औरंगाबाद को उद्धव सरकार के आखिरी दिन संभाजीनगर बनाने की क्या मजबूरी थी?
यह अपने आप में शर्मनाक है कि विदेशी हत्यारे के नाम से एक जिले पहचाना जा रहा है और संभाजी महाराज के रूप में मातृभूमि के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाले युवा राजा को सदियों से अपमानित किया जा रहा है. उद्धव ठाकरे को बताना चाहिए कि क्या मजबूरी थी जो उन्होंने आख़िरी क्षण में नाम बदलने का फैसला लिया.
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करीब-करीब 333 साल बाद 29 जून 2022 को दूसरे छत्रपति संभाजी महाराज की आत्मा को शांति जरूर मिली होगी. महाराष्ट्र समेत समूचे देश लिए भला इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है कि जिस धरती पर लाडले, होनहार, शूरवीर स्वतंत्रता सेनानी का रक्त गिरा था- वहीं उनका हत्यारा सदियों से उपहास उड़ाता नजर आता है. इससे दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास क्या होगा कि सहीद गुमनाम है और हत्यारे के नाम पर जिले की पहचान दुनियाभर में है. वह भी तब जबकि देश किसी तुर्क, अफगान या अरबी हमलावर के नेतृत्व में नहीं बल्कि आजाद मुल्क है. कम से कम आजादी के बाद तो जबरदस्ती संभाजी के नामा पर पोती गई कालिख ख़त्म कर साते थे. भारतीय राजनीति में औरंगजेब के लिए यह कौन सी मजबूरी या 'भाईचारा' था कि हत्यारे की 'कच्ची कब्र' पर जबतब कोई ओवैसी फूल चढ़ाकर देश की संप्रभुता तार-तार करने की कोशिश करता रहता है.
333 साल बाद ही सही, ऐतिहासिक शर्म पोछने के लिए उद्धव ठाकरे की कैबिनेट का फैसला सराहनीय है- मगर उन्होंने इतना वक्त क्यों लिया, और मुख्यमंत्री के रूप में बिल्कुल आख़िरी समय में दिलेरी क्यों दिखाई? जबकि उनके पिता और शिवसेना संस्थापक बालासाहेब ठाकरे जीवनभर संभाजी नगर का सपना देखते रहे. उन्होंने आजन्म औरंगाबाद को कभी औरंगाबाद नहीं कहा. सेना के घोषणापत्र में संभाजीनगर के रूप में औरंगाबाद का नाम बदलना हमेशा प्राथमिकता से शामिल रहा. यहां तक कि 2019 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने प्रमुखता से संभाजीनगर के मुद्दे को घोषणापत्र में रखा. तब सेना का भाजपा के साथ गठबंधन था.
क्या एनसीपी-कांग्रेस के साथ उद्धव भी आत्मघाती सेकुलर मूल्य पर बढ़ रहे आगे?
चुनाव बाद महाराष्ट्र में मिले जनादेश को उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद पाने के लालच में पीछे छोड़ दिया. उन्होंने एनसीपी और कांग्रेस के रूप में उन दो दलों के साथ महा विकास आघाड़ी नाम का मोर्चा बनाया, जिसके कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में औरंगाबाद के नाम बदलने की कल्पना तक नहीं की जा सकती. वह था भी नहीं. भले ही कांग्रेस और एनसीपी के कुछ गढ़ों को ध्वस्त कर (जिसमें मुस्लिम बहुल औरंगाबाद और नांदेड शामिल है) ओवैसी की पार्टी ने पिछले चुनावों में लगातार राजनीतिक ताकत दिखाई हो, बावजूद एनसीपी-कांग्रेस देश के लिए 'आत्मघाती सेकुलर मूल्यों' पर ही राजनीति करते आगे बढ़ रहे हैं. परंपरागत सेकुलर मूल्य बुरे नहीं हैं, मगर एनसीपी-कांग्रेस के संदर्भ में मुस्लिम परस्त राजनीति का रूप धर चुके हैं. कुछ मुद्दों पर तो मुस्लिम तुष्टिकरण ही नजर आती है. भूलना नहीं चाहिए कि ओवैसी के हाथों निर्णायक मुस्लिम बहुल गढ़ों को गंवाने के बावजूद आम महाराष्ट्रीयन की भावनाओं के जुड़े संभाजीनगर के मसले पर एनसीपी-कांग्रेस ने अबतक हमेशा शिवसेना के एजेंडा का विरोध ही किया है.
