बीजेपी के लिए योगी शिवसेना जैसे सियासी हमसफर भर हैं!
योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) का बीजेपी के साथ शुरू से शिवसेना (Shiv Sena) की तरह टकराव पूर्ण रिश्ता रहा है - और जनाधार के मामले में कोई कल्याण सिंह जैसे अचीवर भी नहीं हैं - लब्बोलुआब ये है कि बीजेपी यूपी में निर्विकल्प भी नहीं है.
-
Total Shares
योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) फिलहाल बीजेपी नेतृत्व के लिए ही नहीं, बल्कि RSS के लिए भी वैसे ही ज्वलंत मुद्दा बने हुए हैं जैसे पश्चिम बंगाल की राजनीति और कोविड 19 संकट से पैदा हुई चुनौतियां - जाहिर है एक तरह की चुनौतियों से निबटने का तरीका भी मिलता जुलता ही इस्तेमाल होता है.
आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले और बीजेपी के संगठन महासचिव बीएल संतोष के लखनऊ पहुंच कर जुटाये गये फीडबैक के आधार पर अब संघ प्रमुख मोहन भागवत को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से गहन विचार विमर्श के बाद आखिरी फैसला लेना है.
फैसला भी जो लेना है वो अंतरिम फैसला ही होगा क्योंकि आखिरी फैसले का ये सही वक्त नहीं है, सिर पर विधानसभा चुनाव जो मंडरा रहा है. लगता तो ऐसा है जैसे हालात की मजबूरी को देखते हुए मिलजुल कर किसी ऐसे नतीजे पर पहुंचना है, जो सभी को मंजूर हो. कम से कम फिलहाल तो ऐसी स्थिति हो ही. हो सकता है तात्कालिक तौर पर कोई अंतरिम फैसला लेने में मन मसोस कर समझौते भी करने पड़े और उसमें भी संघ और बीजेपी नेतृत्व को योगी आदित्यनाथ की नाराजगी से बचने की कोशिश हो. करीब करीब वैसे ही जैसे महाराष्ट्र चुनाव के बाद संघ की तरफ से शिवसेना (Shiv Sena) से सीधा टकराव टालने की हर संभव कोशिश हुई.
अगर ये बातें कोरोना संकट के पहले दौर में हो रही होतीं तो योगी आदित्यनाथ से कुछ कहने से पहले दो बार सोचना भी पड़ता. ये तो कोविड 19 की दूसरी लहर में बदइंतजामी, अस्पताल बेड और ऑक्सीजन की कमी को लेकर मचे हाहाकार ने योगी आदित्यनाथ को थोड़ा बचाव की मुद्रा में ला दिया है. विपक्ष की तो बीजेपी नेतृत्व को शायद ही परवाह होती और पार्टी के भीतर भी असंतोष की आवाजें वैसे ही दबा दी जातीं, जैसे कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा के मामले में बीते दिनों कई बार हो चुका है, लेकिन लोगों के भीतर उपजे गुस्से और पंचायत चुनाव के नतीजों के जरिये मिले सांकेतिक सबूत ने संघ और बीजेपी नेतृत्व को भी सवाल पूछने का मौका दे दिया है.
ये बातें भी शायद उतनी महत्वपूर्ण नहीं होतीं, अगर बीजेपी एमएलसी अरविंद शर्मा को यूपी में पैराशूट एंट्री नहीं दी गयी होती - और उनको सरकार में कोई बड़ा रोल देने की बातें नहीं होतीं.
योगी आदित्यनाथ को तो अरविंद शर्मा को लेकर शक शुबहे उनके वीआरएस लेने की जानकारी मिलते ही हो गयी होगी, लेकिन वाराणसी मॉडल को लेकर उनकी कामयाबी के किस्से को जोर शोर से प्रचारित किये जाने के बाद तो वो यकीन में बदल चुका होगा. जिस तरीके से योगी के एतछत्र राज में अरविंद शर्मा की बाबूगिरी का हस्तक्षेप अभी से बढ़ता जा रहा है - आगे चल कर क्या होगा कोई भी अंदाजा आसानी से लगा सकता है.
