एनटीआर के 1983 वाला करिश्मा कभी नहीं दोहरा पाएंगे कमल हसन और रजनीकांत
NTR यानी एनटी रामाराव के करिश्मे की उम्मीद अब रजनीकांत और कमल हसन से करने वाले लोगों को जान लेना चाहिए कि शायद रजनीकांत इस बार फेल हो जाएं.
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आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और दक्षिण फिल्मों के सुपर स्टार नंदमुरी तारक रामा राव उर्फ NTR ने 29 मार्च 1982 में तेलगु देशम पार्टी की स्थापना की थी. पार्टी की स्थापना के समय एनटीआर ने कहा था कि राज्य में 1956 से सत्ता में रही कांग्रेस की सरकार की नाकामियों की वजह से उन्होंने ये कदम उठाया है. पांच साल में पांच बार इन्होंने मुख्यमंत्री बदला है. एक स्थिर सरकार देने में इनकी नाकामी की वजह से पार्टी का निर्माण किया गया.
1983 के अगस्त में आंध्रप्रदेश में चुनाव होने वाले थे लेकिन उसे जनवरी में करा दिया गया. 97 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी के सामने 9 महीने पहले बनी टीडीपी खड़ी थी. जिसकी कमान किसी वरिष्ठ राजनेता के हाथ नहीं बल्कि अभिनेता के हाथ में थी. ये अपने आप में एक अद्भुत चुनाव था. 300 तेलगु फिल्मों में अभिनय कर चुके एटीआर ने राजनीति के लिए अपना फिल्मी करियर जब छोड़ा तब वो शिखर पर थे. उनके आस पास भी कोई नहीं था. अपने 60वें जन्मदिन पर अन्ना ने फिल्मी दुनिया को सलाम कर राजनीति में हाथ आजमाने का फैसला किया.
आंध्र की राजनीति को बदलने वाले भगवान एनटीआर
उस वक्त कांग्रेस के नेताओं ने एनटीआर की रैलियों में आने वाली भीड़ को सिर्फ उनके ग्लैमर का नतीजा समझा. उनके विरोधियों ने उन्हें एक आत्म मुग्ध इंसान बताया तो खुद कांग्रेस अध्यक्षा और तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एनटीआर को- 'एक राजनीतिक मजाक' बताया. यही गलती कांग्रेस को भारी पड़ी. एनटीआर और उनके समर्थकों को कांग्रेस का उनपर यूं हमला करना रास नहीं आया और इसका असर चुनाव के नतीजों में दिखा.
5 जनवरी को हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस की जड़ें ऐसी खोदी की वो आजतक आंध्रप्रदेश में जमीन ही तलाश रही है. 292 सीटों पर हुए चुनाव में टीडीपी ने 202 सीटों पर अपना झंडा गाड़ दिया. वहीं इंदिरा गांधी जैसी कद्दावर नेता वाली कांग्रेस 145 से सिर्फ 60 सीटों तक सिमट कर रह गई. एनटीआर ने राज्य के 10वें और पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री के रुप में शपथ ग्रहण किया.
अब सुपरस्टार कमल हसन और रजनीकांत ने राजनीति में इंट्री का एलान किया है. ये दोनों चाहे कितने ही फेमस अभिनेता क्यों न हों पर एनटीआर वाला करिश्मा नहीं दोहरा सकते. इसके पीछे के कई कारण हैं.
आंध्रप्रदेश 1953 में अस्तित्व में आया था. तभी से राज्य में कांग्रेस की सरकार थी. यही नहीं 1977 से 1982 तक के पांच सालों में राज्य के पांच मुख्यमंत्री बदले. मतलब साफ था कि खुद कांग्रेस पार्टी अंतरकलह से गुजर रही थी. साथ ही सरकार की ये अस्थिरता और 30 सालों से सत्ता पर काबिज कांग्रेस का नकारापन अब वहां कि जनता को चुभने लगा था. वो बदलाव चाहते थे. और एनटीआर ने उन्हें एक विकल्प दिया.
वहीं आज कमल हसन और रजनीकांत राजनीति के जिस मैदान में उतर रहे हैं वहां पहले से ही भाजपा, एआईएडीएमके, डीएमके जैसी बड़ी पार्टियां मौजूद हैं. जयललिता की मौत के बाद एआईएडीएमके के अंदर का अंतरकलह भले ही शांत होने का नाम नहीं ले रहा है. लेकिन आरके नगर उपचुनाव में दिनाकरन की जीत ने बता दिया कि लड़ाई लंबी और कांटेदार होने वाली है. दिनाकरन ने अपने चुनाव प्रचार में जयललिता के नाम को खुब भुनाया था. और चुनाव जीतने के बाद अब उन्होंने भी अपनी पार्टी बनाने का दावा किया है.
कठिन है डगर राजनीति की
एनटीआर ने 35 साल के अपने फिल्मी करियर में ज्यादातर रोल भगवान राम और कृष्ण के किए. इसकी वजह से दक्षिण के लोगों में उनका दर्जा भगवान से कम नहीं था. लोग उनकी पूजा करते थे. अन्ना की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कयासों की मानें तो उस समय भी एनटीआर हर फिल्म के 20 लाख रुपए लेते थे और साल में एक दर्जन से ज्यादा फिल्म करते थे.
रजनीकांत को उनके फैन थलाइवा यानी भगवान नाम से पुकारते हैं. अपने फैन्स के लिए रजनीकांत भी भगवान हैं. ऐसा भगवान जिसके फिल्म रीलिज के दिन चेन्नई और बंगलुरु में छुट्टियां घोषित कर दी जाती है. जिसके नाम पर जब जोक्स भी बनते हैं तो यही कि रजनीकांत ने राजनीति नहीं बल्कि राजनीति ने रजनीकांत को ज्वाइन किया है. वहीं कमल हसन की लोकप्रियता भी कम नहीं है. तो इसलिए न सिर्फ रजनीकांत और कमल हसन की टक्कर एक दूसरे के स्टारडम से है बल्कि जयललिता की परंपरा को आगे बढ़ाने के नाम पर राजनीति की दुकान चमकाने वाले शशिकला और दिनाकरन से भी है.
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