शिवाजी महाराज और संभाजी के किरदार टीवी सीरियल स्वराज्य रक्षक संभाजी से. फोटो-IMDb से साभार.
अब सवाल है कि बिल्कुल आख़िरी घंटे में एनसीपी-कांग्रेस के साथ उद्धव की आघाड़ी सरकार पर ऐसा कौन सा दबाव आ गया जो ढाई साल की सरकार को आख़िरी ढाई घंटे में औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलना पड़ा. और सवाल यह भी है कि ढाई साल से सोशल मीडिया के जरिए सरकार चलाते दिखे उद्धव ठाकरे ने विदाई भाषण के लिए भी सोशल मीडिया को ही क्यों चुना? सवालों पर आगे बढ़ेंगे, अच्छा होगा कि उससे पहले औरंगाबाद का नाम बदलने की जरूरत और उसके पीछे की वजहों पर भी बात कर लिया जाए- जिसके संदर्भ ऐतिहासिक बलिदानों की विरासत, भारतीयता और भारतीय धर्मों के भाईचारे से जुड़े हैं.
संभाजी महाराज दूसरे छत्रपति थे जो शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी थे. शिवाजी महाराज ने हिंदवी साम्राज्य की स्थापना की थी. शिवाजी महाराज को श्रेय जाता है कि विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों के उत्कर्ष काल में उन्होंने पूरी तरह से एक स्वतंत्र देसी साम्राज्य बनाने का संकल्प पूरा किया था. साम्राज्य में सभी पंथ-जातियों के हिंदू और पूर्व में तलवार के बल पर जबरिया धर्मांतरित किए गए मुसलमान शामिल थे. शिवाजी महाराज के समय हिंदवी साम्राज्य के मुस्लिम पूजा पद्धति और मान्यताओं के लिहाज से भले 'विधर्मी' कहे जाते थे मगर भारतीयता उनके सर्वोच्च गुणों में शामिल रही हमेशा. हसन खान मेवाती की तरह महाराष्ट्र में शहीदों की कमी नहीं है. वे वैसे मुसलमान थे, जैसे मौजूदा वक्त में बौद्ध, सिख, ईसाई, यहूदी, जैन और पारसी जैसे अन्य भारतीय अल्पसंख्यक धर्म दिखते हैं.
औरंगजेब की राह का रोड़ा क्यों था हिंदवी साम्राज्य?
हिंदवी साम्राज्य ने विदेशी आक्रमणकारियों के मंसूबे को उत्तर से दक्षिण विस्तार देने से रोकने में कामयाब था. मुस्लिम आक्रमणकारियों की एक मजबूरी उत्तर को दक्षिण के साथ बांटने वाली भैगोलिक वजहें तो थीं ही, लेकिन सबसे बड़ी वजह शिवाजी के रूप में एक कुशल प्रशासक और योद्धा का भी रास्ते में मौजूद होना था. शिवाजी के जीवनकाल के कुछ आखिरी सालों में इस तरह की घटनाएं घटीं कि औरंगजेब को उम्मीद नजर आने लगी. असल में हिंदवी साम्राज्य में शिवाजी के उत्तराधिकार संघर्ष को लेकर दरार पड़ी. होनहार संभाजी भी इसके शिकार हुए. उनके खिलाफ साजिशें हुईं और कहा यह भी जाता है कि पिता के साथ मतभेद की वजह से उन्होंने बगावती तेवर दिखाए. हालांकि कई मराठी इतिहासकार इसके पीछे शिवाजी की चतुर राजनीति (इसके उदाहरण उपलब्ध हैं कई) को देखते हैं. कहा जाता है कि शिवाजी और संभाजी की योजना थी कि हिंदवी साम्राज्य को लेकर दुश्मनों को उलझाए रखा जाए. इसी के तहत संभाजी, मुगलों को गुमराह करने के लिए कुछ समय तक उनसे जा मिले. संभाजी पर मराठी कवियों लेखकों इतिहासकारों ने तथ्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला है.