मोदी-भागवत और अन्य की बेहद अहम मीटिंग में भी, मान कर चलना चाहिये, महत्वपूर्ण सवाल तो ये ही होंगे - क्या उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ का कोई विकल्प नहीं है और नहीं है तो क्यों नहीं है? वैसे योगी आदित्यनाथ के मन में भी कल्याण सिंह (Kalyan Singh) वाला सबक तो याद होगा ही.
जैसे शिवसेना, वैसे योगी आदित्यनाथ!
योगी आदित्यनाथ की राजनीति कभी भी वैसी नहीं रही है जैसी पार्टी के लिए भारतीय जनता पार्टी के बाकी नेताओं की रही है. केंद्र की सत्ता में दोबारा बीजेपी के पहुंचने के बाद देश के सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर वे लोग विराजमान हैं जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से बीजेपी में आये हैं.
मान्यता यही रही है कि बीजेपी के शासन में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वही बैठने योग्य होता है जिसकी संघ की पृष्ठभूमि रही हो. असम में हिमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाये जाने के बाद ये धारणा भी थोड़ी ढीली पड़ती नजर आ रही है - लेकिन अगर उस पैमाने के हिसाब से देखा जाये तो योगी आदित्यनाथ भी दायरे से बाहर चले जाएंगे.
योगी आदित्यनाथ का संघ के साथ बराबरी का और दोस्ताना रिश्ता रहा है, लेकिन संघ को अनुसरण करने के पैमानों में तौला जाये तो वो बाहर हो जाते हैं. योगी आदित्यनाथ शुरू से ही बीजेपी के टिकट पर लोक सभा लगातार पांच बार पहुंचे. उससे पहवे 1991 में योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवैद्यनाथ बीजेपी के टिकट पर ही सांसद बने थे - और बाद में 1998 से 2014 तक के आम चुनावों में योगी आदित्यनाथ भी बीजेपी की तरफ से ही संसद पहुंचते रहे. 2017 में यूपी का मुख्यमंत्री बन जाने के बाद संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिये थे.
मोदी-शाह से टकराव से पहले योगी आदित्यनाथ को एक बार कल्याण सिंह को मिला सबक भी याद कर लेना चाहिये
संघ को योगी आदित्यनाथ के पसंद आने की वजह उनका गोरक्षपीठ का महंत होना है, जिसकी नींव बरसों पहले पड़ चुकी थी. देश को आजादी मिलने के करीब दो साल बाद ही, महंत दिग्विजय नाथ ने हिंदुओं के लिए बाबरी मस्जिद के खिलाफ अयोध्या आंदोलन का नेतृत्व किया था. हिंदू महासभा के बैनर तले राजनीति करने वाले दिग्विजय नाथ ने 1967 में निर्दलीय संसद में एंट्री पायी और उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में उनके शिष्य महंत अवैद्यनाथ भी निर्दलीय ही लोक सभा सदस्य चुने गये. 1991 में बीजेपी सांसद बनने से पहले 1989 में भी महंत अवैद्यनाथ हिंदु महासभा की ओर से चुनाव जीते थे.
80 के दशक में जब संघ और बीजेपी भी अयोध्या आंदोलन से जुड़ गये तो महंत अवैद्यनाथ के साथ मिलकर हिंदुत्व की राजनीति आगे बढ़ी और 90 का दशक आते आते महंत अवैद्यनाथ ने भी बीजेपी ज्वाइन कर लिया.
विरासत में मिली राजनीति और गोरक्षपीठ के उत्तराधिकारी होने के बाद योगी आदित्यनाथ बीजेपी के टिकट पर संसद तो पहुंचे लेकिन पार्टी में कभी कोई ओहदा नहीं संभाले - इसकी असल वजह तो खुद योगी आदित्यनाथ के अलावा संघ और बीजेपी नेतृत्व ही जानता होगा.
