येदियुरप्पा का इस्तीफा कर्नाटक में बीजेपी की आपराधिक करतूत का कबूलनामा है
येदियुरप्पा के पास वाकई नंबर होते तो पहले दिन से ही होते. बाद में ये कहां से आते सबको मालूम है. 15 दिन में तो बहुतों के अच्छे दिन आ सकते थे. भला हो सुप्रीम कोर्ट का जो बीजेपी के आपराधिक करतूतों और येदियुरप्पा के कबूलनामे का लाइव टेलीकास्ट करा दिया.
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कोई डंके की चोट पर चुनाव नतीजों से पहले ही शपथग्रहण की तारीख का ऐलान कर दे. बहुमत के आंकड़े से पीछे रह जाने के बावजूद सरकार बना ले. विश्वासमत हासिल करने के लिए भी 15 दिनों का वक्त सुनिश्चित करा ले - ये सब यूं ही नहीं होता.
क्या येदियुरप्पा ने ये सब अकेले प्लान किया था? और अगर ऐसा नहीं था तो हर मोर्चे पर अकेले क्यों नजर आ रहे थे?
ढाई दिन के मुख्यमंत्री
विधान सौध में येदियुरप्पा बोलने के लिए खड़े तो हुए लेकिन हाव-भाव और शब्द आपस में तालमेल नहीं बना पा रहे थे. भाषण शुरू करने के कुछ ही सेकंड बाद जैसे ही वो फ्लैशबैक में जाते दिखे, साफ हो चुका था कि येदियुरप्पा चूक गये हैं.
याद रहेंगे ये ढाई दिन!
येदियुरप्पा के शपथग्रहण के डेढ़ घंटे बाद जब सुप्रीम कोर्ट के 24 घंटे शुरू हुए तभी से अनेक सवाल उठने लगे थे - क्या येदियुरप्पा बहुमत हासिल कर पाएंगे? बहुमत साबित भी कर दिये तो क्या कार्यकाल पूरा कर पाएंगे?
ये येदियुरप्पा की तीसरी पारी रही - और ये सबसे छोटी साबित हुई. बहुत ही छोटी पारी. लेकिन यूपी के जगदम्बिका पाल से छोटी नहीं. पहला सवाल ये है कि क्या येदियुरप्पा कर्नाटक में बीजेपी की सरकार बनाने की सारी चालें अकेले चल रहे थे?
ये सवाल इसलिए भी उठ रहा है कि क्योंकि येदियुरप्पा के शपथग्रहण के मौके पर न तो बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पहुंचे. न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और न ही किसी राज्य का कोई मुख्यमंत्री.
दूसरा सवाल ये है कि अगर येदियुरप्पा ये सब अकेले प्लान नहीं कर रहे थे तो 15 मई को नतीजे आने के दिन को छोड़ कर बीजेपी नेतृत्व पर्दे के पीछे क्यों चला गया? नतीजे आने के बाद तो प्रधानमंत्री मोदी और शाह बड़े ताव से कार्यकर्ताओं को जीत की शाबाशी और लोगों को शुक्रिया दे रहे थे. बाद में या तो खुद येदियुरप्पा मोर्चे पर दिखे या फिर कर्नाटक बीजेपी के प्रभारी प्रकाश जावड़ेकर.
यहां तक कि चुनावों में भी येदियुरप्पा को सिर्फ एक रैली में प्रधानमंत्री मोदी के साथ मंच शेयर करते देखा गया. खुद येदियुरप्पा ने ही बताया था कि अमित शाह ने उन्हें अपनी रैलियों का प्लान खुद करने के लिए कहा है.
जिस वक्त का ये वाकया है उसके बाद हफ्ते भर येदियुरप्पा ने कई मीडिया संस्थाओं को इंटरव्यू दिये और सभी में एक ही बात हाइलाइट हो रही थी - रेड्डी बंधुओं की एंट्री पर मुहर किसी और ने नहीं बल्कि खुद अमित शाह ने लगायी थी.
क्या सारी बातें एक दूसरे से आपस में जुड़ी हुई हैं? क्या नेतृत्व ने येदियुरप्पा को शुरू से ही बिलकुल अकेला छोड़ दिया था? क्या येदियुरप्पा गुस्से में सब अकेले कर रहे थे?