शिवाजी महाराज के निधन के बाद उनके मंत्रिमंडल में शामिल कुछ लोगों ने संभाजी के छोटे भाई राजाराम को गद्दी पर बैठाने का प्रयास किया. लेकिन सेनापति मोहिते जो राजाराम के सगे मामा थे उनकी वजह से यह संभव नहीं हो सका. सेनापति मोहिते समेत हिंदवी साम्राज्य के प्रत्येक शुभचिंतक को पता था कि साम्राज्य के लिए शिवाजी महाराज के बाद संभाजी से बेहतर प्रशासक कोई और हो नहीं सकता. संभाजी पिता के साए में पले बढ़े थे और उनकी तरह ही चतुर थे. दूरदृष्टि थी उनमें. धर्मभीरू थे, लेकिन विवेक भी था उनमें. विद्वान तो थे ही और लोगों को साथ लेकर चलने की खूबी थी उनमें. कई भाषाओं का ज्ञान था. लेखन भी जमकर किया उन्होंने. संभाजी तमाम साजिशों को दरकिनार करते हुए हिंदवी साम्राज्य के प्रशासक बनें. राजा बनने के अगले नौ साल में संभाजी ने 100 से ज्यादा लड़ाइयां जीतीं. उन्होंने मुगलों की नाक में दम कर दिया. मुग़ल उत्तर को काबू करने में कामयाब हुए मगर बीचोबीच हिंदवी साम्राज्य की जो दीवार खड़ी हो गई, दक्षिण की तरफ मुगलिया बर्बादी बढ़ नहीं पाई. मराठों के अवरोध और खौफ की वजह से दक्षिण में काबिज मुस्लिम रियासतें भी उत्तर की तरह दमन और विध्वंस का नंगा नाच नहीं कर सकीं. महाराष्ट्र समेत दक्षिण का समूचा इलाका अपनी ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत बचा पाया तो उसकी एक वजह यह भी वरना तो आतंकियों ने विजयनगर समेत दक्षिण के कई साम्राज्यों को मौका बेमौका तहस नहस ही किया हिंदवी सम्राज्य से पहले.
पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे.
संभाजी एक पर एक लड़ाइयां जीतकर ताकतवर बन रहे थे. मात्र 16 साल की उम्र में पहला युद्ध जीतने वाले संभाजी ने राजा बनने के बाद यूरोपीय ताकत के रूप में मशहूर पुर्तगालियों को भी हरा दिया जो भारत में कॉलोनी बनाने के प्रयास में थीं. अंग्रेजों से भी लोहा लिया. यही नहीं, संभाजी ने औरंगजेब के वंश में भी फूट डाल दी. मुग़ल सलतनत के विद्रोही परिजनों और दूसरे सामंत सरदारों को आश्रय दिया. स्वाभाविक है शिवाजी से भी ज्यादा तेज चुनौती पाकर औरंगजेब सबक ही सिखाना चाहता होगा. युवा संभाजी से सीधे भिड़ने की बजाए उसने धोखे का सहारा लिया. संभाजी को ब्यूह बनाकर पकड़ा गया. औरंगजेब संभाजी को मारना नहीं चाहता था. उसने सरदारों को आदेश दे रखा था कि संभाजी अगर इस्लाम स्वीकार कर लें, उन्हें छोड़ दिया जाए. राजा वही रहेंगे. मुगलिया क्रूरता का दूसरा नाम कहे जाने वाले औरंगजेब को लगा था कि राजपाट और जान बचाने के लालच में संभाजी धर्म परिवर्तन कर लेंगे और इस तरह उसका सपना भी पूरा हो जाएगा.
