बंगाल में 'ब्लड पॉलिटिक्स' की कहानी, आज की नहीं बहुत पुरानी है, डरावनी भी!
बंगाल चुनावों (West Bengal Assembly Elections 2021) में ठीक ठाक वक़्त बाकी है लेकिन राज्य में एक के बाद पॉलिटिकल मौतों का बड़ा खामियाजा आने वाले वक़्त में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) को भुगतना पड़ेगा. वे खुद पीएम मोदी (PM Modi) और गृहमंत्री अमित शाह (Amit Shah) के लिए जमीन तैयार कर रही हैं.
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जैसा कि भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने बंगाल (West Bengal) में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की तृणमूल कांग्रेस (Trinmool Congress) पर हमला करने के लिए अपना गियर शिफ्ट किया, उसने राजनीतिक हिंसा को अपना प्राथमिक हथियार बनाया है. और इस हमले की शुरुआत और किसी ने नहीं बल्कि खुद देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने की है. बात पीएम मोदी के बिहार विजय भाषण की हो तो उन्होंने कहा था 'जो लोग लोकतांत्रिक तरीकों से हमें चुनौती देने में असमर्थ हैं, उन्होंने भाजपा कार्यकर्ताओं को खत्म करने के लिए हिंसक तरीके अपनाए हैं. अगर उन्हें लगता है कि वे अपने सपनों को पूरा कर पाएंगे, तो मैं कहना चाहूंगा कि चुनाव आएंगे जाएंगे और लोग खुद उन्हें सबक सिखाएंगे.
अपनी हालिया बंगाल यात्रा के दौरान, गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि 2014 के बाद से 100 से अधिक भाजपा कार्यकर्ता मारे गए हैं. शाह की बातों पर पलटकवार करते हुए तृणमूल के सौगात रे ने कहा है कि 'वे (भाजपा) एक फेक नैरेटिव बनाने की कोशिश कर रहे हैं. यहां तक कि अगर कोई प्रेमी आत्महत्या कर लेता है तो उसे भी को एक राजनीतिक मौत भी कहा जा रहा है.
बंगाल में जिस तरह पॉलिटिकल मौतें हो रही हैं उसका बड़ा फायदा भाजपा को ही मिलेगा
जैसा कि भगवा ब्रिगेड ने बिगड़ती कानून-व्यवस्था के बारे में कहा है, ममता बनर्जी के करीबियों ने मांग की है कि राज्य में अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) लागू किया जाए इसके फ़ौरन बाद ही तृणमूल को सीपीआईएम के पुराने दिनों की याद आनी शुरू हो गयी है.
Deeply hurt by the brutal killing of our young karyakarta, Trilochan Mahato in Balarampur,West Bengal. A young life full of possibilities was brutally taken out under state’s patronage. He was hanged on a tree just because his ideology differed from that of state sponsored goons. pic.twitter.com/nHAEK09n7R
— Amit Shah (@AmitShah) May 30, 2018
हाई प्रोफाइल राजनीतिक मौतें
जमीनी स्तर पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं की मौत हिंसक टर्फ पर नियमित घटना बन गई है, बंगाल में पिछले दो वर्षों में कम से कम चार हाई-प्रोफाइल राजनीतिक मौतें देखी गई हैं. बात हाल की हो तो अभी कुछ दिन पहले ही उत्तर 24 परगना जिले के टीटागढ़ पुलिस स्टेशन से कुछ मीटर की दूरी पर भाजपा पार्षद मनीष शुक्ला को गोलियों से भून दिया गया था.जुलाई में, उत्तर दिनाजपुर जिले में भाजपा विधायक देवेन्द्रनाथ रॉय का शव रहस्यमय परिस्थितियों में लटका मिला था.
टीएमसी विधायक सत्यजीत बिस्वास की पिछले साल सरस्वती पूजा के दिन नदिया जिले में पॉइंट जीरो रेंज पर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. इसी तरह, प्रभावशाली TMC नेता निर्मल कुंडू की जून 2019 में उत्तर 24 परगना जिले के निम्टा में गोली मारकर हत्या कर दी गई.
राजनीतिक विश्लेषक बिस्वनाथ चक्रवर्ती बताते हैं, "राजनीतिक हत्या या राजनीतिक हिंसा पश्चिम बंगाल की राजनीति की एक स्थायी संरचना है. 1972 के सिद्धार्थ शंकर रे मंत्रालय के बाद से, राजनीतिक हिंसा पश्चिम बंगाल की राजनीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई है. वामपंथी राजनीतिक रूप से राजनीतिक हिंसा का इस्तेमाल करते हैं.लेकिन ममता शासन के दौरान, यह स्थायी हो गया है.'
बंगाल में हिंसा कैसे काम करती है, इस पर विस्तार देते हुए उन्होंने कहा, 'जीवन के हर क्षेत्र में, हिंसा जनता को जुटाने और स्थानीय स्तर पर राजनीति को नियंत्रित करने के लिए एक महत्वपूर्ण तरीका है. इसलिए अब हिंसा का इस्तेमाल सत्तारूढ़ दल द्वारा अपने राजनीतिक छोर के लिए व्यापक रूप से किया जाता है. यह पश्चिम बंगाल के लोगों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है. हम नहीं जानते कि यह कैसे रुकेगा और इसे कौन रोकेगा, लेकिन यह निश्चित रूप से सच है कि हिंसा का इस्तेमाल सत्तारूढ़ दल द्वारा क्षेत्र के प्रभुत्व और नियंत्रण के लिए किया गया है, जबकि पुलिस और प्रशासन खामोश रहता है.'
