह वोटिंग पैटर्न में सामाजिक न्याय प्रधान हो सकता है.
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