योगी को बीजेपी संसदीय बोर्ड में न शामिल किया जाना मोदी-शाह का बड़ा मैसेज है
क्या योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) को बीजेपी के संसदीय बोर्ड (BJP Parliamentry Board) में शामिल न किया जाना वैसा ही है जैसा 2014 में पार्टी के सत्ता में आने पर भी कैबिनेट से दूर रखा जाना - तो क्या मान लेना चाहिये कि योगी अब भी मोदी-शाह (Modi Shah) को फूटी आंख नहीं सुहा रहे हैं?
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योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) उत्तर प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं, लेकिन दिल्ली का भरोसा अब तक नहीं जीत पाये - बीजेपी संसदीय बोर्ड (BJP Parliamentry Board) में योगी आदित्यनाथ को एंट्री न दिया जाना और उसके पीछे सामने आ रही दलील तो यही कहती है. योगी आदित्यनाथ को संसदीय बोर्ड में शामिल न किये जाने को लेकर तर्क दिया जा रहा है कि इस बार बोर्ड में किसी भी मुख्यमंत्री को जगह नहीं दी गई है.
13 दिन वाली वाजपेयी सरकार को छोड़ दें तो 1998 में जब एनडीए की सरकार बनी तो योगी आदित्यनाथ अभी लोक सभा पहुंचे ही थे, लेकिन 2014 में जब बीजेपी की अगुवाई में दूसरी बार एनडीए की सरकार बनी तो योगी आदित्यनाथ लगातार पांचवीं बार लोक सभा का चुनाव जीत चुके थे - तब भी योगी आदित्यनाथ को कैबिनेट के लायक नहीं समझा गया. वाजपेयी सरकार के दौरान तो बहुत सारे सीनियर बीजेपी नेता थे, लेकिन मोदी सरकार आते आते तो योगी आदित्यनाथ जैसे लगातार पांच बार संसद पहुंचने वाले कम ही सांसद रहे होंगे.
यहां तक कि तीन साल बाद भी जब 2017 में उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार बनाने जा रही थी, तब भी नेतृत्व के दिमाग में योगी आदित्यनाथ का कहीं नामोनिशान रहा हो, ऐसा तो बिलकुल नहीं लगा. फिर भी योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर ही ली - और डंके की चोट पर, अपनी शर्तों पर, मनमानी करते हुए सत्ता में वापसी करने में भी सफल रहे.
और एक बार फिर योगी आदित्यनाथ के साथ ऐसा ही हुआ है - बीजेपी संसदीय बोर्ड में शामिल न किया जाना, लगता तो ऐसा ही है. शिवराज सिंह चौहान का अपना पक्ष तो कमजोर हो ही चुका है, संसदीय बोर्ड से हटाये जाने के पीछे बड़ी वजह योगी आदित्यनाथ ही लगते हैं.
अगर शिवराज सिंह चौहान को बीजेपी संसदीय बोर्ड से नहीं हटाया जाता - और योगी आदित्यनाथ को शामिल नहीं किया जाता तो स्वाभाविक तौर पर सवाल खड़ा हो जाता. क्या ऐसा नहीं लगता कि योगी आदित्यनाथ को रोकने के लिए किसी की भी कुर्बानी दी जा सकती है?
ये तो ऐसा लगता है जैसे योगी आदित्यनाथ और बीजेपी न तो अब तक एक दूसरे को स्वीकार कर पाये हैं, न ही नजदीकी भविष्य में ऐसा करते प्रतीत हो रहे हैं. अब तक बीजेपी और योगी आदित्यनाथ एक गठबंधन सहयोगी की तरह एक दूसरे का साथ निभाते आ रहे हैं. तकनीकी तौर पर या कागजी तौर पर, जैसे भी समझा जाये योगी आदित्यनाथ बीजेपी के नेता तो हैं, लेकिन हर वक्त टकराव की स्थिति बनी रहती है.
वैसे भी बीजेपी शासित राज्यों में ऐसा कोई मुख्यमंत्री तो है नहीं जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पूर्व बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की बात को नजरअंदाज कर सके. यूपी विधानसभा चुनाव से पहले तो योगी आदित्यनाथ ने ऐसा ही किया था. मोदी के भरोसेमंद नौकरशाह अरविंद शर्मा को मंत्री बनाने से इनकार करके. हो सकता है, 2014 में मोदी कैबिनेट में शामिल न किये जाने के बदले के रूप में वो अपने कलेजे को शांत करने की कोशिश कर रहे हों.
योगी आदित्यनाथ जानते थे कि मोदी-शाह (Modi Shah) ऐसा कभी नहीं चाहेंगे कि यूपी जैसा राज्य बीजेपी के हाथ से निकल जाये. 2024 के आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए मोदी-शाह हर हाल में बीजेपी की सत्ता में वापसी के लिए जी जान लगाएंगे ही, योगी आदित्यनाथ कमजोर नस पकड़ चुके थे और हुआ भी वैसा ही. वो अपनी शर्तों पर कायम रहे, लेकिन जैसे ही नेतृत्व को मौका मिला योगी आदित्यनाथ की राह में रोड़ा खड़ा कर दिया.
