योगी मॉडल कर्नाटक तक भले पहुंच गया हो, लेकिन दिल्ली अभी बहुत ही दूर है
योगी मॉडल (Yogi Model) उत्तर प्रदेश से निकल कर देश के अलग अलग हिस्सों में धाक जमाने लगा है, लेकिन संघ और बीजेपी में अंतिम फैसला अब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का ही होता है - योगी आदित्यनाथ (Yogi adityanath) के सामने अभी लंबा सफर बाकी है.
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गुजरात मॉडल के मार्केट में आये दस साल पूरे होने जा रहे हैं, उसकी चमक तो फीकी नहीं पड़ी है - लेकिन चर्चा में अब योगी मॉडल (Yogi Model) छाने लगा है. कर्नाटक में प्रवीण नेत्तारु हत्याकांड के बाद अब वहां की बीजेपी सरकार को भी योगी मॉडल का ही आसरा दिख रहा है.
जब बीजेपी, खासकर युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं के गुस्से से मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई परेशान होने लगे, तो शांत कराने के लिए दिलासा देना जरूरी हो गया था. ऐसे में बोम्मई को योगी मॉडल ही कारगर नजर आया. बेकाबू हो रहे भारतीय जनता युवा मोर्चा कार्यकर्ताओं को हत्यारों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का भरोसा दिलाने के लिए बोम्मई ने घोषणा की है कि राष्ट्र-विरोधी और सांप्रदायिक तत्वों से निबटने के लिए जरूरी हुआ तो वो योगी मॉडल कर्नाटक में भी लागू करेंगे.
बोम्मई की बातों का असर भी हुआ. तभी तो उनके एक मंत्री यूपी की बीजेपी सरकार से पांच कदम आगे की बातें करने लगे. जैसे समझाने की कोशिश हो कि एनकाउंटर के मामले में कर्नाटक सरकार यूपी की योगी आदित्यनाथ (Yogi adityanath) सरकार को भी पीछे छोड़ देगी.
2014 के आम चुनाव की तैयारी के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी ने गुजरात मॉडल को ही आगे किया था, 2024 से पहले योगी मॉडल की चर्चा भी करीब करीब वैसे ही होने लगी है. गुजरात मॉडल की जिक्र अब कम ही होता है, शायद इसलिए भी क्योंकि संघ और बीजेपी के लिए ब्रांड मोदी को बनाये रखना ज्यादा जरूरी हो गया है. इसलिए भी क्योंकि अब मोदी सरकार के कामकाज को ही आगे रख कर विधानसभा चुनावों में भी डबल इंजिन की सरकार को प्रोजेक्ट किया जाता है.
कर्नाटक में योगी मॉडल की चर्चा की वजह युवा मोर्चा कार्यकर्ता की हत्या तो है ही, अगले ही साल वहां विधानसभा के चुनाव भी होने हैं. हां, दक्षिण के किसी राज्य में योगी मॉडल का जिक्र होना खास जरूर है. दक्षिण में बीजेपी अभी कर्नाटक तक ही पहुंच बना पायी है - हां, हाल ही में आये एक ओपिनियन पोल में दक्षिण के राज्यों में कर्नाटक के बाद सिर्फ तेलंगाना में ही बीजेपी की बढ़त का अनुमान लगाया जा रहा है.
योगी मॉडल से आशय असल में हत्या और हिंसा के आरोपियों के खिलाफ बुलडोजर एक्शन से है. बोम्मई की घोषणा से पहले मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार और असम की हिमंत बिस्वा सरमा सरकार भी कुछ मामलों में आरोपियों के यहां 'बुलडोजर' चला चुकी है. आपको याद होगा, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की महाविकास आघाड़ी सरकार को कठघरे में खड़ा करने के लिए MNS नेता राज ठाकरे भी योगी मॉडल की ही दुहाई दे रहे थे - क्योंकि जब वो अपना हनुमान चालीसा अभियान चला रहे थे तो योगी आदित्यनाथ सरकार ने शुरुआती दौर में ही 50 हजार से ज्यादा लाउडस्पीकर हटवाने का दावा किया था.
