छवि में क्या रखा है, बोलता तो काम या कारनामा ही है - चाहे योगी हों या कोई और
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लिखी एक किताब में योगी आदित्यनाथ के अतीत का हवाला देते हुए, नये रोल में उन्हें काम पर फोकस करने की सलाह दी गयी है. ऐसी सलाह योगी के लिए कितना मायने रखती है?
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क्या वास्तव में योगी आदित्यनाथ को अपनी छवि बदलनी चाहिये? यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ये सलाह एक किताब में दी गयी है. ये किताब लिखी है संघमित्रा मौर्य ने जो योगी सरकार में मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य लंबे समय तक मायावती के साथ रहे लेकिन चुनावों से पहले उन्होंने बीएसपी छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन कर लिया.
सवाल ये है कि अगर योगी आदित्यनाथ अपनी छवि बदलने की कोशिश भी करें तो किसे और क्या फायदा होगा? कहीं आडवाणी बन जाने का खतरा तो नहीं?
सलाह के मायने
यूपी सरकार ने कानून व्यवस्था में सुधार और अपराधियों पर नकेल कसने को लेकर अपनी पीठ थपथपाते हुए बताया कि चार सौ से ज्यादा एनकाउंटर हुए हैं. ये डाटा 20 मार्च से लेकर 14 सितंबर के बीच का है. योगी आदित्यनाथ ने 19 मार्च को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. यानी कुल छह महीने का हिसाब - और इसी में मालूम हुआ कि इस दौरान 15 लोग एनकाउंटर में मारे गये. देश भर में पुलिस एनकाउंटर की क्या हालत है कोर्ट के फैसलों से समझा जा सकता है. कितने एनकाउंटर फर्जी हैं इस बात का कोई हिसाब नहीं मिलता.
योगी सरकार एनकाउंटर के आंकड़े बता कर खुश हो रही थी, लेकिन वो खुद ही घिर भी गयी. कानून व्यवस्था के नाम बंदूक से ऐसे फटाफट फैसले की इजाजत तो किसी को नहीं है. वो पुलिस ही क्यों न हो.
संघमित्रा की किताब का भी कुछ वैसा ही हाल है, किताब का थीम तो योगी के राजनीतिक अवतार की गाथा सुनाना है, लेकिन हकीकत खुद-ब-खुद सामने आ गयी है.
छवि बनाती भी है, बिगाड़ती भी है
'मोदित्व के मायने' - यही उस किताब का टाइटल है जिसे संघमित्रा मौर्य ने दीपक केएस के साथ मिल कर लिखा है. किताब को लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट का टाइटल है - 'मंत्री की बेटी की किताब सीएम योगी के अतीत की याद दिलाती है.' रिपोर्ट के अनुसार, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तारीफ में जो संदर्भ दिए गए हैं उससे वो परेशान हो सकते हैं.
दरअसल, इस किताब में संघमित्रा ने योगी के भड़काऊ भाषणों का उल्लेख तो किया ही है, उनके अतीत को लेकर भी काफी बातें की है और उसी में एक सलाह भी दी गयी है.
किताब में संघमित्रा ने योगी को आगाह किया है कि अब उन्हें अपनी भावनाओं को काबू में रखना चाहिये क्योंकि वो सूबे के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए हैं. संघमित्रा लिखती हैं - 'उन्हें राज्य में अच्छे शासन पर जोर देना चाहिये, नहीं तो उनकी नकारात्मक छवि लगातार लोगों को परेशान करेगी.' संघमित्रा की किताब में योगी का जिक्र महज एक सेक्शन में है और बाकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कामयाबी पर फोकस है. किताब में योगी के सांसद बनने से लेकर सीएम की कुर्सी पर बैठने तक के सफर को उनका राजनीतिक अवतार बताया गया है.
सवाल ये है कि लेखक की सलाह किसके लिए कितनी अहमियत रखती है? लेखक की सलाह सूबे की जनता और लोकतंत्र के लिए अलग मायने रखती है, लेकिन क्या ऐसी सलाह क्या योगी के लिए भी ठीक रहेगी?
छवि में क्या रखा है
शेक्सपीयर ने लिखा है - नाम में क्या है? अगर इस हिसाब से देखें तो छवि में क्या है? और नाम और छवि दोनों को जोड़ कर देखें तो सारे भेद अपनेआप मिट जाते हैं - जिस भाव से लोग 'मोदी-मोदी' करते हैं, उसी भाव से मोदी के सामने ही 'योगी-योगी' के नारे भी लगाते हैं.
