New

होम -> सियासत

 |  6-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 16 दिसम्बर, 2018 04:52 PM
बिजय कुमार
बिजय कुमार
  @bijaykumar80
  • Total Shares

मिजोरम में 10 वर्षों के कांग्रेस शासन को चुनावों में मात देकर मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) के प्रमुख जोरामथांगा ने शनिवार को तीसरी बार इस पूर्वोत्तर राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण की. इससे पहले 74 वर्षीय जोरामथांगा दो बार 1998-2003 और 2003-2008 के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री पद पर रह चुके हैं. एमएनएफ ने 28 नवंबर को हुए विधानसभा चुनाव में 26 सीट हासिल की थीं, जो 40 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत से पांच सीट अधिक है. एमएनएफ को 2013 विधानसभा चुनाव में केवल पांच सीट मिली थीं, जबकि कांग्रेस को यहां 34 सीटें मिली थीं. इस बार कांग्रेस केवल पांच सीटें जीतने में कामयाब हो पाई है और अब पार्टी पूर्वोत्तर में कहीं भी सत्ता में नहीं है. कांग्रेस पार्टी को पूर्वोत्तर के आखिरी किले से सफाया करने वाले जोरामथांगा का राजनीतिक सफर भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती को दर्शाता है और ये दिखता है कि कैसे मुख्यधारा से जुड़कर समस्याओं का हल निकाला जा सकता है.

जोरामथांगा, मिजोरम, विधानसभा चुनाव, मुख्यमंत्रीसाल 1986 में मुख्यधारा में शामिल होने से पहले जोरामथांगा एक विद्रोही थे.

बता दें कि साल 1986 में मुख्यधारा में शामिल होने से पहले जोरामथांगा एक विद्रोही थे. 1959 के अकाल से लड़ने के लिए एक सिविल सोसाइटी के रूप में शुरू हुई एमएनएफ 60 के दशक में एक विद्रोह के रूप में तब्दील हो गई थी और उसे देश विरोधी बाहरी शक्तियों का समर्थन मिला था. बता दें कि 1959 के अकाल के पीछे मुख्य रूप से बांस की फसल में लगातार हो रहा नुकसान था और एमएनएफ को लगता था कि भारत सरकार प्रदेश में आए अकाल से ठीक तरीके से निपटने की कोशिश नहीं कर रही है, जिसके बाद 1966 में लालडेंगा की अगुवाई वाले मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) ने भारत से आजादी की घोषणा कर दी थी. इस दौरान 20 सालों तक जोरामथांगा अंडरग्राउंड होकर विभिन्न देशों में गए और आखिरकार 1986 में भारत सरकार और एमएनएफ के बीच मिजोरम पीस एकॉर्ड पर हस्ताक्षर हुए और इस समस्या का हल निकाल लिया गया.

शांति समझौते के बाद 1987 में हुए विधानसभा चुनाव में एमएनएफ ने 24 सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन लालडेंगा के नेतृत्व वाली सरकार करीब दो वर्षों तक ही चल पाई, क्योंकि उसके 9 विधायक टूट कर कांग्रेस में शामिल हो गए और सितम्बर 1988 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया. ललथनहवला के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1989 में हुए चुनावों में वापसी की और 1993 में भी कांग्रेस जीतने में कामयाब रही. जुलाई, 1990 में लालडेंगा की मृत्यु के बाद एमएनएफ के सचिव रहे जोरामथांगा पार्टी के अध्यक्ष बने. जोरामथांगा के नेतृत्व वाले एमएनएफ ने मिजोरम पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के साथ चुनाव से पहले गठबंधन कर 1998 में सत्ता में वापसी की, इस चुनाव में एमएनएफ ने 22 सीटों पर जीत दर्ज की थी इसके बाद 2003 में भी विधानसभा चुनावों में एमएनएफ ने 21 सीटों पर जीत दर्ज की. लेकिन उनकी पार्टी को 2008 के चुनाव में करारी हार झेलनी पड़ी और यह पार्टी केवल तीन सीटों तक ही सिमट कर रह गई थी. जोरामथांगा दोनों सीटों पर हार गए थे, लेकिन समय बदला और 2018 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर जोरामथांगा ने जीत दर्ज की है. कहा जा सकता है कि उनका सफर काफी उतार चढ़ाव भरा रहा है.

