यशवंत सिन्हा का 'आप' में जाना क्या संदेश देगा
यशवंत सिन्हा अगर आप में जाते हैं तो आप को इसका सांकेतिक लाभ अगले चुनावों में मिलने की उम्मीद है. दिल्ली में 7 लोक सभा सीट हैं जो बीजेपी के पास हैं और अगले चुनाव में बीजेपी का पुराना सदस्य अगर बीजेपी के ही खिलाफ खड़ा हो जाता है, तो चुनाव के पहले बातों की राजनीति और तेज हो जाएगी.
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खबर है कि भाजपा से देश के पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा अब आप का दामन थाम सकते हैं. अटल सरकार में मंत्री रहे सिन्हा अब भाजपा के धुर विरोधी माने जाते हैं. यद्यपि उनके बेटे जयंत सिन्हा नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री हैं, यशवंत ने अप्रैल 2018 में भाजपा छोड़ दी थी.
यशवंत सिन्हा और शत्रुघन सिन्हा ने इसी महीने अरविन्द केजरीवाल के साथ मंच साझा किया था और आप के राज्य सभा सदस्य संजय सिंह को सिन्हा को राजी करने को कहा गया है कि वो नई दिल्ली से चुनाव लड़ने को राज़ी हो जाएं. सिन्हा ने अभी इसपर कुछ कहने से इंकार कर दिया है.
यशवंत सिन्हा अगर आप में जाते हैं तो आप को इसका सांकेतिक लाभ अगले चुनावों में मिलने की उम्मीद है. दिल्ली में 7 लोक सभा सीट हैं जो बीजेपी के पास हैं और अगले चुनाव में बीजेपी का पुराना सदस्य अगर बीजेपी के ही खिलाफ खड़ा हो जाता है, तो चुनाव के पहले बातों की राजनीति और तेज हो जाएगी.
यशवंत सिन्हा अभी तक का वो सबसे बड़ा नाम होंगे जो आप में शामिल होंगे
सिन्हा बीजेपी के लिए राजनीतिक रूप से अब महत्वपूर्ण नहीं हैं लेकिन बातों का सांकेतिक महत्त्व दिल्ली में दिक्कत पैदा कर सकता है क्योंकि दिल्ली की ज्यादातर जनता मध्यवर्गीय है और उन्होंने आप को लगातार मौका दिया है, भले ही पार्टी देश में कहीं और प्रभाव छोड़ने में असफल रही है.
उन्होंने भाजपा को न सिर्फ 75 साल से ज्यादा उम्र के नेताओं को पार्टी की मुख्यधारा से बाहर करने पर घेरा है बल्कि डेमोनेटिज़ेशन, जीएसटी, गरीबी, कृषि उत्पादन, कश्मीर और विभिन्न मुद्दों पर सरकार की नीतियों की आलोचना भी करते रहे हैं और दिल्ली के चुनाव माहौल में डेमोनेटिज़ेशन और जीएसटी महत्वपूर्ण मुद्दे हो सकते हैं.
यशवंत सिन्हा का आप में जाना इसलिए भी महत्वपूर्ण होगा क्योंकि अभी तक का वो सबसे बड़ा नाम होंगे जो आप में शामिल होंगे. इसके पहले हम देखें तो आप से बड़े नाम बाहर ही जाते रहे हैं और कई सारे आप के संस्थापक सदस्य भी इसमें हैं.
आप को सबसे पहले शाज़िया इल्मी ने मई 2014 में छोड़ा. उन्होंने पार्टी में लीडरशिप और आन्तरिक लोकतंत्र पर आवाज़ उठाई.