NCRB के आंकड़ों से क्या पता चलता है
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, पश्चिम बंगाल में 2018 में सबसे ज्यादा राजनीतिक हत्याएं हुईं. भारत भर में दर्ज 54 राजनीतिक हत्याओं में से 12 अकेले राज्य में दर्ज की गईं. NCRB के आंकड़ों से पता चलता है कि 1999 और 2016 के बीच 18 सालों में, पश्चिम बंगाल में हर साल 20 राजनीतिक हत्याएं हुईं.
बंगाल में सबसे ज्यादा राजनीतिक मौतें 2009 में हुईं. इसके बाद 2000, 2010 और 2011 में, 38 राजनीतिक हत्याएं हुईं.
चूंकि बंगाल में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए हाल फ़िलहाल में बंगाल राजनीतिक और सांप्रदायिक आधार पर पहले से कहीं अधिक ध्रुवीकृत है. बात मौजूदा वक़्त की हो तो राज्य में राजनीतिक बयानबाजी के अलावा हिंसा में तेज वृद्धि देखने को मिली है.
वामदलों के लिए सामंती सेटअप
इस तरह की स्थानिक राजनीतिक हिंसा की उत्पत्ति को समझने के लिए, ग्रामीण बंगाल में पावर स्ट्रक्चर को समझने की की आवश्यकता है. बंगाल में ये सामंती सेटअप जमींदारों के आसपास रहा जो धीरे-धीरे वाम शासन के लंबे वर्षों के दौरान पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा बदल दिया गया. स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के दो दशक के शासन के बाद, बंगाल की राजनीति में वामपंथी बदलाव देखा गया.
1946 में तेभागा (तीन भागों) आंदोलन से शुरू हुए ये आंदोलन - 70 के दशक में ऑपरेशन बर्गा में परिवर्तित हुआ - जब वाम मोर्चा सरकार ने अंतिम पुनर्वितरण को अंतिम रूप दिया, तो भूमि अधिग्रहण सत्ता परिवर्तन का महत्वपूर्व अंग बना. 1960 और 1970 का दशक राज्य में वामपंथी आंदोलन को जमीन दे रहा था इस दौरान नक्सल विद्रोह भी पूरे राज्य को प्रभावित कर रहा था.
गांवों से लेकर कोलकाता की गलियों तक और यहां तक कि विश्वविद्यालयों में भी हिंसा की शुरुआत हुई जिसमें राज्य की पुलिस को निशाना बनाया गया. चूंकि 70 के दशक में लेफ्ट का ग्राफ ऊपर आया था, राज्य में अधिक हिंसा हुई और 1972 में कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे सत्ता में आए.
रे पर आरोप था कि उन्होंने सत्ता का इस्तेमाल करते हुए विरोधियों और विपक्ष का दमन किया. मामले के मद्देनजर कांग्रेस पर गंभीर आरोप लग रहे थे इसलिए कांग्रेस का पतन हुआ और अंततः 1977 में वाम मोर्चे की शानदार जीत से वाम शासन की शुरुआत हुई.
वाम के समानांतर अधिरचना
1977 और 2006 के बीच जब लगातार सातवीं वामपंथी सरकार स्थापित हुई, तो सीपीआईएम ने बंगाली समाज पर लगभग नियंत्रण हासिल कर लिया. अपने रेजीमेंट कैडर बेस की मदद से, CPIM ने एक समानांतर अधिरचना का निर्माण किया, जहां 'पार्टी' ने सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप किया और मध्यस्थता की.
1977 में वाम मोर्चा सरकार के सत्ता संभालने के बाद इसने ऑपरेशन बर्गा को लॉन्च किया और भूमि पुनर्वितरण को अंतिम रूप दिया. सरकार ने ग्रामीण बंगाल में शक्ति का प्रयोग करने के लिए एक विशाल पंचायती राज प्रणाली की स्थापना की. लेकिन अपने नियंत्रण को मजबूत करने के प्रयास में यह सार्वजनिक जीवन के हर पहलू पर हावी हो गया.
34 साल के स्थिर ठहराव को तब झटका लगा जब वामपंथियों को एहसास हुआ कि उन्हें उद्योग में कुछ लाना होगा जिसे उन्होंने अपने व्यापार संघवाद के कारण दूर कर दिया.
फिर ममता सत्ता में आती हैं
पश्चिम बंगाल में राजनीति पूरी तरह से सामने तब आई, जब उद्योगों की स्थापना के लिए सिंगूर और नंदीग्राम में जबरन भूमि अधिग्रहण के विरोध ने पश्चिम बंगाल के वामपंथियों पर से लोगों के विश्वास को हिला दिया इसके बाद राज्य की कमान 2011 में ममता बनर्जी के पास आई.
2018 के पंचायत चुनावों में, टीएमसी ने 34 प्रतिशत सीटें जीतीं, वहां मतदान के दौरान धांधली और बूथ कैप्चरिंग के आरोप लगे. हिंसा हुई और 10 लोगों की जान चली गई.
2011 के बाद पंचायतों और सरकारी तंत्र को नियंत्रित करने वाले क्षेत्र के वर्चस्व की कहानी अधिक संगठित तरीके से जारी रही. तृणमूल कांग्रेस ने खुद को उसी शक्ति पदानुक्रम में बदल दिया, जिसके लिए उसने कभी खुद लड़ाई लड़ी थी.
कोई आश्चर्य नहीं कि राष्ट्रपति शासन का सबसे बड़ा प्रस्तावक, जो कभी 'राज्य-प्रायोजित आतंकवाद' पर रोया था, आज उसे चुनौती देने वाले खुद उसी पर आरोप लगा रहे हैं.
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