जानिए कांग्रेसी कार्यकर्ता आजकल कौन सा गाना गुनगुना रहे हैं!
विरोधी राहुल पर पार्ट-टाइम राजनेता होने का आरोप मढ़ते है और राहुल के कई कदम उस पर मुहर लगाने की दिशा में दिखाई पड़ते हैं. यही समस्या की जड़ है.
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2004 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी अपनी मां की छांव में सियासी एंट्री करते हैं, पिता राजीव की अमेठी लोकसभा सीट मां राहुल के लिए खाली कर देती हैं और यहीं से कांग्रेस का भविष्य सोनिया के बाद राहुल के हाथों में जाना तय हो जाता है. पार्टी सत्ता में आ जाती है. विश्लेषक और कांग्रेस कार्यकर्ता उनको पार्टी के युवराज का तमगा दे देते हैं. वो पार्टी संगठन के यूथ और छात्र संगठन का कामकाज देखते हैं. हालांकि उनका रसूख ऐसा रहता है कि उनके लिए तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह हमेशा कुर्सी छोड़ने को तैयार रहते हैं, लेकिन वो 10 साल सरकार में मन्त्री तक नहीं बनते.
लेकिन यूपीए 2 में उनको पार्टी उपाध्यक्ष बना दिया गया. 2014 के चुनाव आते आते पार्टी में उनका दखल बढ़ गया. प्रेस क्लब में आकर मनमोहन सरकार के कैबिनेट नोट को फाड़ने लायक बताकर वो अपनी हैसियत भी जता देते हैं. हालांकि, तब तक सोनिया फ्रंट सीट पर थीं और राहुल बैक सीट पर. लेकिन तमाम घोटालों के आरोपों पर वो कई बार खामोश दिखे और सरकार के खिलाफ माहौल के चलते पार्टी ऐतिहासिक हार के साथ 44 सीटों पर सिमट गई. इसके बाद से कार्यकर्ता और नेता राहुल को अध्यक्ष बनाने और 2019 में सत्ता में वापसी का सपना देखने लगे. लेकिन तब शुरू हुआ हार का सिलसिला राज्य दर राज्य थमने का नाम नहीं ले रहा. पार्टी में राहुल फ्रंट सीट पर तो आ गए, लेकिन खुशनुमा सियासी माहौल ना बन पाने के चलते सोनिया उनको अध्यक्ष की कुर्सी सौंपने की हिम्मत नहीं जुटा पायीं. तमाम तारीखें बीत जाने के बाद कहा जा रहा है कि, अक्टूबर में राहुल को अध्यक्ष बना दिया जाएगा.
राहुल की छुट्टियां हमेशा चर्चाओं में रहती हैं
ऐसा नहीं है कि, राहुल उम्मीद नहीं जगाते, पार्टी नेता और कार्यकर्ता मानते हैं कि, वो उम्मीद खुद ही जगाते हैं और एन मौके पर खुद ही तोड़ते नजर आते हैं. चूंकि, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को मालूम है कि, कांग्रेस अब राहुल के ही हवाले है, ऐसे में उनका भविष्य भी राहुल के साथ जुड़ा है. इसलिए वो हर कीमत पर राहुल को सफल और सक्रिय देखना चाहते हैं. उनकी चाहत यही है कि, कम से कम राहुल उस राह पर लगातार चलते तो दिखें, लेकिन राहुल का सही दिशा में चलते चलते लड़खड़ाना उनको भी रास नहीं आता. ऐसे कई 2014 के बाद ऐसे 7 बड़े घटनाक्रम हैं, जब कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को लगा कि, अब राहुल चल पड़े हैं, लेकिन आखिर में लड़खड़ा गए.
1. 2014 के चुनाव में वो पार्टी का अनौपचारिक चेहरा थे. हार के बाद वो अचानक बिना बताए तक़रीबन 2 महीनों के लिए देश से बाहर चले गए. ये वो वक़्त जब विपक्ष में 10 साल बाद आई पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को उनकी सख्त जरूरत थी. ऐसा लगा मानो सेनापति ही हार के बाद सेना को उसके हाल पर छोड़कर भाग गया हो. बाद में आजतक को जानकारी मिली कि, वो विपश्यना करने म्यांमार गए थे. वो वहां तय करने गए थे कि, आगे उनको राजनीति में रहना है या नहीं.
