ममता न मानें तो भी, मुर्मू के सम्मान में यशवंत सिन्हा बैठ जाएं तो काफी अच्छा है
द्रौपदी मुर्मू (Draupadi Murmu) के खिलाफ लड़ाई का जो लॉजिक यशवंत सिन्हा (Yashawat Sinha) ने दिया है, बिलकुल वाजिब है - फिर भी अगर अपनी उम्मीदवारी वापस लेकर वो चाहें तो विपक्ष को एकजुट करने में ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के लिए ज्यादा मददगार हो सकते हैं.
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राष्ट्रपति चुनाव में एक बार फिर बीजेपी को एपीजे अब्दुल कलाम जैसा ही उम्मीदवार मिला है, द्रौपदी मुर्मू (Draupadi Murmu) के रूप में देश की राजनीतिक बिसात पर बीजेपी ने ऐसी चाल चली है कि हर विपक्षी दल शह महसूस करने लगा है.
द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बना कर बीजेपी ने एनडीए को एकजुट तो कर ही रखा है, बाहर से भी खुला सपोर्ट मिला है. नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी जैसे मुख्यमंत्रियों को सपोर्ट के लिए बहाने खोजने की जगह आगे आकर सपोर्ट करने लिए मजबूत दलील मिल गयी है.
विपक्षी खेमे में भी तेज हलचल होने लगी है - और JMM नेता हेमंत सोरेन तो सत्ता में साझीदार कांग्रेस और आरजेडी के खिलाफ जाने पर भी विचार कर रहे हैं. अब तो ऐसी कम ही संभावना लगती है कि झारखंड के मुख्यमंत्री सोरेन राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा (Yashawat Sinha) का सपोर्ट करेंगे, जबकि यशवंत सिन्हा लंबे समय तक लोक सभा और राज्य सभा में झारखंड की आवाज बने रहे हैं.
ऐसे में जबकि कांग्रेस नेतृत्व प्रवर्तन निदेशालय के सवालों से जूझ रहा है, तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी राष्ट्रपति चुनाव में तो विपक्ष की नेता की भूमिका निभा ही रही हैं. ममता बनर्जी की दिक्कत ये है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए जितने भी नाम का प्रस्ताव किया सभी पीछे हट गये - शरद पवार और गोपालकृष्ण गांधी के बाद फारूक अब्दुल्ला ने भी ममता बनर्जी को पूरे सम्मान के साथ मना कर दिया.
यशवंत सिन्हा ही ममता बनर्जी की तरकश से आखिरी तीर के तौर पर निकल पाये. यशवंत सिन्हा ही नहीं, ये तो ममता बनर्जी भी जान रही हैं कि द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति भवन पहुंचने की राह में महज कुछ जरूरी औपचारिकताएं ही बची हैं. मतलब, यशवंत सिन्हा की हार पहले से ही सौ फीसदी तय है.
बेशक विपक्ष के पास 2024 के आम चुनाव में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने के मामले में खुद को आजमाने का ये बेहतरीन मौका रहा, लेकिन सारी रणनीति एक बार फिर फेल हो गयी. हालांकि, कई बार भी फेल होने का मतलब ये भी नहीं होता कि आगे के रास्ते हमेशा के लिए बंद ही हो गये - कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर मामलों में संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं.
अगले आम चुनाव में बस दो साल ही बाकी रह गये हैं. दो साल बीतते देर नहीं लगती, लेकिन दो साल का वक्त कोई कम भी नहीं होता. ममता बनर्जी चाहें तो जो ऊर्जा राष्ट्रपति चुनाव में जाया करने जा रही हैं, उसे बचा कर नये सिरे से विपक्ष को एकजुट करने में लगायें. जैसे असम में तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ता महाराष्ट्र के विधायकों के होटल के सामने प्रदर्शन कर रहे हैं. जैसे ममता बनर्जी महाराष्ट्र की राजनीति में बीजेपी का विरोध और शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन का सपोर्ट कर रही हैं - ऐसी चीजों पर ही फोकस करें तो आगे की राह आसान हो सकती है.