सवाल ये है कि यूपी से बाहर योगी मॉडल की स्वीकार्यता बढ़ने को कैसे समझा जाना चाहिये? वैसे ही जैसे 2014 से पहले मोदी के उभार के आगे बीजेपी के बाकी मुख्यमंत्री नतमस्तक होने लगे थे. नीतीश कुमार ने तो बीजेपी का साथ ही छोड़ दिया था - लेकिन बाद में वही नीतीश कुमार भी मोदी-मोदी करने को मजबूर हो गये.
अगर योगी आदित्यनाथ के मन में भी नीतीश कुमार जैसी कोई महत्वाकांक्षा कुलांचे भर रही है तो धैर्यपूर्वक काबू करने की कोशिश होनी चाहिये - क्योंकि अभी संघ और बीजेपी में फाइनल वर्ड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का ही होता है, इसलिए योगी आदित्यनाथ के लिए दिल्ली अभी बहुत दूर है.
योगी मॉडल का कैसा प्रभाव है?
2014 के आम चुनाव में गुजरात मॉडल को संघ और बीजेपी ने विकास के नमूने के तौर पर पेश किया था, योगी मॉडल सख्त कानून व्यवस्था कायम करने के लिए अपराधियों के खिलाफ एनकाउंटर स्टाइल में एक्शन से है.
योगी मॉडल और ब्रांड मोदी के बीच अभी फासला बहुत बड़ा है
आखिर बुलडोजर भी तो एनकाउंटर का ही एक नया फॉर्म है. कहीं गाड़ी पलट जाती है, कहीं गाड़ी इमारतों पर चढ़ जाती है. फटाफट इंसाफ के नाम पर सामने आया ये फॉर्मूला भले ही नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का मजाक उड़ाता हो, लेकिन मौजूदा राजनीतिक माहौल में पीड़ित पक्ष से इतर लोगों पर इसके गलत या सही होने की कोई बहस नहीं होती. जब लोगों को, जो बीजेपी के समर्थक हैं या मोदी-योगी सरकारों के कायल हो चुके हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता तो सत्ता और सरकारी मशीनरी भला क्यों टेंशन ले? सुप्रीम कोर्ट भी तो विकास दुबे के खिलाफ यूपी पुलिस के एक्शन को सही मान ही चुका है.
आम लोगों के लिए ये भले ही अपराधियों को कड़ी और तत्काल सजा देने का तरीका नजर आये, लेकिन इसके मायने इससे ज्यादा हैं. योगी मॉडल के जरिये एक मैसेज देने की कोशिश है. 2017 में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही योगी आदित्यनाथ ने बोल दिया था कि अपराधियों का घर या तो जेल होगा या फिर उनको यमराज के पास भेज दिया जाएगा.
2022 के यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान भी योगी आदित्यनाथ ने ट्विटर के जरिये मैसेज दे ही दिया था - 10 मार्च के बाद सबकी गर्मी शांत कर देंगे.
बीजेपी नेता नुपुर शर्मा की पैगंबर मोहम्मद पर विवादित टिप्पणी के बाद हुई प्रयागराज हिंस्सा के मास्टरमाइंड बताये गये जावेद पंप के घर भी बुलडोजर चलाया ही गया. परिवार के लोग कागज दिखाते रहे और लाइव टीवी पर बुलडोजर चलता रहा.
बुलडोजर एक्शन का मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा. सबसे बड़ी अदालत ने नोटिस देते वक्त हिदायत तो ऐसी ही दी थी कि ये सब गलत तरीके से नहीं होना चाहिये, लेकिन अगली ही सुनवाई में याचिका खारिज भी हो गयी.
याचिकाकर्ता के वकील दुष्यंत दवे ने सरकार के एक्शन को टारगेटेड एक्शन बताया था. बोले ये एक समुदाय के खिलाफ है - और काउंटर करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि सभी समुदाय भारतीय समुदाय हैं और ये याचिका समुदाय पर आधारित है.
तुषार मेहता का कहना था कि यूपी सरकार ने अदालत के नोटिस के जवाब में साफ किया है कि कार्रवाई में कानूनी प्रक्रिया निभाई गई है - और वहां पर दंगों के पहले से भी ऐसी कार्रवाई चल रही थी. सॉलिसिटर जनरल ने सलाह दी कि इसे बेवजह सनसनीखेज नहीं बनाया जाना चाहिये.