2. आखिकार राजनीति में रहने का फैसला करके राहुल लौट आये. सबसे मिलना जुलना शुरू हुआ. नेता, कार्यकर्ता खुश हो गए कि, राहुल लौटकर नए तेवर में हैं. सबसे मिलना जुलना और ज़्यादा से ज़्यादा हिंदी में बोलना ही राहुल में बड़ा बदलाव माना गया. बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, असम जैसे राज्यों में पार्टी हारी तो कहा गया कि, अभी मोदी लहर बरकरार है और इन राज्यों में कांग्रेस की या गठबंधन की सरकार थी, इसलिए राहुल को दोष देना ठीक नहीं. राहुल ने इस बीच मोदी सरकार पर सूट-बूट का तमगा चस्पा करने की कोशिश की और लैंड बिल पर मोदी सरकार को बैकफुट पर धकेल भी दिया. लेकिन इसके नया साल आते आते वो एक बार फिर विदेश चले गए. वैसे विदेश जाना व्यक्तिगत मसला है, पर बीजेपी और सोशल मीडिया ने गरीबों की राजनीति करने के राहुल के एजेंडे पर खूब चोट की.
3. 2004 से लेकर 2015 तक राहुल ने 19 जून यानी अपना जन्मदिन विदेश में ही मनाया, तो भला जन्मदिन पड़ कार्यकर्ताओं, नेताओं से कहां मुलाकात होती. बेचारे राहुल की गैरमौजूदगी में पोस्टर लगाते, पटाखे फोड़ते, केक काटते और मिठाइयां बांटकर आपस में ही जश्न मना लेते. हां विपश्यना से लौटने के बाद एक बार राहुल मीडिया और कार्यकर्ताओं से मिले. खूब जश्न मना, लेकिन 19 जून को दोपहर बाद खबर आई कि, वो विदेश चले गए. सोशल मीडिया और बीजेपी ने उन पर सियासी हमला बोला, लेकिन इस बार कम से कम कार्यकर्ता और नेता राहुल का बचाव करते नज़र आये.
2004 से लेकर 2015 तक राहुल ने 19 जून यानी अपना जन्मदिन विदेश में ही मनाया
4. कुछ यूं ही मसला धर्म से जुड़ा है. राहुल हमेशा मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे जाते हैं. लेकिन 2014 की हार की बड़ी वजह पड़ताल करने वाली अंटोनी कमेटी ने कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की छवि को बताया, तो राहुल ने इसको दुरुस्त करने के लिए कई कदम उठाए. 2016 और अब 2017 में अरसे पार्टी द्वारा दी जाने वाली इफ्तार पार्टी रद्द कर दी. खुद केदारनाथ के दर्शन करने पैदल गए. सोनिया की दशहरे में जाने की परंपरा वैसे राहुल भी निभाते आये हैं. 2016 में होली मिलन के दौरान मीडिया के सामने नेताओं और कार्यकर्ताओं से मुखातिब हुए. सबको लगा कि, ये सिलसिला बढ़ेगा. खुद राहुल ने दीपावली के आस पास मीडिया को बुलाया, घर की झालर के सवाल पर कहा कि, वो दीपावली पर हर साल झालर लगते हैं. लेकिन बाद में इसके उलट दीपावली और रक्षाबंधन की बात तो छोड़िए 2017 की होली में ही राहुल मानो अंडरग्राउंड हो गए.
5. यूपी में दिल्ली से देवरिया तक की यात्रा की, 27 साल यूपी बेहाल का नारा दिया. शीला को सीएम उम्मीदवार बनाकर अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया. लेकिन पहले देवरिया से दिल्ली की यात्रा के समापन पर खून की दलाली जैसा बयान आ गया और दूसरी तरफ यूपी में आखिर में समाजवादी पार्टी से समझौता कर लिया. नारा दिया कि, यूपी को राहुल-अखिलेश का ये साथ पसन्द है. लेकिन तब तक काफी देर हो गयी और नतीजा सबके सामने है.