लेकिन संसद पहुंचने के बाद ही योगी आदित्यनाथ ने अपने स्तर पर हिंदू युवा वाहिनी की स्थापना की - हिंदू युवा वाहिनी और संघ का एजेंडा जरूर एक जैसा या एक दूसरे का पसंदीदा रहे, लेकिन योगी आदित्यनाथ का संगठन अपने स्तर पर अलग काम करने लगा. धीरे धीरे हिंदू युवा वाहिनी हिंदुत्व की राजनीति में एक प्रेशर ग्रुप के तौर पर खड़ा हो गया.
और तभी से योगी आदित्यनाथ का संघ से मन ही मन और बीजेपी के साथ खुल कर टकराव शुरू हो गया. हिंदू युवा वाहिनी के गठन के बाद हुए पहले ही विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ का अड़ियल रवैया सामने आ गया था. 2002 विधानसभा चुनाव में राजनाथ सिंह सरकार में मंत्री रह चुके शिवप्रताप शुक्ला को उम्मीदवार न बनाने की बाद जब बीजेपी ने नहीं मानी तो योगी आदित्यनाथ ने बीजेपी सांसद रहते हुए भी अखिल भारतीय महासभा से डॉक्टर राधा मोहनदास अग्रवाल को खड़ा कर दिया - और पूरी ताकत से चुनाव प्रचार करते हुए ठीक ठाक अंतर से बीजेपी उम्मीदवार को हरा भी दिया.
2017 में मुख्यमंत्री बनने से पहले तक ऐसे कई मौके आये जब संघ और बीजेपी योगी आदित्यनाथ को भी वैसे ही बर्दाश्त करते रहे जैसे मुख्यमंत्री बनने से पहले उद्धव ठाकरे को. गौर से देखें तो योगी आदित्यनाथ बीजेपी सांसद होते हुए भी शिवसेना की तरह गठबंधन पार्टनर जैसा ही लगातार व्यवहार किया. संघ और बीजेपी की तरफ से सारी चीजों को नजरअंदाज करने की वजह दोनों का कॉमन एजेंडा और पॉलिटिकल लाइन रही - अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण और कट्टर हिंदुत्व की राजनीति.
महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूटने से पहले जब पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस मोहन भागवत से मिलने गये थे तो संघ प्रमुख ने एक बड़ी ही महत्वपूर्ण बात कही थी - वो जो चाहें करें, अपनी तरफ से कोई ऐसा कदम नहीं उठाया जाना चाहिये जिसका सही संदेश न जाये. आखिर इतना धैर्य दिखाने के पीछे हिंदुत्व की राजनीति और कॉमन एजेंडा नहीं तो और क्या था. हालांकि, बाद में रातों रात तैयारी कर देवेंद्र फडणवीस ने एनसीपी नेता अजीत पवार के साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ली - और 72 घंटे में भी भाग खड़े हुए.
जिस तरह से महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार में माहौल तनावपूर्ण बना हुआ है, बीजेपी के ऑपरेशन लोटस को अंजाम देते शायद ही देर लगे, लेकिन ये कॉमन एजेंडा और एक जैसी पॉलिटिकल लाइन ही है जो बीजेपी को आगे बढ़ने से संघ नेतृत्व रोक रहा होगा.
योगी अचीवर भी नहीं हैं, जैसे कल्याण सिंह
एक आम धारणा बन चुकी है कि उत्तर प्रदेश में बीजपी के पास योगी आदित्यनाथ जैसा कोई नेता नहीं है, लेकिन क्या वास्तविकता भी यही है?