अव्वल तो ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) को ही आगे बढ़ कर पहल करनी चाहिये और द्रोपदी मुर्मू के सम्मान में यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी वापस लेने की घोषणा कर देनी चाहिये, लेकिन अगर ममता बनर्जी ऐसा करने के लिए राजी नहीं होतीं तो यशवंत सिन्हा को खुद ऐसी पहल करनी चाहिये - और ममता बनर्जी को ताकतवर बनाने में पूरी ऊर्जा झोंक देनी चाहिये. तात्कालिक नुकसान दूरगामी योजनाओं के लिए ज्यादा फायदेमंद होते हैं.
अब जो समीकरण नजर आ रहे हैं
18 जुलाई को होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव के लिए जब 21 जून को यशवंत सिन्हा को संयुक्त विपक्ष का उम्मीदवार घोषित किया गया तो 17 विपक्षी दलों में एक झारखंड मुक्ति मोर्चा भी उसमें शामिल रहा. JMM नेता हेमंत सोरेन की झारखंड सरकार में कांग्रेस और लालू यादव की पार्टी आरजेडी भी शामिल है.
लेकिन जैसे ही बीजेपी की तरफ से द्रौपदी मुर्मू को एनडीए का प्रत्याशी बना दिया गया हेमंत सोरेन के लिए विपक्ष के साथ खड़ा रहना मुश्किल लगने लगा - और सिर्फ हेमंत सोरेन की कौन कहे, कहने को तो यशवंत सिन्हा को भी कहना पड़ा कि वो द्रौपदी मुर्मू का सम्मान करते हैं, लेकिन उनकी लड़ाई अलग है. वो समझा रहे हैं कि उनकी लड़ाई देश में लोकतंत्र देश का संविधान बचाने की है. जैसे विपक्ष कहता है, लड़ाई देश की संवैधानिक संस्थाओं को बचाने की है. यशवंत सिन्हा का कहना है, ‘हमारे लिए ये तय करना जरूरी है कि क्या हम बुलडोजर राज चाहते हैं या फिर संविधान पर अमल होते देखना चाहते हैं?’
यशवंत सिन्हा राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू का सपोर्ट कर अगले आम चुनाव में बड़ा रोल निभा सकते हैं
अब खबर आ रही है कि हेमंत सोरेन राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के साथ खड़े रहने के अपने फैसले को रिव्यू कर रहे हैं. ऐसा करने के पीछे उनकी निजी और राजनीतिक मजबूरी दोनो ही है - और ऐसा करने वाली हेमंत सोरेन की JMM कोई पहली पार्टी नहीं होगी. शिवसेना और जेडीयू दोनों ही अलग अलग चुनावों में अलग रास्ता अपना चुके हैं.
2017 के राष्ट्रपति चुनाव में नीतीश कुमार बिहार के महागठबंधन का नेता और मुख्यमंत्री रहे, लेकिन वो एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के सपोर्ट में खड़े हो गये थे. राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार बनने से पहले रामनाथ कोविंद बिहार के राज्यपाल हुआ करते थे. ठीक वैसे ही शिवसेना ने बीजेपी के साथ गठबंधन की परवाह न करके प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया था क्योंकि वो महाराष्ट्र से रहीं.
द्रौपदी मुर्मू भी झारखंड की राज्यपाल रह चुकी हैं - और झारखंड में आदिवासी वोट बहुत मायने रखता है. हेमंत सोरेन के लिए द्रौपदी मुर्मू को छोड़ कर यशवंत सिन्हा को सपोर्ट करना राजनीति में कुल्हाड़ी पर पैर मारने जैसा ही हो सकता है.
ऊपर से हेमंत सोरेन के द्रौपदी मुर्मू से व्यक्तिगत रिश्ते भी काफी गहरे बताये जाते हैं. पहले की तस्वीरें देखें तो हेमंत सोरेन को सिर झुकाये द्रौपदी मुर्मू को हाथ जोड़ कर प्रणाम करते तो देखा ही जा सकता है, बगल में उनकी पत्नी भी नजर आती हैं. ऐसा एक बार नहीं बल्कि कई बार हुआ है जब वो द्रौपदी मुर्मू का स्वागत करने पत्नी के साथ पहुंचे हैं या फिर साथ ही मिले हैं.
