शर्म आ रही है ना.. ?
प्रसून जोशी की इस कविता को सुनकर शायद बेटियों को पैदा होते ही मार देने वाले लोगों को जरूर शर्म आएगी
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2016 ओलंपिक में भारतीय महिलाओं के शानदार प्रदर्शन के बाद जाने माने गीतकार प्रसून जोशी ने बेटियों पर एक कविता लिखी थी. जिसे उन्होंने खुद ही पढ़ा भी है. ये वीडियो उन्होंने फेसबुक पेज पर शेयर किया था, जो वायरल हो गया था.
समाज से पूछ रहे हैं कि शर्म आ रही है? |
इस कविता में समाज के उस चेहरे को समाज को ही दिखाने की कोशिश की गई है जहां बच्चियों को पैदा होते ही मार दिया जाता है, जिसपर उसे शर्म आनी चाहिए. कविता का टाइटल भी यही है 'शर्म आ रही है ना'
कविता इस प्रकार है-
शर्म आ रही है ना उस समाज को
जिसने उसके जन्म पर खुल के जश्न नहीं मनाया
शर्म आ रही है ना उस पिता को
उसके होने पर जिसने एक दिया कम जलाया
शर्म आ रही है ना उन रस्मों को उन रिवाजों को
उन बेड़ियों को उन दरवाज़ों को शर्म आ रही है ना उन बुज़ुर्गों को
जिन्होंने उसके अस्तित्व को सिर्फ़ अंधेरों से जोड़ा
शर्म आ रही है ना उन दुपट्टों को उन लिबासों को
जिन्होंने उसे अंदर से तोड़ा
शर्म आ रही है ना स्कूलों को दफ़्तरों को रास्तों को मंज़िलों को
शर्म आ रही है ना उन शब्दों को उन गीतों को
जिन्होंने उसे कभी शरीर से ज़्यादा नहीं समझा
शर्म आ रही ना राजनीति को धर्म को
जहाँ बार बार अपमानित हुए उसके स्वप्न
शर्म आ रही है ना ख़बरों को मिसालों को दीवारों को भालों को
शर्म आनी चाहिए हर ऐसे विचार को
जिसने पंख काटे थे उसके
शर्म आनी चाहिए ऐसे हर ख़याल को
जिसने उसे रोका था आसमान की तरफ़ देखने से
शर्म आनी चाहिए शायद हम सबको क्योंकि
जब मुट्ठी में सूरज लिए नन्ही सी बिटिया सामने खड़ी थी
तब हम उसकी उँगलियों से छलकती रोशनी नहीं उसका लड़की होना देख रहे थे
उसकी मुट्ठी में था आने वाला कल और सब देख रहे थे मटमैला आज
पर सूरज को तो धूप खिलाना था
बेटी को तो सवेरा लाना था
और सुबह हो कर रही
- प्रसून जोशी
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