हाल ही में आये इंडिया टुडे और सीवोटर के मूड ऑफ द नेशन सर्वे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में अमित शाह और योगी आदित्यनाथ को कड़ा मुकाबला करते पाया गया था. सर्वे में शामिल लोगों में से 25 फीसदी अमित शाह को मोदी के उत्तराधिकारी के तौर पर देखना चाहते हैं, जबकि योगी आदित्यनाथ को 24 फीसदी - क्या योगी आदित्यनाथ की बढ़ती लोकप्रियता को बीजेपी का मौजूदा नेतृत्व अपने वर्चस्व के आगे चुनौती मानने लगा है?
2013 में तो मोदी भी मुख्यमंत्री ही थे!
मार्च, 2013 में नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के संसदीय बोर्ड में शामिल किये जाने वाले अकेले मुख्यमंत्री थे - और शिवराज सिंह चौहान को भी करीब साल भर बाद ही बोर्ड में शामिल किया गया था, जिन्हें अभी अभी बाहर किया गया है.
क्या योगी आदित्यनाथ के साथ बीजेपी में तनातनी का नया दौर शुरू होने वाला है?
तब ये समझा गया था कि मोदी के त्वरित उभार को बैलेंस करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सलाह पर शिवराज सिंह चौहान को बोर्ड में लाया गया था. असल में पुराने दिग्गजों के पसंदीदा नेता के रूप में मोदी पर शिवराज को ही तरजीह मिलती थी - और एनडीए के सहयोगियों की भी ऐसी ही राय रही. ये मोदी से चिढ़ ही थी कि 2013 में ही नीतीश कुमार पहली बार एनडीए छोड़ दिये थे.
बीजेपी का संसदीय बोर्ड संगठन की सबसे ताकतवर संस्था होती है. एक ऐसी जगह जहां राज्यों में मुख्यमंत्री और विपक्ष का नेता तय करने से लेकर लोक सभा के लिए उम्मीदवारों के नाम पर भी मुहर लगना जरूरी होता है - हालांकि, मोदी-शाह के दबदबे की वजह से अब संसदीय बोर्ड की तुलना भी बीजेपी के मार्गदर्शक मंडल से की जाने लगी है.
सवाल ये है कि बीजेपी योगी आदित्यनाथ से देश भर में चुनाव प्रचार कराती है तो महत्वपूर्ण फैसलों में भागीदार क्यों नहीं बनाती?
कहीं बीजेपी नेतृत्व को ये डर तो नहीं है कि योगी आदित्यनाथ भी नितिन गडकरी की तरह बोर्ड में विपक्ष के नेता जैसा व्यवहार करने लगेंगे? बीजेपी के अध्यक्ष रह चुके नितिन गडकरी को पार्टी के संसदीय बोर्ड से हटाये जाने की वजह कई मुद्दों पर नेतृत्व से अलग उनके स्टैंड को वजह माना जा रहा है. हाल ही में राजनीति का मतलब समझाते हुए नितिन गडकरी ने कहा था कि अब राजनीति को सिर्फ सत्ता हासिल करने का जरिया बना दिया गया है. जाहिर है, नितिन गडकरी के निशाने पर मोदी-शाह ही रहे.
क्या बोर्ड नया मार्गदर्शक मंडल है: कागज पर तो संसदीय बोर्ड सबसे ताकतवर संस्था मानी जा रही है, लेकिन हकीकत अलग समझी जाने लगी है. अब तो ये समझा जाने लगा है कि जिस भी मुद्दे पर मोदी-शाह की मुहर लग जाती है, संसदीय बोर्ड उसे महज औपचारिक स्वरूप दे देता है.
बीजेपी नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी अपने एक ट्वीट में संसदीय बोर्ड में आये बदलाव को ऐसा ही कुछ बताने की कोशिश कर रहे हैं. स्वामी ने ट्विटर पर लिखा है, 'बीजेपी के शुरुआती दिनों में संगठन के पदों पर चुनाव के लिए संसदीय बोर्ड के चुनाव करायो जाते थे... क्योंकि ऐसा पार्टी का संविधान कहता है, लेकिन आज बीजेपी में कोई चुनाव नहीं होता... हर पद के लिए मोदी के अप्रूवल से सदस्यों को नॉमिनेट कर दिया जाता है.'
In early days of Janata Party and then BJP, we had party and parliamentary party elections to fill office bearers posts. Party Constitution requires it. Today in BJP there are no elections whatsoever ever. To every post is nominated a member with the approval of Modi.