यशवंत सिन्हा के एक पुराने सहयोगी और झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने भी यशवंत सिन्हा को बीते दिनों की याद दिलाते हुए द्रौपदी मुर्मू का सपोर्ट करने की सलाह दी है. बाबूलाल मरांडी के ऐसा करने के पीछे राजनीतिक वजह भले हो, लेकिन जैसे वो एक आदिवासी संथाल महिला को देश के सर्वोच्च पद हासिल करने में मददगार बनने को कह रहे हैं, वो बहुत गलत भी नहीं लगता. बालूलाल मरांडी फिलहाल झारखंड में बीजेपी विधायक दल के नेता हैं.
चयन के लिए अपने नाम वापसी की घोषणा के साथ देश को एक अच्छा संदेश दें। एक आदिवासी संताल महिला की संवैधानिक सर्वोच्चता, सम्पूर्ण आदिवासी समाज का ऐतिहासिक सम्मान है। आशा है आप राज्य व देश के सम्मान के लिए यह त्याग और समर्पण देकर एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करेंगे।२/२
— Babulal Marandi (@yourBabulal) June 22, 2022
मुर्मू को मिल रहा बीजेपी से इतर सपोर्ट: NDA के बाहर भी ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और आंध्र प्रदेश के सीएम जगनमोहन रेड्डी खुल कर एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का सपोर्ट कर रहे हैं - अब तो ये गिनने की भी जरूरत नहीं लगती कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के पास वोटों में कैसा फासला लग रहा है.
अभी महाराष्ट्र की राजनीति में जो कुछ चल रहा है, राष्ट्रपति चुनाव में बागी विधायकों का वोट भी तो द्रौपदी मुर्मू के हिस्से में जाना पक्का हो ही गया है - भले ही कोई चमत्कार हो और शरद पवार का राजनीतिक अनुभव उद्धव ठाकरे के खिलाफ तख्तापलट का प्रयास नाकाम कर दे. तब भी द्रौपदी मुर्मू को महाराष्ट्र से मिलने वाले संभावित वोटों के नंबर पर असर नहीं डालने वाला है.
ये ठीक है कि बीजेपी विरोध के नाम पर आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने विपक्षी खेमे में अलग थलग पड़े होने के बावजूद मीरा कुमार का ही सपोर्ट किया था, लेकिन पंजाब में सरकार बनाने और जय श्रीराम की राजनीतिक राह पर तेजी से आगे बढ़ने के बाद, लगता तो नहीं कि वो द्रौपदी मुर्मू का विरोध करने का साहस जुटा पाएंगे.
आखिर गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनावों में आदिवासियों से वोट मांगते वक्त अरविंद केजरीवाल के पास कहने को क्या बचेगा, अगर यशवंत सिन्हा को वोट देने का फैसला किये तो - और हां, आने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के सामने भी ये चुनौती आएगी ही.
विपक्ष में कितने लोग बचे हैं: देखना ये है कि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के पक्ष में विपक्ष कितना एकजुट रह पाता है?
निश्चित तौर पर अभी तेलंगाना के राष्ट्रपति के. चंद्रशेखर राव बीजेपी के विरोध में राष्ट्रीय राजनीति में खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अरविंद केजरीवाल की ही तरह वो विपक्ष के साथ भी तो नहीं हैं - और पंजाब में दोनों नेताओं के बीच जिस तरह की जुगलबंदी देखने को मिली है, लगता तो यही है कि केसीआर भी केजरीवाल जैसा ही फैसला ले सकते हैं.
विपक्ष की तरफ से केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी को मन से चुनौती देने वाली पार्टियों में तो कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ही हैं, जिस तरीके से महाराष्ट्र में राजनीतिक लहरें देखी जा रही हैं - और जिस तरह के बयान संजय राउत की तरफ से आ रहे हैं कि उद्धव ठाकरे महाविकास आघाड़ी छोड़ने को भी तैयार हैं, बशर्ते शिवसेना विधायक लौट कर उनसे बात करने को राजी हों.
ऐसी स्थिति में तो सिर्फ कांग्रेस और एनसीपी ही यशवंत सिन्हा के वोटर बने रह पाएंगे - और जिस तरह से हाल के महाराष्ट्र विधान परिषद चुनाव में क्रॉस वोटिंग देखी गयी है, अगर राष्ट्रपति चुनाव में भी वैसा ही माहौल बन जाये तो किसी को आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये.
