बीजेपी बहुमत से दूर रही तो नीतीश कुमार 'मोदी-मोदी' बिलकुल नहीं कहेंगे
23 मई के बाद बहुत कुछ बदल कुछ बदल सकता है - लेकिन सब कुछ नहीं. आम चुनाव के नतीजे आने के बाद जो नेता सरकार बनने में बड़ा रोल निभाएंगे उनमें नीतीश कुमार भी शामिल हैं - देखना है वो क्या करेंगे?
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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एनडीए में वापसी के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बेमिसाल बताते रहे हैं. वो राजनाथ सिंह की तरह 'मोदी का PM बनना श्योर है' तो नहीं कहते लेकिन म्युजिक स्केल बदल कर एनडीए नेताओं के सुर को कभी बेसुरा भी नहीं होने देते.
जब प्रधानमंत्री मोदी वंदे मातरम के नारे लगा और लगवा रहे होते हैं तो भी वो मंच पर डटे रहते हैं, ऐसा नहीं कि दूर हट जाते हैं. हां, उस सुर में सुर मिलाने की जगह चुपचाप मंद मंद मुस्कुराते रहते हैं. ये उन लोगों के लिए नीतीश कुमार का मैसेज देने का तरीका होता है जिन्हें वो बताना चाहते हैं कि ऐसा क्यों कर रहे हैं.
अब सिर्फ आखिरी दौर का मतदान बचा है और उसके बाद 23 मई को नतीजों का इंतजार रहेगा. नतीजों को लेकर अटकलबाजी का दौर भी शुरू हो चुका है. जब विपक्ष को बीजेपी नेताओं के मुंह से एनडीए को बहुमत मिलने पर संशय की बातें सुनने को मिलती हैं तो सबके सीने चौड़े हो जाते हैं. ये भी तय है कि गठबंधन का मौजूदा स्वरूप चुनाव नतीजे आने के बाद बदल जाने वाला है.
सवाल ये है कि एनडीए को बहुमत न मिलने की स्थिति में अगर नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठी तो नीतीश का स्टैंड क्या होगा? क्या तब भी नीतीश कुमार एनडीए में ही बने रहेंगे? अगर बने भी रहे तो क्या 'मोदी-मोदी' ही करते रहेंगे या कोई पेंच फंसाएंगे?
कौन प्रधानमंत्री बनना नहीं चाहता?
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ब्रिटिश नागरिकता पर भी कई दिनों तक बवाल चला. अमेठी और वायनाड से राहुल गांधी का नामांकन रद्द कराने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका दायर हुई - बवाल भी तभी थमा जब सर्वोच्च अदालत ने ये कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि किसी कंपनी के फॉर्म में नाम लिख देने से कोई किसी मुल्क का नागरिक नहीं बन जाता.
राहुल गांधी की नागरितकता पर सवाल उठाने वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान बहस भी बड़ी दिलचस्प रही. याचिकाकर्ता के वकील ने राहुल गांधी की ब्रिटिश नागरिकता का मुद्दा उठाते हुए कहा कि वो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं और ऐसे में उनकी नागरिकता का मसला स्पष्ट होना चाहिए. वकील की दलील पर चीफ जस्टिस रंजन गोगोई बोले - 'कौन प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहता? अगर 130 करोड़ जनता कहेगी तो क्या आप प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहेंगे?'
2018 में विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार के बाद केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कई बार नेतृत्व पर सवाल उठाये. बाद में वो अपने बयान को 'तोड़ा मरोड़ा गया' टाइप समझाने की कोशिश भी करते रहे, लेकिन चर्चा चालू रही. यहां तक कहा जाने लगा था कि RSS भी नितिन गडकरी को पसंद करता है क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी की तरह वो एक सर्वमान्य नेता हो सकते हैं.
