कांग्रेस किस भरोसे अफसरों और सरकारी एजेंसियों को धमका रही है?
कांग्रेस अफसरों को धमकाने की नयी परंपरा शुरू कर रही है. कांग्रेस नेता कमलनाथ ने मध्य प्रदेश में इसकी नींव रखी जिसे आनंद शर्मा आगे बढ़ा रहे हैं - लेकिन कांग्रेस को किस भरोसे लगता है कि वो अगली सरकार बनानेवाली है?
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एक दौर रहा जब सीबीआई सबसे भरोसेमंद जांच एजेंसी रही. सरकार किसी भी दल की हो, विपक्षी नेता भी हर मामले में सीबीआई जांच की मांग किया करते रहे.
2018 में एक ऐसा दौर भी आया जब सीबीआई का झगड़ा आधी रात को दफ्तर निकल कर सड़क पर आ गया. मामला सुप्रीम कोर्ट गया जहां पहले ही उसे 'पिंजरे का तोता' बताया जा चुका था. ये वो दौर रहा जब सीबीआई आपसी झगड़े के कारण खुद सवालों के घेरे में आने लगी.
अब तो आलम ये है कि सीबीआई को साफ साफ धमकी भी मिलनी शुरू हो गयी है - कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने बड़े ही सख्त लहजे में सीबीआई सहित सरकार एजेंसी में काम कर रहे अफसरों को चेताया है.
आनंद शर्मा भी वही तरीका अपना रहे हैं जो दिसंबर, 2018 में कमलनाथ ने अख्तियार किया था - '11 के बाद 12 तारीख भी आती है.' मध्य प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री कमलनाथ का ये बयान खूब चर्चा में रहा. दरअसल, कमलनाथ अफसरों को आगाह कर रहे थे कि वे तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के प्रति वफादारी निभाने से बाज आएं. 11 दिसंबर को वोटों की गिनती हुई थी.
नहीं तो नपेंगे अफसर!
अखिलेश यादव ने जिस दिन मायावती के घर मुलाकात की अगले ही दिन खनन घोटाले में सीबीआई ने उनका नाम उछाल दिया. उस दिन सीबीआई अधिकारियों ने यूपी की आईएएस अफसर बी. चंद्रकला और खनन घोटाले से जुड़े आरोपियों के ठिकानों पर छापेमारी की थी.
जब गुजरात में राज्य सभा चुनाव के लिए वोटिंग होनी थी तो कांग्रेस ने अपने विधायकों को गुजरात से कर्नाटक पहुंचा दिया. तब कर्नाटक में की सरकार थी और डीके शिवकुमार दबंग और संसाधन संपन्न नेता माने जाते थे. विधायकों की देखभाल की जिम्मेदारी उन्हीं पर थी - तभी आयकर अधिकारी छानबीन करने पहुंच गये.
जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री होते थे तो कहते रहे कि उनके खिलाफ सीबीआई चुनाव लड़ती है. अब अखिलेश यादव कह रहे हैं कि वो जनता के साथ गठबंधन किये हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सीबीआई और दूसरी सरकारी एजेंसियों के साथ.
ये सिलसिला बरसों पुराना है. केंद्र में सत्ता की बागडोर जिसके हाथ में होती है - वो विरोधियों के खिलाफ अपनी ताकत का अपने तरीके से इस्तेमाल करता ही है. ये बात सिर्फ मुख्यमंत्री रहते मोदी या अभी अखिलेश यादव की ही नहीं है, मायावती और मुलायम सिंह यादव इसके जीते जागते मिसाल हैं - और तेजस्वी यादव भी लालू प्रसाद को मिली सजा के पीछे ऐसी ही साजिश होने का दावा करते हैं.
ये सब अब पुरानी बातें हो चली हैं. अब तक विरोधी पक्ष के नेता केंद्र में सत्ताधारी दल पर सीबीआई या सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप लगाते रहे - लेकिन अब मामला दो कदम आगे बढ़ चुका है.
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के घर पर सीबीआई ने छापेमारी की. कुछ ही देर बाद कांग्रेस के सीनियर नेता आनंद शर्मा ने प्रेस कांफ्रेंस बुलायी और छापा मारने वाले अफसरों को धमकाने लगे. आनंद शर्मा ने साफ साफ शब्दों में कहा कि ब्यूरोक्रेट सुन लें - ये सरकार स्थाई नहीं है और आम चुनाव में कुछ ही हफ्ते बचें हैं. आनंद शर्मा ने ये भी आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के इशारे पर ये कार्रवाई हो रही है.
आनंद शर्मा ने कहा, 'सरकारी एजेंसियों को कानून के दायरे में रहकर काम करना चाहिए. चुनाव नजदीक हैं और यह सरकार बदलेगी.'
अफसरोंं को बागी होने पर बेआबरू होकर बाहर भी होना पड़ता है...
इसके साथ ही आनंद शर्मा ने चेतावनी भरे लहजे में बताया कि नयी सरकार में हर संस्था और उसके अधिकारियों जवाबदेही सुनिश्चित की जाएगी, जो नरेंद्र मोदी और अमित शाह के इशारे पर विरोधियों को निशाना बना रहे हैं.