दरअसल, योगी मॉडल के जरिये डबल इंजिन की सरकार के आदर्श फॉर्म दिखाने की कोशिश हो रही है - और इसकी बदौलत योगी आदित्यनाथ की छवि एक सख्त प्रशासक के तौर पर उभर भी रही है, जो अपराधियों पर कहर बन कर टूट पड़ता हो. यूपी पुलिस का 'ऑपरेशन लंगड़ा' भी अपराधियों के बीच खौफ कायम करने का कारगर तरीका माना जा रहा है.
ऑपरेशन लंगड़ा घोषित तौर पर पुलिस का कोई अभियान तो नहीं है, लेकिन पाया गया है कि एनकाउंटर के कई मामलों में पैरों में गोली लगी है. ये पुलिस के कानूनी तौर पर बचाव का एक तरीका है. ऐसा करके पुलिस अपनी कहानी को ये कह कर समझा लेती है कि आत्मरक्षा के लिए गोली तो चलायी गयी, लेकिन कमर से नीचे. मतलब, जान लेने के इरादे से नहीं.
अपराधियों के बीच ये दहशत का माहौल बना देता है. अगर पैर ही खराब हो गया तो वे काम कैसे करेंगे. अपराध के बाद भाग कैसे पाएंगे? ऑपरेशन लंगड़ा भी योगी मॉडल का ही एक हिस्सा है, जो यूपी पुलिस की अघोषित मुहिम है.
ओपिनियन पोल क्या कहता है: हाल ही में आये एक ओपिनियन पोल में बताया गया है कि अगर आज की तारीख में चुनाव कराये जाते हैं तो बीजेपी फिर से भारी बहुमत की सरकार बना सकती है. 512 सीटों पर हुए ओपिनियन पोल में बीजेपी के हिस्से में 326 सीटें दी गयी हैं - और एनडीए की सीटों का आंकड़ा 350 भी पार कर जा रहा है. 2019 के आम चुनाव में बीजेपी को 303 सीटें मिली थीं, जबकि 2014 में 292.
जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है तो वहां भी बीजेपी के डबल इंजिन सरकार के ही पक्ष में लोग खड़े नजर आते हैं. अभी चुनाव हों तो बीजेपी के यूपी में सबसे ज्यादा सीटें जीतने का अनुमान लगाया गया है - 80 में से 76. 2014 में बीजेपी को यूपी से 71 सीटें मिली थीं, लेकिन 2019 में ये संख्या 56 पर ही सिमट गयी थी.
सर्वे में उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव और कांग्रेस दोनों को ही दो-दो सीटें मिलने का अनुमान है. 2019 में सपा को 5 और कांग्रेस सिर्फ 1 ही सीट जीत पायी थी - क्या 2024 में कांग्रेस की अमेठी में वापसी के कोई संकेत मिले हैं?
आखिरी मुहर तो मोदी ही लगाएंगे
योगी मॉडल का एक रूप यूपी विधानसभा चुनाव से पहले भी देखने को मिला था. कोविड संकटकाल में योगी मॉडल के समानंतर एक वाराणसी मॉडल की भी चर्चा होने लगी थी. यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी वाराणसी मॉडल की तारीफ करते नहीं थक रहे थे - क्योंकि वाराणसी मॉडल के पीछे मोदी के भरोसेमंद नौकरशाह रहे अरविंद शर्मा का दिमाग था.
तब अरविंद शर्मा को डिप्टी सीएम तक बनाने की भी चर्चा रही, लेकिन योगी आदित्यनाथ अड़ गये और आखिर तक अपनी जिद पर डटे रहे. कैबिनेट दर्जा देना तो मंजूर न था, बाद में ज्यादा से ज्यादा राज्य मंत्री बनाने को तैयार हुए थे. बहरहाल, चली योगी की ही और सत्ता में वापसी के बाद ही अरविंद शर्मा मंत्री बन पाये - लेकिन अभी दो ऐसे फैसले सामने आये हैं जिनसे योगी आदित्यनाथ पर ही नहीं, संघ और बीजेपी पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दबदबा देखने को मिलता है.
योगी अपना डीएम भी नहीं बदल सकते: खबर आयी कि वाराणसी के जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा का तबादला कर दिया गया है - और ये महज तबादला नहीं था, बल्कि प्रमोशन के साथ कौशलराज शर्मा को प्रयागराज का मंडलायुक्त बना दिया गया था.
