फिदेल कास्त्रो के बहाने वामपंथ पर बहस
फिदेल ने सत्ता में रहते हुए परिवारवाद और तानाशाही से अपनी हुकूमत की, फिर क्यों भारत के बुद्धिजीवी उनकी तारीफ करते हैं. आखिर उनके द्वारा किए गए अच्छे कामों को क्यों नहीं देखा जाता. सिर्फ कम्युनिस्ट सोच पर मत क्यों?
-
Total Shares
साम्यवादी नीतियों के साथ क्यूबा पर राज करने वाले फिदेल का नब्बे वर्ष की आयु में देहांत हो गया. 1959 में क्यूबा तानाशाह बतिस्ता को सशस्त्र आन्दोलन से हटाकर फिदेल ने सत्ता पर कब्जा किया था. तबसे लेकर अभी तक क्यूबा में कास्त्रो के परिवार का ही कब्जा है. इस कम्युनिस्ट तानाशाह ने स्वास्थ्य कारणों से वर्ष 2006 में क्यूबा की सत्ता अपने भाई राउल कास्त्रो को सौंप दी थी. फिर भी सत्ता की धुरी फिदेल कास्त्रो ही माने जाते रहे. बेशक फिदेल कास्त्रो और उनके भाई क्यूबा के राष्ट्रपति कहे जाते रहे हैं, लेकिन वहां का शासकीय मॉडल कास्त्रो की तानाशाही वाला ही है. कम से कम उस तंत्र को लोकतंत्र तो नहीं ही कहा जा सकता है.
फिदेल कास्त्रो- फाइल फोटो |
फिदेल की मृत्यु के बाद लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देते रहने वाले भारत के तथाकथित बुद्धिजीवियों, वामपंथी प्रोफेसर्स द्वारा जिस ढंग से उनका महिमामंडन किया जा रहा है, वो एक अनोखे दोमुहेपन को दर्शाता है. यह सर्वविदित है कि फिदेल एक अलोकतांत्रिक शासक थे. वे पांच दशक तक अलोकतांत्रिक ढंग से शासन करते रहे. जब सत्ता छोड़ी तो परिवारवाद, वंशवाद से ऊपर नहीं उठ सके और भाई को सत्ता दे दी. फिदेल ने सत्ता में रहते हुए भारी संख्या में लोगों को देश निकाला दिया, जो उनके विचारों से सहमत नहीं थे. भारी संख्या में लोग क्यूबा छोड़कर चले गए क्योंकि अपने से विरोधी विचारों को फिदेल बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं करते थे. हजारों लोगों को क्यूबा का राष्ट्रपति कहे जाने वाले इस कम्युनिस्ट तानाशाह ने इसलिए मरवा दिया था क्योंकि इन लोगों ने उनके विचारों से अलग विचार रखा.
ये भी पढ़ें- फिदेल कास्त्रो: एक क्रांति का चले जाना
कुछ पत्रकार जो फिदेल के खिलाफ बोले, उनका भी इस कम्युनिस्ट तानाशाह ने दमन किया. आज जब फिदेल नहीं रहे तो भारत के वामपंथी जमात के लोग जिस ढंग से उनको नायक बनाने पर तुले हैं, वो आश्चर्यजनक है. इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय परंपरा में वैचारिक विरोधियों को भी मृत्यु के बाद सम्मानजनक ढंग से याद करने, श्रद्धांजलि देने की परंपरा है. इस परंपरा का निर्वहन भी किया जाता रहा है, लेकिन किसी को इस कदर नायक बना देने पर तो बहस अवश्य होनी चाहिए. भारत में जो लोग लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी जैसे विषयों पर अतिवाद तक जाकर आवाज उठाते हैं, उनके नायक फिदेल कास्त्रो कैसे हो सकते हैं?
भारत में ऐसा अक्सर होता है कि बयानों पर राजनीति होती है. किसी भी छोटे-बड़े नेता के बयान पर विमर्श होता है. अब तो सोशल मीडिया पर लिखे जाने वाले लेखों, टिप्पणियों को आधार मानकर भी बड़े-बड़े आकलन किए जाने लगे हैं. मसलन, वामपंथ से सहानुभूति रखने वाले तथाकथित बुद्धिजीवीयों द्वारा एक आम शिकायत अक्सर की जाती है कि जब भी वे कोई आवाज उठाते हैं, तो एक तबका उन्हें पाकिस्तान भेजने की बात करने लगता है. एक टीवी चैनल एक पत्रकार तो कई बार खुद को इसका सर्वाधिक पीड़ित अपने चैनल के माध्यम से एकतरफा संवाद में बता चुके हैं. ऐसी बातें जरुर होती हैं, इससे खारिज नहीं किया जा सकता. लेकिन तथ्य तो यह भी है कि क्या अभी तक कोई एक उदाहरण मिला है कि किसी को विरोध में आवाज उठाने की वजह से पाकिस्तान अथवा कहीं और भेजा गया हो? सरकार को छोड़ भी दें तो क्या अभी तक किसी संगठन द्वारा ही पाकिस्तान भेजने जैसी कोई संगठित मुहीम चलाकर किसी पर दबाव बनाया गया हो.