— Subramanian Swamy (@Swamy39) August 18, 2022
योगी से नेतृत्व की नाराजगी की ताजा वजह
योगी आदित्यनाथ से मोदी-शाह की नाराजगी की ताजा वजह तो सुनील बंसल का उत्तर प्रदेश से हटाया जाना ही लगती है. ये तो सबको मालूम था कि सुनील बंसल को योगी आदित्यनाथ ने कभी पसंद नहीं किया - और दोनों के रिश्ते इसी वजह से हमेशा ही खराब रहे.
सुनील बंसल को हाल ही में पश्चिम बंगाल और तेलंगाना का प्रभारी बनाया गया है. ये दोनों ही बीजेपी की दिलचस्पी के हिसाब से बेहद महत्वपूर्ण राज्य हैं. तेलंगाना में जहां 2023 में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, पश्चिम बंगाल में 2024 में ज्यादा नहीं तो कम से कम 2019 जितनी सीटें जीतना तो बीजेपी नेतृत्व को सुनिश्चित करना ही है. सुनील बंसल के कंधों पर एक बार फिर ऐसी बड़ी जिम्मेदारी दी गयी है.
सुनील बंसल यूपी के प्रभारी रहे और समझा जाता है कि राजनीतिक मामलों में तो वो योगी आदित्यनाथ के समानांतर पावर सेंटर बने रहे. बीजेपी के सभी विधायक नियमित तौर पर सुनील बंसल के संपर्क में रहा करते थे.
और सबसे बड़ी बात दिल्ली और लखनऊ के बीच भी वो सूत्रधार थे. ऐसा समझा जाता है कि योगी आदित्यनाथ की वजह से ही सुनील बंसल को उत्तर प्रदेश से शिफ्ट करना पड़ा. डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और योगी आदित्यनाथ का रिश्ता भी जगजाहिर ही है - फिर भी सुनील बंसल को लेकर केशव मौर्य ने जो बात कही है वो बहुत महत्वपूर्ण है.
यूपी के डिप्टी सीएम केशव मौर्य ने बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव सुनील बंसल की तारीफ में जो कुछ कहा है, वो ध्यान से सुनने वाली बात है - ''यूपी में भाजपा को शून्य से शिखर तक ले जाने का श्रेय भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री सुनील बंसल को जाता है... अध्यक्ष तो मैं भी रहा हूं... मेरे समय हुए चुनाव में जीत का मुकुट भले सिर बंधा हो... मगर उस जीत का कोई सही अधिकारी है, तो वो सुनील बंसल ही हैं.''
क्या 2024 में योगी की नाराजगी भारी नहीं पड़ेगी
यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह चुनावी रैलियों में लोगों से मोदी के नाम पर ही वोट मांगा करते थे. अमित शाह लोगों से कहते कि वे 2024 में नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनाने के लिए योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री जरूर बनायें.
लोगों ने अमित शाह की बात मानी और योगी आदित्यनाथ को फिर से मुख्यमंत्री बना दिया - क्या योगी आदित्यनाथ की भूमिका अब खत्म हो गयी?
क्या बीजेपी नेतृत्व को योगी आदित्यनाथ के मन से सहयोग के बगैर ही 2024 में यूपी की 80 सीटों में से ज्यादातर पर जीत मिल जाएगी?
क्या योगी आदित्यनाथ की नाराजगी बीजेपी को 2024 में भारी नहीं पड़ेगी?
बीजेपी नेतृत्व के ताजा रुख से तो योगी आदित्यनाथ को भी लग रहा होगा कि 2024 के आम चुनाव में उम्मीदवारों के टिकट तय करते वक्त भी उनके साथ ऐसा ही व्यवहार हो सकता है - अगर ऐसा ही वास्तव में हुआ तो क्या नेतृत्व ने नतीजों की कल्पना की है?
बीजेपी नेतृत्व को योगी आदित्यनाथ को लेकर भविष्य में कोई भी ऐसा वैसा फैसला लेने से पहले गंभीरता से विचार करना ही होगा. बीजेपी को योगी आदित्यनाथ को हल्के में लेने से पहले कम से कम दो वाकये नहीं भूलना चाहिये. एक जब योगी आदित्यनाथ ने बीजेपी के अधिकृत उम्मीदवार शिव प्रताप शुक्ल के खिलाफ अपना प्रत्याशी राधामोहन दास अग्रवाल को उतार दिया था - और जीते भी. तब वो गोरखपुर से सांसद और गोरक्षपीठ के महंत ही हुआ करते थे. दूसरा वाकया योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद का है.
जिस सीट से योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार लोक सभा पहुंचे थे, उनके हटते ही उपचुनाव हुआ और बीजेपी हार गयी. भला ऐसा कैसे हो सकता है? माना तो यही गया कि बीजेपी नेतृत्व ने योगी आदित्यनाथ की मर्जी के खिलाफ उम्मीदवार का नाम फाइनल कर दिया था - और फिर चुनाव में उनकी जरा भी दिलचस्पी नहीं रही. नतीजा सामने था.
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