असल बात तो ये है योगी आदित्यनाथ की छवि के चलते ही उन्हें यूपी के सिंहासन पर बैठाया गया है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन्हें इसीलिए पसंद करता है - और केरल में बीजेपी अलख जगाने के लिए अमित शाह को भी अपने बाद सबसे ज्यादा पसंद योगी ही आते हैं.
छवि ने ही बनाया बीजेपी का पसंदीदा चेहरा
केरल में बरसों से राजनीतिक हिंसा चली आ रही हैं. इस हिंसा में दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों की तरह के कार्यकर्ता मारे गये हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी मिल कर केरल का मुद्दा जोर शोर से उठा रहे हैं. संघ और बीजेपी का आरोप है कि उसके कार्यकर्ताओं को मौजूदा मुख्यमंत्री पी. विजयन के शासन में टारगेट किया जा रहा है. बीजेपी की ओर से जनरक्षा यात्रा हो रही है जिसकी शुरुआत खुद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने की और उसके बाद उन्होंने योगी को भेजा.
जाहिर है योगी को उनकी छवि के चलते ही भेजा गया. योगी को कार्यकर्ताओं ने पसंद भी खूब किया. केरल के कन्नूर में बीजेपी की जनरक्षा यात्रा में शामिल योगी ने भी सूबे की सीपीएम सरकार पर 'राजनीतिक हत्याओं' और 'लव जिहाद' के लिए निशाना साधा.
जहां तक छवि बदलने की बात है, बीजेपी के सबसे सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी सबसे बड़ी मिसाल हैं. आडवाणी को किसी जमाने में लौह पुरुष कहा जाता रहा. वैसे लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को कहा जाता है. अयोध्या आंदोलन के चलते आडवाणी की छवि कट्टर हिंदूवादी नेता की रही, लेकिन बाद में इसे बदलने की कोशिश करने लगे. इसी कोशिश में वो पाकिस्तान गये और जिन्ना को लेकर एक ऐसा बयान दे दिया कि पूरी बाजी ही पलट गयी. आडवाणी के उसी बयान के चलते संघ उनसे नाराज हो गया और एक नये नेता की तलाश करने लगा. जल्द ही उसकी तलाश पूरी भी हो गयी और नरेंद्र मोदी को वो जगह दे दी गयी.
देखा जाय तो प्रधानमंत्री मोदी का भी नारा है - सबका साथ, सबका विकास. लेकिन चुनाव आते ही वो भी श्मशान और कब्रिस्तान का जिक्र कर बहाने से मैसेज पहुंचाने लगते हैं. जिस छवि की ओर किताब में इशारा किया गया है उसे लेकर आडवाणी, योगी और मोदी में तुलना हो तो चैंपियन मोदी ही बनेंगे. इस हिसाब से देखें तो अगर मोदी और योगी भी छवि बदलने के चक्कर में पड़े तो आडवाणी बनते देर नहीं लगेगी.
संघमित्रा ने छवि को पीछे छोड़ कर काम पर फोकस करने की सलाह दी है. योगी के केरल पहुंचने से पहले ही मुख्यमंत्री विजयन ने गोरखपुर अस्पताल में हुई मौत का मामला उठाया. विजयन ने सलाह दी थी कि केरल आकर वहां के अस्पतालों से कुछ सीख लेते तो बेहतर होता. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने भी कहा, "योगी आदित्यनाथ केरल में हैं. हमारी उनको सलाह है कि पहले वह उत्तर प्रदेश की देखभाल करें लेकिन, अब चूंकि वह वहां (केरल में) हैं, इसलिए उन्हें सरकारी अस्पतालों में कैसे स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करवाई जाती है, यह सीखने के लिए इनका भी दौरा करना चाहिए. उन्हें सरकारी स्कूलों का भी दौरा करना चाहिए और सीखना चाहिए कि कैसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जाती है." यूपी के गोरखपुर में बाबा राघव दास अस्पताल में अगस्त में 60 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गयी थी. रिपोर्ट और खबरों में सामने आया कि मौतों का कारण ऑक्सीजन सप्लाई में बाधा रही, लेकिन योगी सरकार इस बात को आखिर तक झुठलाती रही.
यूपी चुनावों में अखिलेश यादव का स्लोगन था - काम बोलता है. प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को समझा दिया - आपका काम नहीं कारनामा बोलता है. अखिलेश यादव एक्सप्रेस वे और पता नहीं क्या क्या चीजें दिखाते रहे, लेकिन मोदी की बात में उन्हें ज्यादा वजह दिखा. ये सब मोदी की छवि का ही जादू रहा. फिर तो साफ समझ आता है - छवि में क्या रखा है, बोलता तो काम या कारनामा ही है - चाहे योगी हों या कोई और...
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