बीजेपी की ओर से टाइम्स नाउ के सवाल पर संबित पात्रा ने कहा, 'संवैधानिक संस्थाओं और एजेंसियों को धमकाना ही कांग्रेस का कल्चर है, जो देश के लिए काम करती हैं.'
11 दिसंबर को पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आ रहे थे और उसी दौरान कांग्रेस नेता कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी मध्य प्रदेश के नौकरशाहों को फोन पर ऐसे ही धमकाया था.
अफसर निष्ठावान या मजबूर हैं?
मध्य प्रदेश से आ रहे रुझानों में कांग्रेस और बीजेपी के बीच कड़ी टक्कर के बीच मालूम हुआ कि कांग्रेस के बड़े नेता अजय सिंह, अरुण यादव और सुरेश पचौरी चुनाव हार गये. अरुण यादव को तो इतना सदमा लगा कि वो अजय सिंह के गले लगे तो रोने लगे. जब कांग्रेस नेताओं ने पता करना शुरू किया तो मालूम हुआ कि जीते हुए उम्मीदवारों को सर्टिफिकेट नहीं मिला.
जब कमलनाथ ने फोन कर कलेक्टर्स से पूछा तो कुछ ने टाल मटोल की और कइयों ने फोन स्वीच ऑफ कर दिये. जब दामोह के तत्कालीन कलेक्टर से कमलनाथ के चार बार बात करने के बावजूद सर्टिफिकेट नहीं मिला तो ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मोर्चा संभाला और थोड़ सख्त लहजे में नियमों का हवाला देते हुए आगाह करने की कोशिश की.
इस वाकये के बाद ही कमलनाथ ने बयान दिया कि '11 के बाद 12 तारीख' भी आती है इसलिए अफसर सिर्फ शिवराज सिंह के प्रति निष्ठावान न बने रहें. बाद में पूछे जाने पर कमलनाथ का कहना रहा कि उन्होंने अधिकारियों से सिर्फ इतना ही कहा था कि जिस बात की शपथ ली है, उस पर कायम रहें. सवाल ये उठता है कि अगर अफसर ऐसा करते हैं तो क्या उनका राजनीतिक नेतृत्व के प्रति निष्ठावान होना है? या फिर व्यवस्था ऐसी है कि राजनीतिक की बात मानना उनकी मजबूरी होती है? देखा गया है कि जो भी अफसर राजनीतिक नेतृत्व की परवाह नहीं करता वो जितने साल नौकरी नहीं करता उससे ज्यादा उसका ट्रांसफर होता रहता है. इस मामले में हरियाणा के अफसर अशोक खेमका का नाम काफी चर्चित रहा है.
अगर नियम के हिसाब से अफसरों के काम का जिक्र होता है तो सबसे पहला नाम टीएन शेषन का ही आता है. मकसद और असली वजह जो भी रही हो, देखने को तो यही मिला कि आलोक वर्मा ने राजनीतिक नेतृत्व से बगावत की तो उनके पद से ही हटा दिया गया. इंसाफ के लिए वो सुप्रीम कोर्ट गये तो वहां से भी उन्हें वहीं भेज दिया गया जहां से उनकी फजीहत शुरू हुई थी - और आखिरकार बेआबरू होकर उसी सीबीआई दफ्तर से निकलना पड़ा जहां कभी उनकी तूती बोलती रही होगी.
आलोक वर्मा के मामले में राहुल गांधी का आरोप रहा कि चूंकि वो राफेल डील की जांच करना चाह रहे थे, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें सीबीआई निदेशक पद से हटा दिया. आलोक वर्मा को हटाने वाली हाई लेवल कमेटी में एक सदस्य कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खर्गे भी थे - जिन्होंने विरोध किया था. अब नयी नियुक्ति होनी है. जाहिर है उसी अफसर को चुना जाएगा जो राजनीतिक नेतृत्व को सबसे ज्यादा सूट करता हो. ये व्यवस्था तो ऐसे ही चलती रहेगी क्योंकि ये सिस्टम का हिस्सा है. जब तक जवाबदेही और पार्दर्शिता के पूरे इंतजाम नहीं होते निष्पक्षता की उम्मीद बेमानी होगी.
कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने खुलेआम धमकी देकर नयी परंपरा शुरू की है. ये परंपरा घातक लगती है. अब तो ऐसा लगता है जैसे अफसरों की चुनौती डबल होने जा रही है. एक तरह वो राजनीतिक नेतृत्व है जो सत्ता पर काबिज है, दूसरी तरफ वो जो कब्जे को आतुर है. अफसरों के पास ये अधिकार तो है ही कि वो संविधान द्वारा स्थापित नियम और मर्यादा का पालन करें और निडर होकर काम करें.
लाख टके सवाल तो ये है कि क्या आनंद शर्मा को भी कमलनाथ की ही तरह कोई पूर्वाभास हुआ है? आखिर किस भरोसे कांग्रेस नेता मान कर चल रहे हैं कि चुनाव बाद पार्टी की सत्ता वापसी हो रही है?
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