याकूब मुस्लिम, प्रज्ञा हिंदू... सजा किसे मिले ओवैसी साहब?
ओवैसी साहब देख नहीं पाते हैं - न तो वे हिंदुओं की गिरफ्तारी देख पाए, न ही मुस्लिमों की सजा माफी. खैर, आपको भाषण देना होता है और भीड़ के बिना भाषण अधूरा रह जाएगा साब...
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आंख के बदले आंख से पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी. यह गांधीजी का विचार था. लेकिन भारत का कानून राष्ट्रपिता की बात नहीं मानता. यह सब के लिए बराबर है और यहां फांसी भी दी जाती है. चंद दिनों की बात है, याकूब मेमन को भी मिलने वाली है. मुंबई बम ब्लास्ट मामले में यह पहली फांसी होगी.
अपराध-गिरफ्तारी-सजा-फांसी. पढ़ने-सुनने में यह जितना आसान लग रहा है, उतना आसान है नहीं. याकूब मेमन को फांसी का फैसला विवादों में फंसता जा रहा है. AIMIM के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने इसे मजहब से जोड़ दिया. उनका कहना है कि याकूब को फांसी मुस्लिम होने के नाते दिया जा रहा है. तर्क स्वरूप उन्होंने कहा कि फांसी देनी ही है तो राजीव गांधी के हत्यारों को भी फांसी दो.
असदुद्दीन ओवैसी के तर्क में दम है. लेकिन उन्हें दिखाने के लिए मेरे पास भी कुछ है.
1991 - राजीव गांधी की हत्या - 16 की मौत, कई घायल
1993 - मुंबई बम ब्लास्टस - 257 की मौत, 1700 घायल
2006 - मालेगांव ब्लास्ट - 37 की मौत, 125 घायल
मौत के आंकड़ों पर न जाएं. हमारे देश का कानून भी नहीं जाता है. यहां सजा अपराधी की प्रवृति पर दी जाती है, न कि उसने कितना 'बड़ा' अपराध किया, यह देखा जाता है. ओवैसी साहब, चूंकि आपने तर्क राजीव गांधी का दिया तो आपके लिए और पाठकों के लिए भी यह जानना बहुत जरूरी है कि उस मामले में जितने भी 26 अपराधी पकड़े गए थे, सभी को टाडा कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई थी. सुप्रीम कोर्ट से सबको राहत मिली.
ठीक उसी तरह मुंबई बम ब्लास्ट में याकूब मेमन के अलावा भी और लोग थे. मुसलमान थे. ट्रायल कोर्ट से फांसी की सजा पाए थे. सुप्रीम कोर्ट ने आजीवन कारावास में बदला. याकूब पर सजा बरकरार रखी गई.
2006 में मालेगांव ब्लास्ट होता है. पहले शक पाकिस्तानी आतंकियों पर जाता है. जांच आगे बढ़ती है तो हिंदु आतंकियों पर आकर टिकती है. लोग जेल जाते हैं. मामला अभी भी चल रहा है. हो सकता है इस मामले में भी कुछ फंदे पर झूलें, कुछ को कारावास मिले.
पहले ही पैराग्राफ में बताया था - देश का कानून सबके लिए बराबर है. ओवैसी साहब देख नहीं पाते हैं - न तो वे हिंदुओं की गिरफ्तारी देख पाए, न ही मुस्लिमों की सजा माफी. और न ही वो यह देख पाए कि जीवनदान के मसले पर राजनीतिक संस्थाओं में भले ही राजनीति होती होगी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में आकर सब बराबर हो जाते हैं. यहां अपराधी की प्रवृति देखी जाती है, उसकी धर्म या जाति नहीं. खैर आप देख भी नहीं पाएंगे ओवैसी साहब... आपको भाषण देना होता है और भीड़ बिना भाषण अधूरा रह जाएगा.
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