संभाजी महाराज भारतीयता और स्वाभिमान के प्रतीक
संभाजी ने इनकार कर दिया. उनके साथ सलाहकार, मित्र और कवि कलश भी थे. कहते हैं कि दोनों की जान बेदर्दी से ली गई. उदहारण खोजना मुश्किल है. एक-एक कर अंग काटे गया. हर बार धर्म परिवर्तन की बात कही जाती. आखिर में गला काटा गया. निधन के वक्त भारत के इस महान योद्धा की उम्र मात्र 32 साल थी. तुलापुर में संभाजी महाराज के शव के टुकड़ों को नदी में फेंका गया. बाद में हिंदवी साम्राज्य के महार, देशमुख और तमाम दूसरी जातियों ने शव के टुकड़ों को बीनकर इकट्ठा किया. उसे सिला और जंगल में दूसरी जगह अंतिम संस्कार किया गया. तुलापुर में तीन नदियों का संगम है और दो जगहों पर शहीदों की समाधि बनी है. हिंदू-मुस्लिम सभी महाराष्ट्रीयन वहां सिर झुकाने पहुंचते हैं. संभाजी के बलिदान का असर यह रहा कि मराठों के सिर खून सवार हो गया. मुगलिया सल्तनत की नींव हिलने लगी. औरंगजेब का सपना पूरा नहीं हो सका. हिंदवी साम्राज्य के रणबाँकुरे दिल्ली के नजदीक तक पहुंच गए और मुगलों को हराया. मथुरा में औरंगजेब और दूसरे मुस्लिम शासकों द्वारा तोड़े गए कृष्ण जन्मस्थान का जीर्णोद्धार भी मराठों के खाते में दर्ज कर सकते हैं. बाद का इतिहास यूरोपीय कॉलोनियों का है. जिन्होंने सत्ता के लालची हिंदू और मुस्लिम राजाओं को मूर्ख बनाकर धीरे-धीरे समूचे देश को गिरफ्त में ले लिया गया.
दिलचस्प यह है कि अंग्रेजी राज समाप्त होने के बाद आजाद भारत में अंग्रेजी उपनिवेश की कई अमानवीय निशानियों को ख़त्म करने का काम हुआ, मगर मुगलों के हाथों सिर्फ़ अपमानित करने भर के लिए दूषित किए गए इतिहास और भूगोल को सुधारने की कोशिश ही नहीं हुई. दुनिया के किसी भी देश में बहुसंख्यकों के इतिहास को लेकर इस तरह की अनिच्छा नहीं दिखेगी. यह वोटबैंक का दबाव है जिसे लूट की सत्ता चलाने के लिए जबरदस्ती पनपने का बहाना दिया गया जबकि धर्म के आधार पर भारत का विभाजन पहले ही हो चुका था. हालांकि कांग्रेस की राजनीति के खिलाफ शिवसेना ने इसे अहम मुद्दा बनाया. मगर बालासाहेब के सपने को संभाजीनगर बनाकर कभी पूरा नहीं कर सकी. और जिले का नामा भी इस तरह बदला कि वह सत्ता के लालच और मजबूरी में लिया गया फैसला नजर आ रहा है- भला बोल्ड कदम कैसे कहा जाए इसे?
ढाई साल पुरानी सरकार ने आख़िरी ढाई घंटे में फैसला क्यों लिया?