रही बात बचे हुए विपक्षी दलों की तो तमिलनाडु के डीएमके नेता एमके स्टालिन काफी दिनों से आंख मूंद कर राहुल गांधी के साथ खड़े नजर आये हैं. हां, बात जब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की आती है तो स्टालिन जरूर तमिल राजनीति के पक्ष में खड़े पाये जाते हैं. एजी पेरारिवलन की रिहाई के बाद जिस तरह से गले मिले और भाई बताया, सबने देखा ही.
जैसे समाजवादी पार्टी को बीजेपी विरोध की राजनीति में खड़े रहना है, वैसे ही बिहार के राष्ट्रीय जनता दल के स्टैंड की भी मजबूरी है. समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव वैसे भी फिलहाल ममता बनर्जी के साथ ही खड़े पाये जाते हैं, जबकि आरजेडी नेता लालू यादव और तेजस्वी यादव, कन्हैया कुमार के नाम पर तकरार के बावजूद अब तक औपचारिक तौर पर अलग नहीं हुए हैं.
यशवंत सिन्हा के बैठ जाने से क्या होगा?
मुद्दे की बात तो ये है कि जब यशवंत सिन्हा के चुनाव मैदान में डटे रहने से ही कोई खास असर नहीं पड़ने वाला, तो भला बैठ जाने से क्या फर्क पड़ेगा?
अब तो आंकड़े भी यशवंत सिन्हा के पक्ष में नहीं रह गये हैं. द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार घोषित करने से पहले माना जा सकता था कि बीजेपी के पास 50 फीसदी वोट नहीं हैं, लेकिन अब वो बात तो बिलकुल भी नहीं रह गयी है.
द्रौपदी मुर्मू का विरोध वापस लेकर यशवंत सिन्हा पूरे विपक्ष की तरफ से आदिवासी वोटर को एक मैसेज तो दे ही सकते हैं. जिस आदिवासी वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है, यशवंत सिन्हा के पीछे हट जाने के बाद वो मामला एकतरफा तो नहीं ही रह पाएगा.
ये तो साफ है कि जैसे बीजेपी रामनाथ कोविंद का नाम लेकर दलित समाज से राष्ट्रपति बनाने का श्रेय लेती रही, बिलकुल वैसे ही अब आदिवासी समाज के बीच खड़े होकर समर्थन मांगेगी - लेकिन यशवंत सिन्हा के कदम पीछे खींच लेने के बाद विपक्ष के पास भी तो ये कहने को हो जाएगा कि द्रौपदी मुर्मू का सम्मान तो किया ही गया है.
84 साल के यशवंत सिन्हा कहते फिर रहे हैं, 'देश दोराहे पर खड़ा है... ये देश के लिए एक अहम लड़ाई है, राजनीति से इसका लेनादेना नहीं है... ये लोकतंत्र बचाने की लड़ाई है.'
आगे ये कहने से यशवंत सिन्हा को कौन रोक सकेगा कि लड़ाई तो वो अपनी जारी रखे हुए हैं, लेकिन द्रौपदी मुर्मू के सम्मान में वो रोड़ा नहीं बने. एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनने में बाधा पहुंचाने की जगह मददगार ही बने.
यशवंत सिन्हा कोई कैप्टन लक्ष्मी सहगल तो हैं नहीं. वैचारिक तौर पर सहमति के चलते कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने तब एनडीए उम्मीदवार एपीजे अब्दुल कलाम का राष्ट्रपति चुनाव में विरोध किया था. वैचारिक तौर पर तो यशवंत सिन्हा को बीजेपी से कोई दिक्कत तो है नहीं.
यशवंत सिन्हा अगर 24 साल तक प्रशासनिक सेवा में रहे हैं तो 21 साल बीजेपी में ही राजनीति किये हैं - और यशवंत सिन्हा सिर्फ मोदी-शाह के खिलाफ हैं, संघ या बीजेपी की विचारधारा के विरुद्ध तो बिलकुल नहीं.
यशवंत सिन्हा के लिए चुनाव लड़ने से ज्यादा जरूरी है कि वो विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश करें. जिस तरह से बीजेपी के सामने विपक्ष ढेर होता जा रहा है - शरद पवार के साथ मिल कर यशवंत सिन्हा चाहें तो 2024 के लिए नये सिरे से कोशिश कर सकते हैं.
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