विपक्ष के गठबंधन कितनी बड़ी चुनौती है मोदी के लिए...
यह सही है कि कई दल अगर साथ आ जाएं तो निश्चित रूप से भाजपा के गणित को गड़बड़ा सकते हैं, हालांकि उनका साथ आना और साथ बने रहना भी काफी मुश्किल ही लगता है.
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गोरखपुर, फूलपुर और अररिया लोकसभा सीट के उपचुनाव के नतीजे भारतीय जनता पार्टी के लिए चौंकाने के साथ डराने वाले भी रहे. इन चुनाव नतीजों ने जहां भारतीय जनता पार्टी के लिए वेक अप कॉल दे दिया है तो वहीं विपक्षी पार्टियों के लिए एक तरह से संजीवनी की तरह है, जिसने विपक्षी पार्टियों को यह फार्मूला दे दिया है कि सभी मिलकर ही भाजपा के विजयी रथ को रोक सकते हैं. हालांकि साल 2015 में बिहार विधानसभा चुनावों में लालू यादव और नितीश कुमार ने साथ आकर जिस अंदाज़ में भाजपा को पटखनी दी थी उस समय भी सभी दलों ने साथ आने की रणनीति पर सोचते नजर आये थे. मगर इसको लेकर कुछ ख़ास करते नहीं दिखे, तभी तो भारतीय जनता पार्टी इस दौरान असम, गोवा, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात और हिमाचल के बाद त्रिपुरा में भी सरकार बना चुकी है.
2019 लोकसभा चुनावों में भाजपा के लिए परेशानी खड़ी हो सकती है
हालांकि अब 2019 के लोकसभा चुनाव आने में एक साल के आसपास ही समय बचा है, ऐसे में विपक्ष में बैठे दलों की सुगबुगाहट यह बताने के लिए काफी है कि अब सभी दलों को इस बात का अंदाजा हो गया है कि अलग अलग लड़कर शायद ही भाजपा को टक्कर दी जा सकती है.
अभी पिछले ही हफ्ते सोनिया गांधी ने 20 दलों के नेताओं के साथ रात्रि भोज का आयोजन कर इस बात के स्पष्ट संकेत दे दिए कि 2019 के चुनाव भाजपा वर्सेज सभी विपक्षी दल रहने की पूरी सम्भावना है. और खबर यह भी है कि राहुल गांधी भी शरद पवार के साथ मिलकर सभी दलों को एक प्लेटफार्म पर लाने की रणनीति तैयार कर रहे हैं. ऐसे में 2019 के चुनावों के पहले कई क्षेत्रियों दलों के साथ कांग्रेस का गठबंधन केवल समय की बात लगती है.
वैसे तमाम दलों के साथ आने के बावजूद उनके लिए आगे की राह इतनी आसान नहीं होने वाली. यह सही है कि कई दल अगर साथ आ जाएं तो निश्चित रूप से भाजपा के गणित को गड़बड़ा सकते हैं, हालांकि उनका साथ आना और साथ बने रहना भी काफी मुश्किल ही प्रतीत होता है.
अभी हाल ही में नीतीश कुमार ने लालू यादव से अपना गठबंधन ख़त्म वापस से भाजपा के साथ हो लिए, वैसे जब से यह गठबंधन बना था तभी से इसके लम्बे समय तक चल पाने को लेकर संशय जताया जा रहा था. ऐसे में अगर कई दल साथ आ भी जाएं तो क्या इनके नेता अपनी महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगा पाएंगे. यह सर्वविदित है कि कमोबेश सभी क्षेत्रीय दलों के नेता खुद को किंगमेकर की भूमिका में ही देखते हैं, ऐसी सूरत में जब कई धुरविरोधी नेता एक साथ आएंगे तो क्या जनता को वह भरोसा दिला पाएंगे, जो उन्हें भाजपा या कहें मोदी से बेहतर विकल्प के रूप पेश करेगा? लगता नहीं है.
ये अगर एकसाथ आएंगे तो क्या जनता को भरोसा दिला पाएंगे
वैसे अगर पिछले कुछ वर्षों में भारत में वोटिंग पैटर्न को भी देखें तो एक बात उभर कर आती है वो यह कि इन वर्षों में भारतीय वोटरों ने हार चुनाव को ध्यान रख कर वोटिंग की है, यानी राष्ट्रीय चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे तो विधानसभा के चुनावों में लोकल मुद्दे. मसलन जहां वोटरों ने दिल्ली के सभी लोकसभा सीटों पर भाजपा को चुना तो साल भर बाद ही विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को 70 में 67 सीटें दे दी. कुछ ऐसा ही नज़ारा बिहार में भी दिखा जहां जनता ने लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा को तो विधानसभा में नितीश और लालू की पार्टी को चुना.
ऐसे में अहम सवाल यह है कि क्या अगर कई बेमेल पार्टी साथ आ भी जाएं तो क्या जनता को वो इतना भरोसा दिला पाएंगे जो उन्हें केंद्र में सत्ता के करीब भी ला सके?
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