फेसबुक उपयोगी, पर भारत में 'वॉइसबुक' अधिक जरूरी
फेसबुक को सोशल मीडिया कहा जाता है पर जिस जगह 90% लोगों की पहुंच ही नहीं है उसे सोशल कैसे कह सकते हैं? दुनिया में ज्यादातर लोगों का दायरा अक्सर सीमित होता है, ऐसे लोगों को फेसबुक की नहीं वॉइसबुक की जरूरत है.
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फेसबुक गजब की चीज़ है, इसने दुनिया में करोड़ों लोगों की जिंदगी में सकारात्मक बदलाव लाया है. पर भारत जैसे विकासशील देशों में फेसबुक से अधिक वॉइसबुक की जरुरत है. फेसबुक कहता है भारत में 14 करोड़ लोग फेसबुक से जुड़े हैं तो यह भारत की 1.3 अरब की आबादी का लगभग 10% हुआ. फेसबुक एक आधुनिक बाजार की तरह है जहां लोग आपस में बातचीत करते हैं, विचार और सामान का आदान-प्रदान करते हैं. पर दुनिया में अधिसंख्य लोगों की इस नए बाजार तक पहुंच नहीं है. उनके पास उनका अपना बाजार है पर उस बाजार का दायरा अक्सर सीमित होता है. तो क्या हम इन लोगों के लिए वॉइसबुक बना सकते हैं?
इसके लिए एक छोटी सी कोशिश मध्य भारत में हो रही है. यह प्रयास हमारी पत्रकारिता को भी लोकतांत्रिक बना सकती है जो आज बिलकुल राजतांत्रिक है. फेसबुक को भी सोशल मीडिया कहा जाता है पर जिस जगह 90% लोगों की पहुंच नहीं है उसे सोशल कैसे कह सकते हैं?
उसी तरह जिम्मेदारी के साथ की गयी बातचीत को मीडिया कहते हैं. बगैर किसी जांच और रोक-टोक के कोई भी कुछ भी कहता रहे उसे मीडिया भी नहीं कहना चाहिए. पर अगर हम समाज से कुछ चुने हुए लोगों के समूह को जांच का काम सौपें तो इसे एक जिम्मेदारी भरा लोकतांत्रिक प्लेटफार्म बनाया जा सकता है. साथ में हमें यह भी मांग करनी चाहिए कि फेसबुक और गूगल जैसे प्लेटफार्म अगर मीडिया कहलाना चाहते हैं तो उन्हें पहले जिम्मेदार होना चाहिए.
हाल के एक अध्ययन के अनुसार भारत में 1% लोगों के पास लगभग 60% संपत्ति इकट्ठा है. लगभग सभी विकासशील देशों में असमानता की खाई इतनी ही गहरी है. इसलिए यह समझ में आता है कि फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियां वॉइसबुक जैसे प्रयोगों पर अपना धन नहीं लगाना चाहतीं जो दुनिया के ऐसे लोगों को जोड़ेगी जिनके पास बहुत कम पैसे हैं, जो हमारे सामाजिक आर्थिक पायदान में सबसे नीचे की सीढ़ी में रहते हैं.
हम आज एक बंटी हुई दुनिया में रहते हैं. पर अगर डिजिटल डिवाइड के दूसरी ओर रहने वाले हमारे बहुसंख्य साथियों को वहीं छोड़ दें तो हम अपनी ही शामत बुला रहे हैं. जनसंचार की भाषा में आज के भारतीय समाज को हम तीन जातियों में बांट सकते हैं.
भारतीय समाज के उपरले वर्ग को हम इंटरनेट जाति बोल सकते हैं, जिनकी पहुंच सामान्यत: इंटरनेट तक है. इनकी संख्या कितनी है इसके बारे में अलग-अलग आंकड़े दिए जाते हैं पर जब फेसबुक कहता है कि भारत में उसके ग्राहकों की संख्या 14 करोड़ है तो हम यह कह सकते हैं कि इस जाति की संख्या हमारी आबादी का लगभग 10% है.