लेकिन आप में सबसे बड़ा बदलाव लीडरशिप के स्तर पर अप्रैल 2015 में आया जबके पार्टी 2014 के लोक सभा चुनावों में बुरी हार से उबरकर दोबारा दिल्ली की सत्ता में बहुमत के साथ आ चुकी थी और वो भी प्रचंड बहुमत के साथ, 70 में 67 सीटें जीतते हुए. और ये पार्टी शुरू से ही अपनी हरकतों से ना तो वीआईपी विरोधी लगी और ना ही आम आदमी के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर जन-लोकपाल से लड़ती हुई या भ्रष्ट पुलिस ऑफिसर और अधिकारियों के खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन की बात करती हुई. सबने वीआईपी आवास लिए, अपनी तनख्वाह बढ़वाई, अपने विधायकों को ऐसी पोस्टिंग दीं की मामला कोर्ट में गया. बहुत मामलों में प्रश्न उठाया गया और आज भी प्रश्न उठते हैं. अगर पार्टी ने कुछ अच्छा किया है तो उसे बुरा कहने वाले लोग भी बहुत हैं.
आप- बिछड़े सभी बारी-बारी
इसी आप से अप्रैल 2015 में पार्टी के दो सबसे वरिष्ठ सदस्यों, प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को निकाल बाहर किया गया. हालांकि उनपर पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप था, सन्देश यही गया कि ये अरविन्द केजरीवाल के राजनीतिक तानाशाह के रूप में उभरने की शुरुआत थी क्योंकि केजरीवाल की लीडरशिप के समकक्ष ये दोनों सदस्य आते थे. भूषण और यादव के साथ आप ने जेएनयू के रिटायर्ड प्रोफेसर आनंद कुमार को निकाल दिया.
चारों तरफ इसकी सैद्धांतिक आलोचना हुई. सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने तो आप से इस्तीफा दे दिया ये कहते हुए केजरीवाल को राजनीति में आना ही नहीं चाहिए था. इसके तुरंत बाद मयंक गांधी, जो कि पार्टी के संस्थापक सदस्य थे, ने भी पार्टी से इस्तीफा दे दिया और आरोप लगाया कि केजरीवाल गटर पॉलिटिक्स करते हैं.
आप को अगला झटका 2017 में लगा जब उनके आतंरिक मित्र माने जाने वाले कपिल मिश्रा को केजरीवाल की कैबिनेट से बर्खास्त कर दिया गया. मिश्रा ने केजरीवाल पर घूस लेने का आरोप लगाया और इसपर काफी राजनीति हुई.
उसके बाद केजरीवाल की उनके भाई सामान माने जाने वाले कुमार विश्वास से दूरियां बढ़ीं और दोनों आज एक-दूसरे से बात भी नहीं करते हैं. केजरीवाल से मतभेद बढ़ने के बाद ही उन्हें पार्टी में विभिन्न जिम्मेदारियों से मुक्त किया गया नहीं तो कभी वो आप से राज्य सभा में जाने वाले कैंडिडेट के रूप में देखे जाते थे.
आशुतोष और आशीष खोतान भी पार्टी छोड़ चुके
फिर अभी कुछ दिन पहले आशुतोष और आशीष खेतान ने भी पार्टी छोड़ दी है. ये पार्टी के संथापक सदस्य नहीं रहे हैं लेकिन केजरीवाल के समर्थन में काफी बड़े नाम समझे जाते थे. और संदेश यही जाता है कि आप ने इन्हें बढ़ने का मौका नहीं दिया.
आशुतोष ने मीडिया को बाइट देने से इंकार कर दिया और खेतान ने लम्बा चौड़ा फेसबुक पोस्ट लिखा के उन्होंने पार्टी क्यों छोड़ी. दोनों ने ही पार्टी को पाक-साफ़ करार दिया लेकिन ये सबको पता है दोनों ही के पास अपने अपने कारण थे. आशुतोष राज्य सभा इलेक्शन में अपने को तरजीह ना दिए जाने से नाराज थे तो कहा जा रहा है कि खेतान की नयी दिल्ली लोक सभा सीट से चुनाव लड़ने की इच्छा पर ग्रहण लग गया था. और तो और, आशुतोष ने तो आप पर आरोप लगाया है कि पार्टी ने 2014 के चुनावों में उनसे उनका सरनेम उपयोग करने को कहा था ताकि वोट मिल सके.
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