असल में शिवसेना ने मराठा और हिंदुत्व के मुद्दे पर भाजपा के साथ चुनाव जीता था. लेकिन सरकार बनाने के लिए कोर एजेंडा से ही समझौता कर लिया. ढाई साल से आघाड़ी सरकार में जिस तरह मराठा मुद्दों की अनदेखी हो रही थी, शिवसेना के विधायक सांसद और आम कार्यकर्ता असहज महसूस कर रहे थे. पालघर में निर्दोष साधुओं की लिंचिंग से लेकर अजान हनुमान चालीसा विवाद तक- कभी लगा ही नहीं कि शिवसेना सरकार चला रही है और बालासाहेब ठाकरे का बेटा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा है. सरकार के सभी फैसलों पर वे दल हावी नजर आ रहे थे- जिन्हें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला था. चीजें जब हद से ज्यादा हुईं तो एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना के विधायक और कार्यकर्ता बगवात पर उतर आए. कार्यकर्ताओं ने सरेआम बालासाहेब की विचारधारा से समझौता करने का आरोप लगाया. एनसीपी के हाथों खेलने और पार्टी को आघाड़ी से बाहर निकलने की सलाह दी.
उद्धव बैकफुट पर थे. बगावत किस स्तर की थी उन्हें बेहतर पता था. वे अकेले पड़ गए थे. यही वजह है कि उन्होंने बगावत सामने आने के तुरंत बाद ही मुख्यमंत्री आवास "वर्षा" छोड़ दिया था. वे विधायकों की सभी शर्तों को मानने, वापस आकर बात करने को कह रहे थे. बार बार दोहरा रहे थे कि पार्टी बाला साहेब के मुद्दे पर ही है. रिपोर्ट तो यहां तक थी कि उद्धव ने बगावत के बाद ही इस्तीफे का मन बना लिया था. हालांकि शरद पवार ने उन्हें भरोसा दिया कि अभी भी सरकार बचाने के रास्ते हैं. शिवसेना कार्यकारिणी की बैठक में पास प्रस्ताव (बाला साहेब के नाम का कोई और इस्तेमाल नहीं कर सकता), पार्टी व्हिप की नियुक्ति और विधानसभा उपाध्यक्ष की तरफ से बागी विधायकों में से कुछ को निलंबित करने की कोशिशें- सरकार बचाने के उन्हीं रास्तों में से थीं. पवार जरूर चीजों को संभालने के लिए कोशिशें करते दिखें लेकिन पार्टी में उद्धव के खिलाफ बगावती ज्वार हर घंटे बढ़ता जा रहा था. संजय राउत और उद्धव ठाकरे की स्वीकारोक्तियों ने भी बागियों के आरोपों को पुख्ता करती गईं.
उद्धव ठाकरे और शरद पवार.
उद्धव के पास कोई चारा नहीं था, संभाजीनगर पर फैसला एनसीपी के साथ बने रहने का गेट पास
बागियों को लेकर उद्धव और संजय राउत के बयान लोगों को संतुष्ट नहीं कर रहे थे. उलटे बगावत अलग अलग स्तरों पर बढ़ने लगी. सांसदों ने भी बगावती तेवर दिखाए और संगठन में भी उद्धव के खिलाफ सरेआम घोषणाएं होने लगीं. यह सच है कि जिस तरह एनसीपी के वर्चस्व वाला सियासी माहौल बन गया था ठाकरे के शासनकाल में- शिवसेना विधायक हर हाल में उससे बाहर आना चाहते थे. पार्टी काडर और मतदाताओं का भी भारी दबाव था. भाजपा के नेतृत्व में ना सिर्फ राज ठाकरे बल्कि एनसीपी कांग्रेस विरोधी सभी नेता सक्रिय थे. सरकार बचाने के दो बड़े रास्ते थे. एक तो यह कि कुछ बागियों को निलंबित कर दिया जाए. इससे तमाम विधायक वापस आ जाएंगे. दूसरा यह था कि व्हिप के खिलाफ जाने पर विधायकों की सदस्यता पर असर पड़ता. भला कौन विधायक अपने वर्तमान को गंवाना चाहता था. कानूनी रूप से बागी पहले से ही मजबूत थे जिसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट से आघाड़ी सरकार को राहत नहीं मिली. मगर भाजपा और शिवसेना के बागियों ने आत्मघाती मध्यप्रदेश मॉडल पर भी जाने का फैसला कर लिया था. अगर सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलती तो सेना के सभी बागी इस्तीफ़ा देते दोबारा चुनकर आने की कोशिश करते. जैसे- कांग्रेस के बागियों ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में किया था. भाजपा ने अविश्वास प्रस्ताव रख ही दिया था.