जोरामथांगा की तरह ही कुछ कहानी पूर्वोत्तर के ही असम राज्य के भूतपूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत की भी है. जो असम के गुवाहाटी में वकालत की पढ़ाई करते हुए प्रभावशाली छात्र संगठन, ‘अखिल असम छात्र संघ’ से जुड़े और 1979 में उसके अध्यक्ष बनाए गए. असम में ग़ैर-असमिया लोगों के ख़िलाफ़ आंदोलन में प्रभावी नेता के तौर पर उभरे और 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ ऐतिहासिक असम समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके बाद से वो देश में चर्चा का केंद्र बन गए. 1985 में ही असम गण परिषद पार्टी बनी और उसी साल पार्टी द्वारा विधानसभा चुनाव जीतने के बाद 33 वर्षीय महंत को मुख्यमंत्री बनाया गया, जो उस व़क्त देश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने थे. बता दें कि महंत राजनीति की सीढ़ियां काफी तेजी से चढ़ रहे थे. साल 1985-90 का कार्यकाल पूरा करने के बाद महंत एक बार फिर मई 1996 से मई 2001 तक असम के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए. लेकिन इस बीच उनकी राजनीति पर विवाद हावी हो गया. चारों तरफ से आरोपों की बौछार होने लगी और फिर 2001 में उन्हें मजबूरन सत्ता छोड़नी पड़ी. सबसे कम उम्र में मुख्यमंत्री बनकर इतिहास रचने वाले महंत अचानक दो दशक के भीतर ही असम की राजनीति में अछूत से हो गए थे, लेकिन महंत ने हार नहीं मानी और उन्होंने अलग असम गण परिषद (प्रगतिशील) नाम की पार्टी बना ली और 2006 के विधानसभा चुनाव में हाथ आजमाया, लेकिन चुनाव में केवल महंत ही जीत पाए. पार्टी के बाकी उम्मीदवारों को करारी हार मिली थी. बिना एक दूसरे के असम गण परिषद पार्टी और महंत दोनों ही कमजोर हो रहे थे. साल 2008 में चंद्रमोहन पटवारी पार्टी के अध्यक्ष बने तो महंत की वापसी के रास्ते खुले. पटवारी इस बात से वाकिफ थे कि पार्टी को फिर से मजबूत महंत ही कर सकते हैं. उन्होंने केवल महंत को ही नहीं, दूसरे बागी नेताओं को भी मनाया और पार्टी में वापस लेकर आए.

अभी हाल ही का एक और वाकया है जो इन दो नेताओं के सफर से कुछ मिलता-जुलता है. बता दें कि जम्मू-कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी गठबंधन टूटने के बाद जून से ही राज्यपाल शासन लागू है, जिसकी मियाद दिसंबर में पूरी हो रही थी. इससे पहले राज्य में सत्ता के लिए जोड़-तोड़ और गठजोड़ की कोशिशों की खबर ने देश का ध्यान-आकर्षित किया. एक तरफ जहां बीजेपी द्वारा सज्जाद लोन के नेतृत्व में सरकार बनाने की चर्चा हुई तो दूसरी तरफ कांग्रेस-पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के मिलकर सरकार गठन करने पर विचार हो रहे थे. इसी बीच राज्यपाल ने अचानक रातों-रात विधानसभा भंग करने का निर्णय लिया. अपने इस फैसले के बाद राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा था कि दिल्ली सज्जाद लोन को मुख्यमंत्री बनवाना चाहती थी. अगर मैं ऐसा करता तो ये बेईमानी होती. हालांकि, इस बयान पर बवाल मचते ही मलिक ने कहा कि उनके बयान को गलत संदर्भ में पेश किया गया है. उन्होंने ऐसी कोई बात ही नहीं की थी, न तो कोई दबाव था और न ही किसी तरह का दखल था.

अब सज्जाद गनी लोन की बात करें तो उनकी पार्टी पीपल्स कॉन्फ्रेंस के पास महज दो विधायक हैं. सज्जाद लोन पूर्व अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन के बेटे हैं, जिनकी वर्ष 2002 में हत्या कर दी गई थी. इसके बाद लोन अपने पिता की राजनीतिक विरासत को लेकर चले और अलगाववादी राजनीति की वकालत करते हुए स्वायत्त कश्मीर के लिए आवाज भी बुलंद की. सिर्फ दो विधायक की पार्टी सरकार का नेतृत्व करे ये सोचकर हैरानी होती है, लेकिन देश की राजनीति में ऐसे भी मौके आए हैं जब कोई निर्दलीय विधायक भी सीएम बन गया हो. इसका उदाहरण हमें झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के रूप में मिलता है जो निर्दलीय विधायक होते हुए भी 14 सितम्बर 2006 से 23 अगस्त 2008 तक झारखण्ड के मुख्यमंत्री रहे.

ये भी पढ़ें-

2019 में मोदी-शाह की के सामने चुनौतियां चौतरफा होने लगी हैं

राहुल गांधी फॉर्म में आ चुके हैं, मगर 2019 में कप्तानी पारी खेलने पर संदेह है

हे राम! जनेऊ पहनकर मंदिर-मंदिर जाकर झूठ बोलते हैं राहुल गांधी!

लेखक

बिजय कुमार बिजय कुमार @bijaykumar80

लेखक आजतक में प्रोड्यूसर हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय