राहुल गांधी के लिए भी वाजपेयी से सीखने के लिए बहुत कुछ है
राहुल गांधी को अगर वास्तव में कुछ करना है तो सबसे पहले समझना होगा कि उनकी टक्कर सलमान खान से नहीं है. उन्हें आम भारतीय के हिसाब से आचार व्यवहार में गंभीरता दिखानी होगी.
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16 अगस्त को जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सेहत को लेकर मेडिकल बुलेटिन का इंतजार हो रहा था तो दिल्ली में ही एक कार्यक्रम में विपक्षी दलों के नेता इकट्ठा थे. शरद यादव की कॉल पर साझी विरासत बचाओ की ताजा कड़ी की तारीख पहले से तय थी. साझी विरासत की पहली कड़ी में तो राहुल गांधी ही सबसे ज्यादा छाये रहे, एकबार तो ऐसा लगा जैसे कार्यक्रम शरद यादव का नहीं राहुल गांधी का ही हो.
कहना गलत नहीं है साझी विरासत की पहली कड़ी में राहुल ने शरद यदाव का कार्यक्रम हाइजैक कर लिया
चुनौतियां हरदम एक जैसी ही होती हैं
राहुल गांधी को अगर वास्तव में कुछ करना है तो सबसे पहले समझना होगा कि उनकी टक्कर सलमान खान से नहीं है. राहुल गांधी को सलमान खान के फैंस के बीच लोकप्रियता हासिल नहीं करनी, उन्हें आम भारतीय के हिसाब से आचार व्यवहार में गंभीरता दिखानी होगी. साझी विरासत कार्यक्रम में भी राहुल गांधी ने बातें तो बहुत अच्छी की, लेकिन आगे चल कर कब भूकंप लाने और बम फोड़ने के दावे करने लगें कौन जानता है. राहुल ने कहा, "हम देश को देखते हैं तो उसे नदी की तरह देखते हैं. ये देश हमारे लिए गंगा की तरह है, उनके लिए ये सोने की चिड़िया है."
राहुल गांधी ने कहा, "हम न तो बीजेपी मुक्त भारत चाहते हैं और न ही बीजेपी को खत्म करना चाहते हैं, लेकिन हम उन्हें ये बताना चाहते हैं कि हमारी विचारधारा मजबूत है और हम उनकी विचारधारा को हराएंगे."देश में आज विपक्ष का नेता नहीं है, तकनीकी तौर पर. विपक्ष के पास संख्या बल नहीं है. सोनिया गांधी अपनी जगह राहुल गांधी को स्थापित करने में जी जान से जुटी हैं. राहुल गांधी खानदानी वारिस होने के चलते विरासत जरूर संभाल चुके हैं, लेकिन विपक्ष के ज्यादातर नेता स्वीकार्य नहीं मानते.
अटल बिहारी वाजपेयी के साथ तो ज्यादातर वक्त ये हालत रही, फिर भी वो नेता प्रतिपक्ष के रूप में स्थापित रहे. 1952 से लेकर 1977 तक तो विपक्ष के पास कभी नंबर रही ही नहीं कि उसे नेता विपक्षी दल की जगह मिल सके. देखा जाये तो फिलहाल राहुल गांधी का है कभी अटल बिहारी वाजपेयी का भी रहा. वाजपेयी का जवारलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे नेताओं से मुकाबला हुआ तो राहुल गांधी मोदी जैसे लोकप्रिय लीडर की चुनौती फेस कर रहे हैं.
वाजपेयी को तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री से मिलवाते वक्त नेहरू बहुत पहले ही उनके एक दिन पीएम जरूर बनने की संभावना देख चुके थे, राहुल गांधी तो मोदी को अब तक ये बात महसूस नहीं करा पाये हैं. मौका मिलता भी है तो गंवाते भी देर नहीं लगाते. नफरत के बदले प्यार बांटने की बड़ी बात करते तो हैं, लेकिन अगले ही पल भरी संसद में लाइव टीवी पर आंख मार कर सब गुड़ गोबर कर बैठते हैं.
कहना ये भी गलत नहीं है कि राहुल को राजनीति समझने से पहले अटल के व्यक्तित्व को समझना होगा
प्रधानमंत्री बनने से ज्यादा मुश्किल है वाजपेयी
जिस तरह वाजपेयी ने प्रधानमंत्री बनने पर अपने विदेश मंत्रालय के अनुभव का भरपूर इस्तेमाल किया, पीएम की कुर्सी पर बैठने के बाद भी विपक्ष की अहमियत को कभी नहीं भूले. ये शायद लंबा अरसा विपक्ष में गुजारने के कारण ही रहा. वाजपेयी को नेहरू भी गौर से सुनते थे, लेकिन क्यों? राहुल गांधी को मोदी कभी गंभीरता से नहीं लेते, आखिर क्यों? राहुल गांधी के लिए इसे समझना और फिर उसको लेकर रास्ता निकालना सबसे बड़ी चुनौती है. अविश्वास प्रस्ताव के दौरान जिस तरीके से राहुल, मोदी से गले मिले थे, अगर गंभीर बने रहते तो शायद मोदी को बाद में आंखों के खेल का मजाक उड़ाने का मौका नहीं मिलता.
ये मौजूदा माहौल की मजबूरी जरूर है कि राहुल गांधी को मठों और मंदिरों में जाकर भी चुनावी रैली और उनकी तस्वीरों का सोशल मीडिया पर प्रमोशन करना पड़ रहा है. फिर भी राहुल गांधी को खुद को ऐसा बनाना होगा कि मजबूर होकर मोदी सरकार भी उन पर नरसिम्हा राव जैसा भरोसा करने लगे.
ये तो सच है कि कांग्रेस ऐसी स्थिति से गुजर चुकी है कि राहुल गांधी बहुत पहले प्रधानमंत्री बन सकते थे. ज्यादा नहीं तो मनमोहन सिंह की तरह एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर का मौका तो विरासत में मिला हुआ था. अब वो ऐसी बात कहते हैं तो मजाक उड़ाया जाता है.
अगर राहुल गांधी की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नजर है भी तो उनके सामने भी गठबंधन सरकार का ही विकल्प बचा हुआ है. आखिर वाजपेयी ने भी दो दर्जन दलों को साथ लेकर गठबंधन सरकार का कार्यकाल पूरा किया ही. बीती बातें भूल कर राहुल गांधी को पहले वाजपेयी जैसा विपक्ष का नेता बनना होगा, फिर तो प्रधानमंत्री की राह आसान हो ही जाएगी. सबसे ज्यादा जरूरी है कि राहुल गांधी विपक्षी खेमे को अपनी नेतृत्व क्षमता का भरोसा दिलाएं, न कि राजनीतिक जमींदारी का धौंस. ध्यान रहे, प्रधानमंत्री बनना वाजपेयी बनने से बहुत ही आसान काम है.
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