दूसरा है मोबाइल फोन वर्ग. इन लोगों के पास मोबाइल फोन है, ये जहां रहते हैं वहां फोन का सिग्नल है और इनके पास कुछ पैसे भी हैं जिससे ये किसी को फोन भी कर सकें. यह सबसे बड़ा वर्ग है इसकी तादाद 60-80% तक हो सकती है यद्यपि इनकी संख्या गांवों में कम है. इस जाति के लोग अक्सर इंटरनेट जाति में शामिल होने की हड़बड़ी में होते हैं. इस व्यवस्था में आप अपनी जाति बदल सकते हैं.
इसी कड़ी में आखिरी है बुल्टू जाति. इस जाति के कुछ लोगों के पास मोबाइल फोन भी हैं पर ये जहां पर रहते हैं वहां मोबाइल फोन का सिग्नल नहीं मिलता और अक्सर इनके पास इतने पैसे भी नहीं होते कि ये दूसरों को फोन कर सकें. इनकी संख्या हमारी आबादी की 20-30% है और ये सुदूर गांवों में अधिक पाए जाते हैं. इस जाति को पहले रेडियो जाति कहा जाता था जिनकी खुद की कोई आवाज नहीं है, ये सिर्फ औरों की सुन सकते हैं. इनमें एक ही मोबाइल फोन को अक्सर कई लोग साझा करते हैं और फोन का उपयोग अधिक ये गाने सुनने और फोटो खींचने में करते हैं और उसके बाद उनके फोन में उपलब्ध ब्लूटूथ का उपयोग कर वे इन गानों और फोटो को एक दूसरे से साझा भी करते हैं. वे ब्लूटूथ उच्चारण नहीं कर पाते हैं और उसे बुल्टू कहते हैं.
भारत ने रेडियो की हत्या कर दी है, कानून से. यद्यपि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है पर हम जनता को रेडियो के उपयोग की अनुमति नहीं देते. 1.3 अरब लोगों के बीच सिर्फ एक रेडियो स्टेशन है जो समाचार कर सकता है. सुदूर अंचलों में बोली जानी बोलियों में वहां से अक्सर कोई प्रसारण नहीं होता. पुराने रेडियो जाति के लोग मुझे बताते हैं “अब हम रेडियो नहीं सुनते. वह हमारी भाषाओं में नहीं बोलता, कुछ ओबामा, ओसामा की बात करता है, उसमें कुछ भी ऐसा नहीं आता जिससे हमारे जीवन में कोई असर पड़ता हो, रेडियो हमारे लिए मर गया है.”
पर यही लोग आज कल बुल्टू का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं. भारत के सुदूर अंचलो में आज ब्लूटूथ सबसे अधिक उपयोग में आने वाला संचार का यन्त्र है. छोटे बच्चों को भी यह पता है एक फोन से दूसरे फोन गाने के फ़ाइल कैसे ट्रांसफर किया जाता है. आप आज दूरस्थ अंचलों के किसी भी गांव में चले जाइये आपको वहां कम से कम आधे दर्जन मोबाइल फोन मिल जाएंगे. अक्सर वहां मोबाइल का सिग्नल नहीं होता तो वे उससे घर बैठे किसी को फोन नहीं कर सकते. मोबाइल फोन यहां नया टेप रिकार्डर है गाने सुनने के लिए और नया कैमरा. आजकल जब ये ग्रामीण बाजार जाते हैं तो सामानों की खरीद और बिक्री के साथ साथ ये किसी डाउनलोड सेंटर भी जरूर जाते हैं जहां से ये गाने डाउनलोड करते हैं. घर वापस आने के बाद ये ब्लूटूथ से गाने आपस में साझा करते हैं जिसमे कोई खर्च नहीं होता.
मध्य भारत में मीडिया के लोकतंत्रीकरण का एक प्रयोग इन सबका उपयोग बुल्टू रेडियो या वॉइसबुक बनाने के लिए कर रहा है जो साधारण रेडियो का सहयोगी हो सकता है. यह नया रेडियो लोकतांत्रिक है. इसमें लोग उस स्थान से जहां मोबाइल का सिग्नल उपलब्ध है एक सर्वर ( एक कम्प्यूटर जो फोन और इंटरनेट से जुड़ा हो और जिसमे इंटरएक्टिव वॉइस रिकार्डर का सॉफ्टवेयर डला हो) को फोन कर अपने सन्देश और गीत रिकार्ड करते हैं. उसी समुदाय से प्रशिक्षित कुछ एडिटर्स की एक टोली इन गीत और संदेशों को जोड़कर अपनी बोली में एक रेडियो कार्यक्रम बना देती है. ये जोड़कर कहीं भी बैठे हो सकते हैं, सिर्फ इनके कम्प्यूटर पर इंटरनेट कनेक्शन होना चाहिए. यह कार्यक्रम सर्वर के उसी नंबर पर फोन करके सुना जा सकता है. अगर किसी व्यक्ति के फोन में इंटरनेट है जो सुदूर अंचलों में अधिकतर लोगों के पास नहीं होता तो वह व्हाट्सऐप आदि के माध्यम से इस कार्यक्रम को प्राप्त कर सकता है. यदि उनके पास इंटरनेट नहीं है तो वे अपने फीचर फोन में सर्वर को फोन कर रेडियो कार्यक्रम को रिकार्ड कर सकते हैं.