नितिन गडकरी अब भी अपने जवाब के साथ खड़े हैं कि वो जैसे भी हैं खुश हैं - और प्रधानमंत्री बनने की उनकी कोई इच्छा नहीं है. ऐसे जवाब जब भी सुनने को मिलते हैं, जस्टिस रंजन गोगोई की बात याद आ जाती है. नीतीश कुमार भी तो आजकल यही दोहराते रहते हैं. क्या नीतीश कुमार भी नितिन गडकरी की ही तरह प्रधानमंत्री न बनने की इच्छा बोल कर राजनीतिक बयान दे रहे हैं? एक बार नीतीश कुमार ने ही निराशा का भाव लिये कहा था कि किस्मत ही किसी को प्रधानमंत्री बनाती है - जिसके नसीब में प्रधानमंत्री बनना लिखा होगा, बनेगा ही.
23 मई के बाद कैसे दिन आने वाले हैं?
जेडीयू नेता गुलाम रसूल बलियावी एक क्षेत्रीय समाचार चैनल से कहा है कि इस बार चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को बहुमत नहीं मिलने जा रहा है, इसलिए नीतीश कुमार को PM कैंडिडेट घोषित कर देना चाहिये. बलियावी का दावा है कि बिहार में नरेंद्र मोदी नहीं बल्कि नीतीश कुमार के चेहरे पर वोट मिल रहा है. 2014 के आम चुनाव से काफी पहले नीतीश कुमार ने भी एनडीए के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर देने की मांग रखी थी - और जब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया तो नीतीश कुमार एनडीए से ही अलग हो गये थे.
बीजेपी जेडीयू नेता के बयान पर कड़ा ऐतराज जताया है. बीजेपी प्रवक्ता सैयद शाहनवाज हुसैन का कहना है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक नरेंद्र मोदी के काम और नाम पर वोट मिल रहा है, लेकिन लगता है बलियावी को कहीं और से ‘हवा’ मिल रही है. जेडीयू के बिहार अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह ने कह दिया है कि बलियावी के बयान से पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है. वशिष्ठ नारायण सिंह कहते हैं कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद लोगों से वोट मांग रहे हैं और वो खुद कई बार साफ कर चुके हैं कि वो बिहार के लोगों की ही सेवा करना चाहते हैं - प्रधानमंत्री पद में उनकी दिलचस्पी नहीं है. वशिष्ठ नारायण सिंह ने बलियावी के बयान को पूरी तरह से अर्थहीन, निरर्थक और हास्यास्पद बताया है. वैसे गुलाम रसूल बलियावी की छवि नेता नहीं बल्कि धर्मगुरू जैसी ज्यादा है. बलियावी ने राजनीतिक पारी की शुरुआत लोक जनशक्ति पार्टी के साथ . की थी. जब तक एलजेपी में रहे, बलियावी रामविलास पासवान को प्रधानमंत्री बनाये जाने की बातें करते रहे - दो साल तक राज्य सभा सांसद रहे बलियावी फिलहाल विधान परिषद सदस्य हैं और उनका तीन साल का कार्यकाल बचा हुआ है.
हो सकता है गुलाम रसूल बलियावी के भी मन के किसी कोने में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा हो, लेकिन राजनीतिक हैसियत नहीं होने के कारण खामोश रहना मजबूरी हो जाती हो. अब हर कोई तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर यानी के. चंद्रशेखर राव की तरह मौके की नजाकत को थोड़े ही समझ पाता है. जब केसीआर को लगा कि प्रधानमंत्री पद को लेकर तो देश में कड़ा मुकाबला है, तो उन्होंने नया तरीका खोज लिया - तब तक डिप्टी PM ही बना दो. चीफ मिनिस्टर से तो अच्छा ही होगा और उस कुर्सी का दावेदार भी बड़ा हो गया है - वारिस तो बेटा ही होगा.
नीतीश कहां तक पेंच फंसा पाएंगे?