लेकिन फिर नयी खबर आयी है कि बनारस के डीएम का तबादला निरस्त कर दिया गया है - और अमर उजाला की रिपोर्ट के मुताबिक, कौशलराज शर्मा नहीं बल्कि विजय विश्वास पंत प्रयागराज के मंडलायुक्त होंगे.
अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक, कौशलराज शर्मा का तबादला 31 जुलाई से प्रभावी होना था. रिपोर्ट में कहा गया है, तबादला रद्द होने में प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिका रही है क्योंकि वहां कई ऐसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट अभी निर्माणाधीन हैं - और उसी के चलते कौशल राज शर्मा को वहां से न हटाने का निर्णय लिया गया है.
अब तो यही समझ में आता है कि योगी आदित्यनाथ की सरकार अपने डीएम का तबादला भी केंद्र से पूछे बगैर नहीं कर सकती. ये ठीक है कि मामला प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र का है, लेकिन लेकिन जिस अफसर को राज्य सरकार डिविजनल कमीश्नर बनाना चाहती है, उसे पीएओ से फिर से डीएम ही बना देने को कह दिया जाता है - और योगी आदित्यनाथ सरकार मान भी लेती है.
अब तो जो हुआ वो हुआ. बनारस के डीएम कौशलराज शर्मा चाहें तो बीजेपी नेता देवेंद्र फडणवीस का हाल देख कर थोड़ा संतोष कर सकते हैं. पांच साल मुख्यमंत्री रहे देवेंद्र फडणवीस भी दिल्ली के ही आदेश पर 'दिल पर पत्थर रख कर' महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम बन गये हैं - ये तो गनीमत है कि कौशलराज शर्मा को सिटी मजिस्ट्रेट नहीं बना दिया गया है.
संघ नहीं, फाइनल वर्ड मोदी के होते हैं: इंडियन एक्सप्रेस के कॉलम इनसाइड ट्रैक से मालूम होता है कि उपराष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में जगदीप धनखड़ का नाम उस सूची में नहीं था जिसे संघ की तरफ से सुझाया गया था - बल्कि, उसमें बाकी नामों के साथ प्रमुख तौर पर केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खां और जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा का नाम था.
कॉलम में सीनियर पत्रकार कूमी कपूर लिखती हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सुझाये गये नामों से संतुष्ट नहीं थे. जिस मीटिंग में ये चर्चा हो रही थी, उसमें प्रधानमंत्री के साथ अमित शाह, राजनाथ सिंह और जेपी नड्डा भी शामिल थे.
प्रधानमंत्री मोदी का जोर इस बात पर रहा कि राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू के जरिये जो राजनीतिक मैसेज देने की कोशिश थी, वे बातें उपराष्ट्रपति चुनाव में भी ध्यान रखना जरूरी नहीं है - मसलन, जेंडर, जाति, धर्म या फिर क्षेत्रीयता.
तभी रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जगदीप धनखड़ के नाम का प्रस्ताव रखा. दरअसल, उपराष्ट्रति के जिम्मे मुख्य तौर पर राज्य सभा के सभापति के रूप में भी बड़ी जिम्मेदारी होती है. बताते हैं कि हाल के दिनों में जिस तरीके से विपक्ष ने मुद्दा बनाया, प्रधानमंत्री को लगा कि चीजें कंट्रोल नहीं हो पा रही हैं और विपक्ष को अपने फायदे के हिसाब से नैरेटिव सेट करने का मौका मिल जा रहा है. दूसरी तरफ, राज भवन में होने के बावजूद जगदीप धनखड़ के प्रदर्शन ने प्रधानमंत्री को खासा प्रभावित किया क्योंकि पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान उनका कामकाज बिलकुल वैसा ही रहा जैसे वो बीजेपी की टीम का ही हिस्सा हों.
कहने और समझने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि मार्केट में ब्रांड मोदी ही नहीं, संघ के फैसलों पर भी मोदी का मुहर लगाना ही जरूरी होता है और योगी आदित्यनाथ के मामलों में भी उनकी दखल होती है - ऐसे में बीजेपी का कोई नेता ये न भूले कि योगी मॉडल को अभी मीलों का सफर तय करना बाकी है.
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