राष्ट्र विरोधी अड्डों में तब्दील होते हमारे नामी विश्वविद्यालय
डीयू, जेएनयू और ना जाने कितनी ही यूनिवर्सिटी अब शिक्षा से ज्यादा विरोध प्रदर्शन और राजनीति के लिए जानी जाने लगी हैं. तो ये किसकी गलती है? किसे कदम उठाने चाहिए ताकी शिक्षा संस्थान राजनीतिक अड्डा ना बन जाएं.
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पिछले साल फरवरी में ही जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्र विरोधी नारेबाजी की गई थी, उसके बाद तो देशभर में जैसे तूफान मच गया था. इस पर सियासतदानों ने जिस तरह से राजनीतिक रोटियां सेकीं, वह भी काफी शर्मनाक रहा था. राहुल गाँधी से अरविंद केजरीवाल तक सभी ने अपनी उपस्थिति उन छात्रों के सपोर्ट में दर्ज करवाई थी जिन्होंने भारत के खिलाफ नारे लगाए थे. उसके बाद जाधवपुर, कोलकाता और हैदराबाद में भी देश विरोधी नारेबाजी हुई थी. इसके बाद जम्मू-कश्मीर में भारत माता की जय का नारा लगाने वाले छात्रों को पीटा भी गया था.
एक साल बाद फिर से यही घटना देखने को मिल रहा है. बस फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार जंग का मैदान JNU न होकर दिल्ली विश्वविद्यालय है.
दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज एक सेमिनार आयोजित किया था जिसमे JNU के विवादित छात्रों उमर खालिद और शहला राशिद को आमंत्रित किया गया था. कोर्ट द्वारा दिए गए नियमित जमानत पर रिहा खालिद उन छात्रों में शामिल हैं जिन पर पिछले साल JNU में संसद हमले के दोषी अफजल गुरु के समर्थन में एक कार्यक्रम करके कथित रूप से देशविरोधी नारे लगाने का आरोप है.
इस कार्यक्रम की जानकारी ABVP (भाजपा की छात्र इकाई) को मिलने पर इसका विरोध किया और इस तरह AISA और ABVP के छात्रों के बीच झड़प हुई तथा देश विरोधी नारे लगाए गए.
फिर क्या था पिछले साल की तरह ही इस बार भी इस आग की लपटें दूसरे शिक्षण संस्थाओं में भी पहुँच गई. सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के परिसर में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के कार्यकर्ताओं के बीच झड़प के चलते तनाव की स्थिती बन गई. रामजस कॉलेज में हुई हिंसा के खिलाफ ABVP ने चंडीगढ़ में विरोध प्रदर्शन किया. इसमें छात्रों ने भारत माता की जय के नारे लगाते हुए और ASIA के विरोधी नारों को हाथ में लिए हुआ अपना विरोध प्रदर्शन किया.
इससे पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) फिर दिल्ली विश्वविद्यालय. छात्र राजनीति के मायने हाल के दिनों में आखिर क्यों बदल गए हैं. वामपंथी संगठनों से जुड़े घटक JNU पर अपना अधिकार मानते हैं तो दक्षिणपंथी संगठन दिल्ली विश्वविद्यालय पर अपना अधिकार.
‘कल्चर्स ऑफ प्रोटेस्ट’ सेमिनार में जिस उमर खालिद और शहला रशीद को बुलाया गया था, उन पर पिछले साल ही देश के खिलाफ नारेबाजी का गंभीर आरोप लगा है. स्वाभाविक है कोई भी संगठन ऐसे तत्वों को नहीं सुनना चाहेंगे. इनका विरोध राष्ट्रवाद के स्वर को मुखर करता है. मगर विरोध जब हिंसात्मक हो जाए तो असली मुद्दे ही पीछे छूट जाते हैं और शिक्षण संस्थाओं का माहौल खराब होता है. DU के मामले में भी कुछ ऐसा ही कुछ देखने को मिल रहा है. भारी विरोध के बावजूद संवाद होते रहने चाहिए. बोलने की ताकत से ज्यादा सुनने का साहस बड़ी बात होती है, मगर अफसोस ऐसे दृश्य इन दिनों शिक्षण केंद्रों से गायब ही हो चुके हैं. ठीक है, पार्टी की विचारधारा या उसके एजेंडे का प्रचार-प्रसार हर सियासी जमात चाहता है, परंतु इसके लिए हिंसक होना या देश विरोधी आंच पर रोटियां सेंकना कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता है. शायद यहां पर JNU प्रकरण से जो सबक मिले उसे भी याद नहीं रखा गया.
क्या इस पूरे प्रकरण में DU प्रशासन का दोष नहीं है जिसने पहले सेमिनार की इजाजत दी और फिर कोई अप्रिय घटना न घटे इसके लिए कोई ठोस प्रबंध नहीं किया? क्या यह सच नहीं है कि शिक्षण संस्थाओं को खुले संवाद का मंच बनाया जाए किंतु ओछी राजनीति का अखाड़ा न बनने दिया जाए? पहले JNU, फिर बेंगलुरु और अब DU. क्या शिक्षा के अहम केंद्र- विरोध, हिंसा और अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में देश के खिलाफ बोलने वालों के केंद्रबिंदु के तौर पर जाना जाना उचित है? क्या इस तरह के परिस्थितियों से बचने की कोशिश नही होनी चाहिए? क्या इस तरह कि घटनाओं का पुर्नावृति न हो इसके लिए समय रहते उपाय नही निकलना चाहिए? अगर नहीं तो फिर किसी और विश्वविद्यालयों में ऐसे ही नज़ारें देखने को हमे तैयार रहना चाहिए.
हमारे लिए तो आदर्श स्थिति यही होती कि विश्वविद्यालय परिसर में किसी भी गलत शख्स या सियासतदां को बुलाने पर रोक होनी चाहिए. सहमति और असहमति तक बात हो तो क्षम्य है, लेकिन जिससे शिक्षा के अहम संस्थान बदनाम या चोटिल हों उसे दुरुस्त करने की जिम्मेदारी हर किसी की होनी चाहिए है- सरकार और उसकी मशीनरी की तो सबसे ज्यादा जो यहां नदारद दिखती है.
छात्र राजनीति में वर्चस्व के लिए विरोध प्रदर्शन होते आए हैं और गुटों के बीच संघर्ष भी होते रहे हैं लेकिन विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा. कॉलेज और विश्वविद्यालय राजनीति के व्यापक फलक की प्रयोगशाला होते हैं. छात्र राजनीति ने ही देश को बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ भी दिए हैं. लेकिन क्या अपने विचारों को रखने के लिए देश विरोधी नारेबाजी करना इन शिक्षण संस्थाओं में उचित है. सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए बुरहान वानी को शहीद करार दिया जाता है और भारत के हजार टुकड़े होने के नापाक मंसूबे पाले जाते हैं. क्या हमारे शिक्षण संस्थाएं इसी केलिए बने हैं? क्या देश के ऐसे प्रतिष्ठित संस्थानों में ऐसे नारों को बर्दाश्त किया जाना चाहिए?
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