गुजरात चुनाव में बीजेपी के लिये 3 बड़ी चुनौती
चाहे पाटीदार आंदोलन हो, दलित आंदोलन हो या फिर सही नेतृत्व की कमी, गुजरात में बीजेपी के लिये इस साल चुनाव में बहुत चुनौतियां हैं.
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गुजरात विधानसभा के चुनाव को लेकर जहां गुजरात के दो बड़े पक्ष यानि बीजेपी ओर कांग्रेस ने तैयारियां शुरु कर दी हैं, वहीं उत्तराखडं और युपी में भाजपा को मिली जीत के बाद अब गुजरात में बीजेपी कार्यकर्ता एक बार फिर जोश में दिख रहे हैं. हालांकि 2017 का गुजरात विधानसभा चुनाव इतना ही महत्वपूर्ण है जितना 2019 में आने वाला विधानसभा चुनाव, क्योंकि गुजरात देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ओर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का गृहराज्य भी है. ऐसे में बीजेपी गुजरात को जीतने के लिये ऐड़ी चोटी का जोर लगाएगी.
हालांकि गुजरात चुनाव बीजेपी के लिये आर या पार की लड़ाई भी माना जा रहा है. क्योंकि अगर बीजेपी अपनी इस हिन्दुत्व की प्रयोगशाला को नहीं बचा पाई तो देश में बीजेपी की सरकार होने के बावजूद प्रधानमंत्री और अमित शाह दोनों के लिये शासन कर पाना मुश्किल साबित होगा.
गुजरात में बीजेपी के लिये इस साल चुनाव में चुनौतियां काफी हैं. सबसे पहेली चुनौती नेतृत्व की कमी और पिछले 20 साल की एन्टी इन्कमबैंसी. गुजरात से नरेन्द्र भाई के जाने के बाद लगातार बीजेपी के नेताओं के नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े होते रहे हैं. पाटीदार और दलित आंदोलन के बाद लोगों की सरकार से नाराजगी इतनी बढ़ गयी कि आनंदीबेन को हटाकर विजय रुपानी को मुख्यमंत्री और नितिन पटेल को उपमुख्यमंत्री बनाया गया. हालांकि सौराष्ट्र में आज भी पाटीदार आरक्षण की मांग, पाक बीमा, किसानों पर लाठीचार्ज, फसल के ठीक दाम और सबसे बड़ी पानी की किल्लत जैसे मुद्दों को लेकर आज भी लोग सरकार से नाराज हैं.
पाटीदार आरक्षण आंदोलन
सरकार बार-बार ये दावा कर रही है कि पाटीदार आरक्षण आंदोलन खत्म हो चुका है लेकिन आज भी पाटीदार उस दिन को याद करते हैं जिसमें पाटीदारों की क्रांति रैली के बाद भाजपा की सरकार के आदेश के बाद पुलिस ने पाटीदारों पर फायरिंग और लाठीचार्ज किया था, जिसमें 9 पाटीदारों की मौत हुई थी, जबकि महिलाओें को भी बुरी तरह पीटा गया था. गुजरात में पाटीदार 15 से 16 प्रतिशत हैं, जो कि सौराष्ट्र, उत्तर गुजरात और दक्षिण गुजरात कुल मिलाकर 50 से 60 सीटों पर अपना प्रभुत्व रखते हैं.
दलित और ओबीसी आंदोलन
दलित और ओबीसी समाज के जरिए भी भाजपा के खिलाफ आंदोलन किए गये, हालांकि ये आंदोलन इतना असर नहीं छोड़ पाए जितना पाटीदार आंदोलन ने छोड़ा, लेकिन ओबीसी आंदोलन का शराबबंदी का मुद्दा गांव-गांव को छू गया. यहां लोग सरकार और कानून के खिलाफ खुद सड़कों पर उतरे और जनता रेड के जरिए शराब के अड्डे बंद करवाये. शराब को लेकर बार-बार ये बात लोगों में चलती रही कि शराब के अड्डे सरकार के रहमो-नजर के नीचे ही चलते हैं. लोगो में इस बात को तोड़ने के लिये खुद सरकार ने नया कानून बनाया और शराब के लिये सख्त कानून के साथ-साथ बड़ी-बड़ी रेड भी की. हालांकि इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ा, आज भी गुजरात में शराब आसानी से मिल जाती है.
मुस्लिम वोट
मुस्लिम वोटर सालों से कांग्रेस का वोटबैंक माने जाते हैं, लेकिन 2002 के दंगो के बाद नरेन्द्र मोदी ने विकास की ऐसी छवि खड़ी की थी कि मुस्लिम वोटर भी बीजेपी के साथ जुड़ने लगे थे. हालांकि जानकार यही मानते हैं कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीजेपी मुसलमानों को अपने साथ जोड़े रखने में नाकामयाब हुई है और मुस्लिम वापस कांग्रेस के साथ जुड़ने लगे हैं.
ग्रामीण और शहरी इलाके में वोटर बट गए हैं. दरअसल शहरों के अंदर आज भी बीजेपी के विकास, हिन्दुत्व, जैसे मुद्दों को लेकर वोटर जुड़े हुए हैं. जबकि ग्रामीण इलाकों की अलग-अलग समस्या को लेकर वोटर बीजेपी से छूट रहे हैं. गुजरात में 60 प्रतिशत लोग आज भी गांवों में बसे हुए हैं. ऐसे वोटर को कैसे बीजेपी के साथ जोड़े रखा जाए और उनपर एन्टी इन्कमबेंसी का असर नहीं होने देना बीजेपी के लिये लोहे के चने चबाने जेसा है.
वहीं इस बार के चुनाव में आम आदमी पार्टी और एनसीपी दोनों ही अपने उम्मीदवारों को 182 सीटों पर खड़ी कर रही है. तो माना ये जा रहा है कि जो लोग बीजेपी से नाराज हैं उनके वोट कांग्रेस के बजाए आम आदमी पार्टी और एनसीपी के बीच बट जाएंगे, जो बीजेपी के लिये फायदे का सौदा भी हो सकता है. लेकिन ये वोट अगर नहीं बंटते हैं और कांग्रेस में जाते हैं तो बीजेपी को इससे भारी नुकसान भी झेलना पड़ सकता है.
साफ है कि गुजरात में बीजेपी अपने घर को बचाने में लगी है जबकि कांग्रेस अपने अस्तित्व को. देखना काफी दिलचस्प होगा कि घर और अस्तित्व की इस लडाई में जीत किसकी होती है.
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