|
||
अगर तथ्यों के धरातल पर बहस की जाए तो तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा की जाने वाली यह शिकायत कहीं नहीं टिकती है. यह सहानुभूति हासिल करने एवं सरकार अथवा एक ख़ास तबके को बदनाम करने की अफवाह से ज्यादा कुछ भी नहीं है. लेकिन आश्चर्य यह है कि ‘पाकिस्तान चले जाओ’ जैसे उलाहना भरे शब्दों से बुरी तरह आहत होने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी फिदेल कास्त्रो में एक अद्भुत नायक देख रहे हैं! क्या इन बुद्धिजीवियों को नहीं पता कि फिदेल से असहमत होने वाले लोगों के लिए फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा में कोई जगह नहीं छोड़ी थी? किसी मामूली बहस में किसी के द्वारा बस इतना कह देने कि 'पाकिस्तान चले जाओ’, से आहत लोग भला फिदेल को किस मुंह से महिमामंडित कर रहे हैं? भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ दिन-रात बोलने वाले लोग भी जब यह शिकायत करते हैं कि देश में बोलने की आजादी पर रोक लग रही है, तो ये लोग फिदेल कास्त्रो को किस मुंह से महानायक बताने पर तुले हैं? छ: दशकों से जिस देश में न्यूनतम लोकतंत्र के लक्षण भी नहीं दिखे हों, उस मुल्क के तानाशाह का गुणगान करते हुए क्या भारत की तथाकथित बुद्धिजीवी जमात को अपने दोहरे चरित्र को देखने की जरूरत नहीं महसूस हो रही है?
फिदेल कास्त्रो- फाइल फोटो |
दरअसल, भारत की वामपंथी जमात के इस दोहरे चरित्र को समझना बहुत मुश्किल नहीं है. हाँ, यह जरुर है कि भारत के वामपंथी बेहद शातिरपन के साथ विमर्श का एजेंडा तय करते हैं. साम्राज्यवाद के खिलाफ अमेरिका से लड़ाई की आड़ लेकर फिदेल कास्त्रो का हर संभव बचाव करने वाले भारत के वामपंथी जमात वाले लोगों के लिए क्यूबा में लोकतंत्र और मानवाधिकार के सवालों का कोई महत्व नहीं है. वो जिस लोकतंत्र और मानवाधिकार का सवाल लेकर भारत की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई पूर्ण बहुमत वाली सरकार को दिन-रात तानाशाह जैसे शब्दों से नवाजते रहते हैं, क्यूबा के मामले में उन्हीं सवालों पर चुप्पी साध लेते हैं. दुनिया को अमेरिका का भय दिखाकर कम्युनिस्ट तानाशाही का एजेंडा चलाने वाले लोग हर मोर्चे पर एक्सपोज होते रहे हैं. ये लोग आज फिर एकबार फिदेल कास्त्रो के बहाने एक्सपोज हुए हैं. दरअसल भारत के कम्युनिस्टों की एक अलग किस्म की समस्या है. वे अच्छी बातें सीखने और लोकहित में उसका उपयोग करने के मामले में असफल साबित हुए हैं. ऐसा नहीं है कि फिदेल कास्त्रो से भी वे कुछ सीख नहीं सकते थे!
ये भी पढ़ें- इस भारत बंद का हासिल क्या?
फिदेल कास्त्रो ने स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे मसलों पर क्यूबा में बेहतर काम किया है, लेकिन भारत में जब कम्युनिस्ट बंगाल में तीन दशक से ज्यादा सत्ता में रहे तो उन्होंने फिदेल कास्त्रो से यह नहीं सीखा. भारत के कम्युनिस्ट दल और उनके विचारक सिर्फ नकारात्मक और विनाशक धारणाओं में यकीन रखने का काम किए हैं. यहाँ पर उनकी मूल विचारधारा या तो नक्लवादी मूमेंट के बूते कम्युनिस्ट तानाशाही को स्थापित करने की रही है अथवा भारत तेरे टुकड़े होंगे, वाली रही है. जब वो राज्यों की सरकार में आए तब भी और जब वो यहाँ विपक्ष हैं तब भी, अपने मूल चरित्र के अनुसार विनाशक की भूमिका में रहे हैं. फिदेल कास्त्रो से सीखकर भी कुछ न कुछ जरूर कर सकते थे, लेकिन भारत का वामपंथ उस योग्य भी नहीं है.
फिदेल कास्त्रो को महानायक साबित करने से पहले भारत के तथाकथित बुद्धिजीवियों को अपने इस दोहरे चरित्र को अवश्य देखना चाहिए. अगर मूल्यांकन ही करना है तो मानवाधिकार, लोकतंत्र जैसे मानदंडों पर फिदेल का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए. हालांकि, क्यूबा में लोकतंत्र हो और कास्त्रो परिवार की तानाशाही का अंत हो यह समय की मांग है. पता नहीं इस मांग के साथ, भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी कब खड़े होंगे?
आपकी राय