जब रेडियो कार्यक्रम का ऑडियो फ़ाइल किसी बेचकार (इन्हें सामुदायिक मीडिया वेंडर भी कहते हैं) के पास आ जाता है तो वह घर-घर जाकर अपने समुदाय के अन्य लोगों के फोन पर बुल्टू रेडियो दे आता है. एक बार फोन पर आ जाने के बाद इसे जितनी बार मर्ज़ी सुना जा सकता है और किसी से भी साझा किया जा सकता है जैसा कि अमूमन होता है. ये कार्यक्रम स्थानीय बोली में स्थानीय लोगों द्वारा स्थानीय मुद्दों पर होते हैं यही इसमें खास बात है.
जब बेचकार बुल्टू रेडियो देता है उसी समय यदि ग्राहक के पास ऐसा कुछ सामान हो जो वह शहरी बाजार में बेचना चाहता है तो वह उसे भी इकट्ठा कर लेता है. चूंकि इन लोगों के फोन में सिग्नल नहीं है इसलिए बुल्टू जाति के लोग इन्हीं सामानों को कम दामों में अपने स्थानीय बाजार में ही बेचते रहे हैं. बेचकार बुल्टू रेडियो का दाम घटाकर बाकी पैसे उसे दे देता है. ये सामान अक्सर खेत के वे जैविक और जंगली उत्पाद होते हैं जिनकी शहरों में मांग है. कभी वे कला की वस्तु भी हो सकती है. इस तरह यह व्यापार संवाद माध्यम को चलाने में मदद करता है और यह संवाद माध्यम इस व्यापार में थोड़ी अधिक आय सुनिश्चित करता है. इसके पहले शहर और गांव के बीच संवाद का माध्यम न होने से ये सामान अक्सर शहर नहीं पहुंच पाते थे.
इस व्यवस्था में समाचार के उत्पादक को समाचार के लिए कोई धन नहीं मिलता. जैसा राजनीतिक लोकतंत्र में वोटर को वोट देने के लिए कोई धन नहीं मिलना चाहिए अन्यथा वह अधिक धन देने वाले को ही वोट देगा, उसी तरह प्राथमिक समाचार देने का कारण सरोकार होना चाहिए उसके लिए धन नहीं मिलना चाहिए. और समाचार माध्यम जितना संभव हो उन्हीं लोगों की अर्थव्यवस्था पर निर्भर होना चाहिए जिनके लिए वह बना है तब ही वह स्वतंत्र रह पाएगा.
जब इस तरह के काफी बुल्टू रेडियो या वॉइसबुक बन जाएं तो उनके ऊपर डेटा जर्नलिज़्म कर लोगों की बातचीत का ट्रेंड निकाला जा सकता है. आजकल की मुख्यधारा की राजतांत्रिक मीडिया के विपरीत यह एक प्रतिनिधिक पत्रकारिता का आधार हो सकता है. और इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया के विपरीत जहां थोड़े ही लोग शामिल हैं यह प्रतिनिधित्व वास्तविक हो सकता है और फेसबुक से विपरीत जो एक बाजार का उदाहरण है यदि हमारे जोड़कर उस समाज से चुने हुए हों तो यह उत्तरदायी मीडिया का प्लेटफार्म बन सकता है.
यह प्रयोग बताता है कि इंटरनेट, मोबाइल और बुल्टू मिलकर एक स्वतंत्र मीडिया बना सकते हैं यदि रेडियो को आजाद कर दिया जाए तो इसमें सुविधा होगी.
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