किस्मत को तो मानते ही हैं, नीतीश कुमार वक्त की नब्ज अच्छी तरह पकड़ लेते हैं. वो लालू प्रसाद की तरह सिर्फ 'जहर' नहीं पीते, बखूबी जानते हैं कि 'अमृत' कब और कहां से पीया जा सकता है? वंदे मातरम उद्घोष के वक्त नीतीश कुमार न नारेबाजी का हिस्सा बनते हैं न पूरी तरह खामोश रहते हैं, बल्कि मंद मंद मुस्कुराते रहते हैं, जैसे कह रहे हों - 'अपना भी टाइम आएगा!'
नीतीश कुमार और बीजेपी नेतृत्व दोनों को पता है कि एक दूसरे के खिलाफ कौन क्या कर सकता है? कहां तक जा सकता है? दोनों की मजबूरी है. दोनों को सही वक्त का इंतजार है.
नीतीश कुमार की भी मजबूरी है कि वो बीजेपी को भी आंख नहीं दिखा सकते क्योंकि उसी सपोर्ट सिस्टम से ही उनकी सरकार चल रही है. बीजेपी भी जानती है कि बिहार में वोट पाने के लिए नीतीश कुमार का फिलहाल साथ बने रहना कितना जरूरी है. अमित शाह ने यूं ही नहीं नीतीश कुमार को बराबर सीटें दे डाली हैं. अमित शाह सहयोगी दलों के नेताओं की अहमियत और औकात दोनों अच्छी तरह जानते हैं. यूपी में अपना दल की अनुप्रिया पटले और ओमप्रकाश राजभर इस बात की मिसाल हैं. बिहार में भी रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा में ऐसा ही फर्क है.
नीतीश कुमार ये भी समझते ही होंगे कि बीजेपी नेतृत्व भी उन्हें 23 तारीख तक ही खास तवज्जो दे रहा है. बाद के दिनों में बीजेपी की नजर बिहार विधानसभा चुनावों पर होगी. 2014 की हार का बदला नीतीश कुमार ने बिहार चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को शिकस्त देकर ले लिया था. 18 महीने बाद ही एनडीए में लाकर मोदी ने अपने मन की बात कर डाली. फिर दोनों अपनी अपनी चाल की तैयारी में जुटे होंगे.
चुनाव नतीजे आने के बाद नीतीश कुमार भी देश के उन नेताओं जैसे रोल में ही होंगे जिनकी प्रधानमंत्री बनाने में भूमिका जरूर होगी. ऐसा नहीं है कि एनडीए की सरकार बनने की स्थिति में सिर्फ बीजेपी के सहयोगी दलों के नेताओं का ही अहम रोल होगा, यूपीए के सहयोगी और उन नेताओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका होगी जो अब तक किसी भी पाले में नहीं है - लेकिन ये सब निर्भर करता है कि किसके हिस्से में कितनी सीटें आती हैं.
पहले तो नीतीश कुमार के सामने ही बड़ी चुनौती है कि जेडीयू को कितनी सीटें जिता पाते हैं - ज्यादा जीते तो बल्ले बल्ले वरना, मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी तलवार लटकनी तय समझिये.
जैसा कि बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी दावा कर रहे हैं कि विशेष परिस्थितियों में मायावती भी एनडीए का हिस्सा हो सकती हैं, लेकिन नेतृत्व में बदलाव की शर्त भी रख सकती हैं. नीतीश कुमार के लिए ऐसी ही कोई स्थिति माकूल होगी जब ये कहने का मौका मिले कि मायावती ठीक कह रही हैं.
ऐसा भी हो सकता है कि बीजेडी नेता नवीन पटनायक को एनडीए में लाने की कोशिश में नीतीश कुमार सेतु बनें. मोदी और शाह की ओर से भी ऐसा दबाव डाला जा सकता है - और राज्य सभा उपसभापति चुनाव की तरह नवीन पटनायक को राजी करने में नीतीश कुमार कामयाब रहें - मगर, होने को तो इसका उलटा भी हो सकता है. है कि नहीं?
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