ऐसी परिस्थिति में भी भाजपा निर्दलीय विधायकों के सहारे आसानी से बहुमत साबित कर लेती. करीब 45 से सेना विधायकों की अनुपस्थिति में यह बेहद आसान था. देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री बनते. बागी बिना सदस्यता के सरकार में शामिल होते. चुनाव बाद की चीज थी. राज्य के मौजूदा सियासी माहौल में भाजपा और सेना के बागियों के लिए यह कोई मुश्किल कार्य नहीं था. क्योंकि औरंगजेब की कब्र पर ओवैसी का पहुंचना, अजान हनुमान चालीसा विवाद में ठाकरे का रुख और हिंदुत्व के मुद्दे पर लोगों को जेल भेजने को लेकर जमीन पर लोगों में जबरदस्त गुस्सा है. उद्धव को हालात पहले से पता थे. अगर वे अपनी रणनीति पर चलते तो इतनी छीछालेदर नहीं होती. मगर वे चीजों को पवार के भरोसे में भांप नहीं पाए और बहुत हद तक अपनी विरासत गंवा ही बैठे हैं. उद्धव को भलीभांति पता है कि फिलहाल की स्थितियों में उनके पास सीमित विकल्प हैं. इस वक्त कोई चुनाव जीतना तो उनके लिए दूर की कौड़ी है.
बचे खुचे अरमान पर सुप्रीम कोर्ट और उदयपुर की घटना ने पानी फेरा
यही वजह है कि उन्होंने अपने आख़िरी दिन को ऐतिहासिक बनाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ा. इमोशनल कार्ड खेलने की कोशिश की. लेकिन राजनीति हालात साबित कर रहे कि वे लाचार और विवश हैं, बागियों के आरोपों में साख गंवा चुके हैं और भविष्य में खुद के खड़ा होने और जनता के बीच जाकर बात कर सकने की स्थिति में जो फैसले लिए- वह असल में स्टंटबाजी के अलावा कुछ भी नहीं. उलटे यूपी के उपचुनाव में जिस तरह आजमगढ़ और रामपुर से हिंदुत्व के पक्ष में जनादेश निकला, उसकी वजह से भी उद्धव पर भविष्य को लेकर दबाव बढ़ा ही कहा जा सकता है. रही-सही कसर, कांग्रेस राज में लगातार जारी दंगों के बाद दो आतंकियों के हाथों कन्हैयालाल की बर्बर हत्या ने पूरी कर दी. समूचे देश की तरह महाराष्ट्र में भी उदयपुर को लेकर गहरा आक्रोश है.
एनसीपी और कांग्रेस ने असल में संभाजीनगर को लेकर अपने रवैये को सिर्फ इसलिए बदला कि भविष्य में उद्धव ठाकरे इन्हीं मुद्दों पर शिवसेना कांग्रेस के लिए एनसीपी-कांग्रेस विरोधी हिंदू वोटों को हासिल कर सकें. अगर वे ऐसा करने में असफल होते हैं तो एनसीपी कांग्रेस के किसी काम के नहीं. उद्धव के आख़िरी दिन के फैसले अपनी विरासत और पार्टी बचाने के लिए कोई तगड़ा हथियार पाना है. ताकि मतदाताओं के बीच जा सकें. उन्होंने वही किया. अगर उनका यह फैसला राजनीतिक मजबूरी की बजाए स्वेच्छा से लिया गया होता तो- यह और भी बेहतर होता. समूचे देश को एक बेहतर संदेश देने वाला फैसला बनता. फिलहाल तो इसे मजबूरी में राजनीतिक जमीन बचाने को लिया गया फैसला ही कहा जाएगा. उद्धव संभाजीनगर के बहाने अपने गाल बजाने को स्वतंत्र हैं.
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