जिन खूबियों की वजह से महंत अवैद्यनाथ के बाद गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ लगातार संसद पहु्ंचते रहे, करीब करीब उन वजहों से ही वो यूपी जैसे राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी बैठने में कामयाब रहे - लेकिन उसके बाद योगी आदित्यनाथ की कोई उल्लेखनीय उपलब्धि भी है क्या? कोरोना वायरस की पहली लहर के दौरान प्रवासी मजदूरों और कोटा में फंसे यूपी के छात्रों को घर पहुंचाने का इंतजाम करने के अलावा?
2019 के आम चुनाव से पहले मोहन भागवत के बयान के बाद उद्धव ठाकरे जैसे नेता भी अयोध्या में मंदिर निर्माण के मुद्दे को लेकर मंदिर समर्थकों की आवाज बनने को लेकर कहा करते रहे - अभी नहीं तो कब. संत समाज का भी यही सवाल था. अगर यूपी में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री रहते और नरेंद्र मोदी के देश का प्रधानमंत्री रहते अयोध्या में राम मंदिर निर्माण नहीं हुआ तो कब होगा?
अब तो मंदिर निर्माण होने भी लगा है, लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर उसमें योगी आदित्यनाथ का अयोध्या में दीपावली मनाने से ज्यादा क्या है? उपलब्धि के नाम पर अगर सूची में दूसरी चीज रखी जाये तो फैजाबाद का नाम बदल कर अयोध्या किया जाना हो सकता है. ऐसे काम तो योगी आदित्यनाथ गोरखपुर में बरसों से करते आये हैं. कागजों में नाम भले न बदले, मन में तो बदल ही लेते रहे हैं.
लेकिन क्या मंदिर आंदोलन को लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रियों की बात हो तो योगी आदित्यनाथ की कल्याण सिंह से तुलना की जा सकती है? आज जिस एसटीएफ के बूते योगी आदित्यनाथ अपराधियों को सरेआम ठोक देने के लिए पुलिसवालों की पीठ थपथपाते रहते हैं - वो STF भी कल्याण सिंह के शासन की ही देन है. आईपीएस अफसर अजयराज शर्मा के नेतृत्व में तभी यूपी में स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया गया था - और गोरखपुर का ही श्रीप्रकाश शुक्ला एसटीएफ का पहला बड़ा शिकार बना था. बल्कि ये कहना ठीक होगा कि यूपी में काननू व्यवस्था के लिए चैलेंज बन चुके श्रीप्रकाश शुक्ला के लिए ही एसटीएफ की स्थापना हुई थी.
अब अयोध्या का विवादित ढांचा गिराये जाने के मामले में फैसला भी आ चुका है और बरी किये गये आरोपियों में कल्याण सिंह भी शामिल हैं, लेकिन राम मंदिर आंदोलन के चरम पर रहने के दौरान मंदिर समर्थकों के बीच जितने तरह कल्याण सिंह लोकप्रिय रहे - क्या योगी आदित्यनाथ भी वैसे ही हैं?
हो सकता है - निजी तौर पर योगी आदित्यनाथ देश में इतने लोकप्रिय हैं कि सर्वे में भी प्रधानमंत्री पद के लिए भी नरेंद्र मोदी के बाद योगी आदित्यनाथ का ही नाम आता है. मूड ऑफ द नेशन सर्वे में योगी आदित्यनाथ ने इस मामले में अमित शाह से भी आगे निकल गये थे.
गोरखपुर और आसपास के इलाकों में योगी आदित्यनाथ का कई सीटों पर सीधा प्रभाव माना जाता है, हालांकि, ये उनकी हिंदू युवा वाहिनी के एक्टिव मोड में होने के वक्त की बात है. अभी तो हिंदू युवा वाहिनी कुछ विवादों की वजह से निष्क्रिय लगती है.
लोकप्रियता के साथ साथ जनाधार वाले नेता के तौर पर योगी आदित्यनाथ और कल्याण सिंह की तुलना की जाये तो - कल्याण सिंह की अपने लोध समुदाय में पूरी पकड़ रही, लेकिन उसके इतर भी वो अपने जमाने में बेहद लोकप्रिय रहे.