...और भाग खड़े हुए येदियुरप्पा
बहुत हो हल्ला नहीं होता तो निश्चित तौर पर येदियुरप्पा को विश्वासमत हासिल करने के लिए समुचित समय मिला होता. एक तरफ तो उन्हें 15 दिन का मौका मिला और दूसरी तरह कोर्ट की ओर से जो मोहलत मिली वो 24 घंटे से कुछ ही ज्यादा रही होगी.
शपथग्रहण के बाद येदियुरप्पा जब मीडिया से मुखातिब हुए तो उनका यही कहना था कि वो 15 दिन का इंतजार नहीं करेंगे - और जल्द से जल्द विश्वासमत हासिल करने की कोशिश करेंगे. वैसे येदियुरप्पा ने कोशिशों में कोई कमी भी नहीं की. असली हों या नकली, पर कांग्रेस ने जो दो ऑडियो शेयर किये हैं उससे येदियुरप्पा की कोशिशों का अंदाजा सहज तौर पर लगाया जा सकता है. एक ऑडियो में येदियुरप्पा एक विधायक को मंत्री बनाने का वादा कर रहे हैं और दूसरे में उनके बेटे विजयेंद्र एक विधायक की पत्नी को फोन कर समझा रहे हैं और 'सौ फीसदी' मदद का भरोसा दिला रहे हैं.
सदन में अपने भाषण में येदियुरप्पा ने कहा भी, "मैंने अपना कर्तव्य का पालन किया. जहां-जहां जिसकी जो जरूरत पड़ी है उसे दूर करने का प्रयास किया, कांग्रेस सरकार होते हुए भी मोदी जी राज्य के विकास के लिए कभी पीछे नहीं हटे मोदी जी की सरकार और मेरी सरकार मिलकर कर्नाटक को बेहतर बनाते."
येदियुरप्पा ने कर्नाटक के किसानों के साथ, दलितों के साथ हमेशा खड़े रहने की कसमें दोहरायी और लड़ते रहने का भरोसा दिलाया. ये भी समझाया कि किस तरह कांग्रेस और कुमारस्वामी ने उन्हें इस्तीफा देने को मजबूर कर कर्नाटक को धोखा दिया है, "लोकतंत्र में जनता ही मालिक है मैं राज्य की जनता का आभारी हूं, कांग्रेस के लोगों की चाल ने राज्य और देश को काफी पीछे किया है."
आखिर में येदियुरप्पा ने लोगों को अपनी तरफ से पक्का यकीन भी दिलाया, "...फिर जीत कर आऊंगा. मैं राज्य को सबसे बेहतर बनाऊंगा..." येदियुरप्पा ये कह कर खुद को यकीन दिला रहे थे या लिंगायत समुदाय को या फिर कर्नाटक के सभी लोगों को ये तो वही जानें. मुमकिन है इस दाव पर गच्चा खा जाने के बाद येदियुरप्पा किसी नयी रणनीति पर काम करने लगे हों.
येदियुरप्पा ने भले ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण का अनुसरण करने की कोशिश की हो, सच तो ये है कि वो ठीक से अनुकरण भी नहीं कर पाये.
वैसे येदियुरप्पा ने जो कुछ भी किया - और जो कुछ भी कहा उसे कुछ और नहीं कहना ठीक नहीं होगा - क्योंकि वो किसी इकबाल-ए-जुर्म जैसा ही है. वो भले ही जनता की अदालत में बयान देते फिरें कि उन्हें ये कबूलनामा कांग्रेस रूपी पुलिस के दबाव में करना पड़ा. कांग्रेस और जेडीएस के शोर की यातना बर्दाश्त न होने के चलते किया. या फिर कोई रास्ता न बचे होने के कारण गुनाह कबूल कर लेने का बेस्ट आइडिया ऊपर से मिला था और अपने सरदार के फरमान पर उसे भी खामोशी से कबूल कर लिया. पर्दे के पीछे जो भी हो येदियुरप्पा का इस्तीफा कर्नाटक में बीजेपी की आपराधिक करतूत का कबूलनामा है - वो माने या न माने. आखिर इस बात की आजादी भी तो लोकतंत्र ही देता है.
येदियुरप्पा को भले लगता हो, 'मेरी कश्ती वहां डूबी जहां पानी बहुत कम था,' लेकिन ये हकीकत से कोसों दूरे है. वो किराये की कश्ती थी जो पानी नहीं बल्कि दलदल में थी. येदियुरप्पा दलदल को समझ नहीं सके या फिर समझना नहीं चाहते थे.
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