6. हालांकि, इस बीच कांग्रेस ने पंजाब में सरकार बना ली, गोआ और नागालैंड में सबसे बड़ी पार्टी बनी. लेकिन यूपी की हार सब पर भारी पड़ गयी. फिर भी लगातर राहुल सक्रिय रहे. पहले संसद में बोलने पर भूकम्प लाने वाला बयान दिया, बाद में सर्वोच्च अदालत द्वारा नही स्वीकार किये गए डायरी के पन्नों का हवाला भी राहुल के क़द पर चोट कर गया. इसी बीच नोटबन्दी का मुद्दा अपने चरम पर आया, सोनिया बीमार थीं. राहुल ने बखूबी विपक्ष का नेतृत्व किया, लेकिन 31 दिसंबर 2016 की दोपहर वो फिर नए साल पर विदेश चले गए. हालांकि, उन्होंने बताया कि, वो बीमार मां को देखने जा रहे हैं. लेकिन बेरहम राजनीति ने एक ना सुनी. एक बार फिर सोशल मीडिया पर वही हुआ, जो होता आया है. हां, मां की बीमारी की चलते इस बार उनके बचाव में उतरने वाले भी काफी थे.
सोनिया गांधी को देखने नए साल पर विदेश गए थे राहुल
7. हाल में यूपी के सहारनपुर जाकर दलितों के मुद्दे पर राहुल सक्रिय दिखे, फिर मध्य प्रदेश के किसानों के मुद्दे पर राहुल ने प्रदेश संगठन की निष्क्रियता के बाद खुद फ्रंट जे लीड करने का फैसला किया. कांग्रेसियों को राहुल का क़दम खूब भाया, लेकिन हफ्ता भी नहीं बीता कि, राहुल ने नानी के पास विदेश जाने की खबर खुद ट्वीट कर दी.सोशल मीडिया ने तुरंत तारीख चेक हुई और किसान आंदोलन को छोड़कर जन्मदिन 19 जून को फिर विदेश जाने की तोहमत राहुल पर मढ़ दी गयी.
8. राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की तरफ से राहुल खासे सक्रिय दिखे पहली मीटिंग में भी दिखे. लेकिन जिस दिन मीरा कुमार के नाम की घोषणा हुई उस दिन विदेश में होने के चलते राहुल नदारद दिखे. ऐसे में एक बार फिर सवाल उठना लाजमी था. अब देखिए राहुल कब आते हैं. वैसे कहा जा रहा है कि, 2 जुलाई को लौटेंगे, लेकिन कुछ नेता कोशिश में जुटे हैं कि, वो मीरा कुमार की उम्मीदवारी के वक़्त तो नहीं थे, अब कम से कम 27 या 28 जून को होने वाले उनके नामांकन दाखिल करने के वक़्त मौजूद रहें. अब इन नेताओं को सफलता मिलती है या नहीं ये तो राहुल के कदम ही तय करेंगे.
वैसे राहुल की राजनीति पर कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता कहते हैं कि, चाहे किसानों के बीच जाने की बात हो चाहे दलितों के मुद्दे पर उनके घर जाने की बात हो या दलितों के घर खाना खाने की बात हो. हिंदुस्तान की हालिया राजनीति में राहुल गांधी ने ही इसकी शुरुआत की. बाद में दूसरी पार्टियों के तमाम बड़े नेता उसको फॉलो करने लगे. लेकिन तकलीफ इसी बात की है कि, राहुल पर विरोधी पार्ट-टाइम राजनेता होने का आरोप मढ़ते है और राहुल के कई कदम उस पर मुहर लगाने की दिशा में दिखाई पड़ते हैं. यही समस्या की जड़ है. राहुल को सोचना होगा क्यों उनकी सियासी लड़ाई प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह से है 24 घंटे की राजनीति करते हैं जन्मदिन और दीवाली भी इस अंदाज में मनाते हैं कि, उनको सियासी वाह वाही मिले ना कि सवाल खड़े हो.
कार्यकर्ताओं और नेताओं ने राहुल पर अपने दिल की बात इसी शर्त पर बताई कि, उनका नाम ना छापा जाए. शायद मीडिया में खुलकर अपनी बात कहने वाले का पार्टी में सियासी नुकसान तय है. लेकिन एक कार्यकर्ता ने एक फ़िल्म का ये गाना बजाकर कहा कि, फिलहाल तो हम सब राहुल जी के लिए यही गाना गा रहे हैं, आप भी सुनिए...
कब आओगे कब आओगे, देर न हो जाए कहीं देर न हो जाये, आजा रे.. के मेरा मन घबराए, देर न हो जाए कहीं देर न हो जाये...
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