हिंदुत्व की राजनीति से थोड़ा हट कर देखें तो योगी आदित्यनाथ पर घोर जातिवादी होने के आरोप लगते रहे हैं - और संन्यासी होने और नाथ संप्रदाय के महंत होने को अलग रख कर देखें तो उनकी अपनी जाति के अलावा बाकी तबका वैसे नहीं पसंद करता, लेकिन कल्याण सिंह के साथ ऐसा नहीं रहा.
लेकिन कल्याण सिंह जैसा नेता जिसने मस्जिद गिर जाने के बाद इस्तीफा देते हुए डंके की चोट पर जिम्मेदारी लिया और कहा कि लापरवाही के लिए कोई भी अफसर दोषी नहीं है - पूरी जिम्मेदारी मैं लेता हूं.
योगी आदित्यनाथ के खाते में अब तक इतनी बड़ी उपलब्धि न तो दर्ज ही हुई है - और न ही कभी ऐसा बड़ा दिल दिखाने का मौका ही मिला है. योगी आदित्यनाथ बीजेपी के स्टार प्रचारक हैं. यूपी तो उनका अपना ही है, हिमाचल प्रदेश से लेकर त्रिपुरा और गुजरात से लेकर पश्चिम बंगाल तक - यहां तक कि केरल जैसे राज्यों में भी योगी आदित्यनाथ की चुनावी रैलियों में भीड़ वैसी ही रहती है, लेकिन एक बड़ा सच ये भी है कि योगी आदित्यनाथ भी तभी सफल हो पाते हैं जब ब्रांड मोदी चलता है. 2018 के विधानसभा चुनाव में योगी आदित्यनाथ का हनुमान को दलित समुदाय से जोड़ने की थ्योरी भी काम नहीं आयी.
कल्याण सिंह संघ के भी चहेते थे और बीजेपी के अंदर भी काफी मजबूत हुआ करते थे, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी से टकराने का क्या अंजाम हुआ सबसे देखा ही है. अगर योगी आदित्यनाथ के मन में भी कोई गलतफहमी है तो ये तो नहीं ही भूलना चाहिये कि वाजपेयी से कई कदम आगे मोदी-शाह खड़े भी हैं और सोचते भी हैं. नयी भारतीय जनता पार्टी भी तब की बीजेपी नहीं है - और ये तो बिलकुल नहीं भूलना चाहिये कि संघ ही मोदी भी बनाता है और आडवाणी भी!
यूपी के पंचायत चुनाव के नतीजे, खास कर अयोध्या-मथुरा-काशी के, बता रहे हैं कि संघ के साथ साथ मोदी-शाह की भी फिक्र वाजिब है. हालात की मजबूरी है कि संघ और बीजेपी योगी आदित्यनाथ को नजरअंदाज तो नहीं करना चाहेंगे, लेकिन उनकी कीमत पर अरविंद शर्मा जैसे काबिल लोगों को भी वक्त की मांग हो तो जिम्मेदारी सौंपने से नहीं हिचकेंगे - आखिर अरविंद शर्मा मनोहर लाल खट्टर और बिप्लब देब से तो बेहद कम समय में खुद को बेहतर ही साबित कर चुके हैं - अब अगर योगी आदित्यनाथ को भी कल्याण सिंह से कोई सबक नहीं मिलता तो नये मिजाज वाली बीजेपी में किसी के लिए आडवाणी बन जाने में देर नहीं लगने वाली है.
इन्हें भी पढ़ें :
योगी के आगे क्या BJP में वाकई संघ-मोदी-शाह की भी नहीं चल रही?
योगी को हटाने की चर्चा उनके सिर साढ़े साती चढ़ा भी सकती है, और उतार भी सकती है
जैसे बीजेपी नेतृत्व को खटकते हैं योगी, वैसे ही कांग्रेस नेतृत्व के लिए हैं कैप्टन!
आपकी राय