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Updated: 23 नवम्बर, 2018 03:02 PM
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भारत में एक पैटर्न देखा जा सकता है. बीमारियों का पैटर्न. अक्सर लगभग हर घर में एक ही तरह की बीमारियों वाले मरीज देखे जा सकते हैं. घुटनो के दर्द वाला मरीज, वायरल फीवर वाला मरीज, गिरते बालों से परेशान व्यक्ति, डायबिटीज से परेशान व्यक्ति, कैंसर पेशंट आदि हर घर में मिल जाएंगे. अब जिस आसानी से हम कहते हैं कि हमारे घर में ये बीमारी है और इससे बहुत परेशानी हो रही है हम ये नहीं समझ पाते कि असल में ऐसे बहुत से लोग हैं जो हमारी तरह ही परेशान हो रहे हैं.

भारत में एक और पैटर्न है और वो ये कि कोई भी इंसान किसी भी तरह की बीमारी से ग्रसित हो उसे इलाज के तौर पर एक तय प्रोसेस से गुजरना होता है भले ही उस इंसान को इसकी जरूरत हो भी या नहीं. इसी तरह का एक इलाज है rheumatism (जोड़ों में होने वाली समस्याएं) का इलाज. NCBI (National Center for Biotechnology Information) की रिपोर्ट कहती है कि Osteoarthritis (घुटनों के दर्द की समस्या) भारत में दूसरी सबसे बड़ी rheumatologic समस्या है और इसका आंकड़ा 22% से 39% तक है. यानी भारत की आधी से थोड़ी सी कम आबादी इस बीमारी का शिकार है. ये स्टडी भारत के 5 राज्यों में की गई थी. और 5000 लोगों का सैंपल लिया गया था.

बीमारी, knee रिप्लेस्मेंट, सोशल मीडिया, शरीररिपोर्ट कहती है कि हर 5 में से 1 मरीज को सर्जरी की जरूरत होती ही नहीं है

घुटनों के दर्द की समस्या का एक तय सा इलाज दिखता है कि Knee रिप्लेस्मेंट यानी घुटनों का ऑपरेशन करवा लिया जाए. डॉक्टर भी इसी बात को लेकर ज्यादा जोर देते हैं कि ये सही है, लेकिन क्या वाकई हर घुटनों के दर्द से परेशान मरीज को ये करना चाहिए?

किसी मरीज के लिए परेशान ज्वाइंट से निजात पाने का सबसे अच्छा तरीका होता है Knee रिप्लेस्मेंट का. बेहतर तरीके से मरीज चल फिर पाता है, उसे दर्द भी कम होता है और शायद यही कारण है कि ये मेडिकल प्रोसीजर ज्यादा से ज्यादा लोग अपनाते हैं. पर एक सवाल है. क्या ये लोग अपनी मर्जी से अपनाते हैं या फिर इसे डॉक्टर फोर्स करते हैं?

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक हर 5 में से 1 मरीज जो Knee रिप्लेस्मेंट के लिए आता है उसे असल में इसकी जरूरत भी नहीं होती है. वो सिर्फ अपनी जीवनशैली में थोड़े से बदलाव के साथ बेहतर कर सकता है. यानी 20% मरीजों को असल में इस सर्जरी की जरूरत होती ही नहीं है.

जो Knee रिप्लेस्मेंट किया जाता है वो अक्सर उम्रदराज लोगों का होता है जिनके घुटनों पर वजन सहने वाले सर्फेस लगाए जाते हैं और इससे उनके चलने फिरने की तकलीफ कम हो जाती है.

सर्जरी नहीं तो और क्या?

अगर कोई मरीज सर्जरी नहीं करवाना चाहता है तो उसकी जगह कई अन्य तरीके भी हो सकते हैं. जैसे 20% मरीजों के लिए फिजियोथेरेपी सबसे बेहतर विकल्प साबित हो सकती है. Total knee replacement(TKR) आखिरी विकल्प होना चाहिए जब मरीज के घुटने बिलकुल भी वजन सहने लायक नहीं रह गए हों. इसके अलावा, पार्शियल रिप्लेसमेंट भी करवाया जा सकता है.

60 वर्ष से कम उम्र वाले कई मरीज जो TKR के लिए आते हैं वो बिना उसके भी काफी बेहतर रिकवरी कर सकते हैं. AIIMS के ऑर्थोपेडिक्स डिपार्टमेंट के डॉक्टर राजेश मल्होत्रा का कहना है कि किसी भी इंसान को इसकी जरूरत है या नहीं ये तीन तरह से तय किया जाता है. दर्द, घुटना कितना काम कर रहा है, और साथ ही लाइफस्टाइल कैसी है.

डॉक्टर मरीजों से पूछ सकते हैं कि आखिर कितनी पेनकिलर वो हर वक्त लेते हैं. इससे निर्भर करता है कि उन्हें कितनी तकलीफ है और वो किस हद तक अपनी परेशानी से निजात पाना चाहते हैं. अगर मरीज ने ज्यादा पेनकिलर ली है तो उसकी किडनी पर भी असर पड़ सकता है और इसके कारण शायद मरीज knee रिप्लेस्मेंट के लिए परेशान हो उठता है.

कैसे पता करें कि सर्जरी की जरूरत है या नहीं?

डॉक्टर मल्होत्रा का कहना है कि अगर कोई मरीज 30 मिनट तक बिना दर्द के खड़ा हो सकता है या फिर वो 500 मीटर बिना दर्द के चल सकता है तो उसे सर्जरी की जरूरत नहीं है. अगर रोजमर्रा के काम जैसे शादी में जाना, मंदिर की सीढ़िया चढ़ना आदि कम तकलीफ में किया जा रहा है तो भी Knee रिप्लेस्मेंट की जरूरत नहीं है. TKR तभी किया जाना चाहिए जब उसके अलावा और कोई विकल्प ही नहीं बचा हो.

डॉक्टरों का कहना है कि TKR की जरूरत को कम किया जा सकता है अगर मरीज अपना वजन 5 किलो कम कर ले और उसे अगले 10 साल तक ऐसे ही मेंटेन रखे. फिजियोथैरेपी से ऐसे सही मायने में सर्जरी को रोका जा सकता है.

और क्या-क्या विकल्प हो सकते हैं?

इसके लिए कई नॉन-सर्जिकल विकल्प भी हो सकते हैं. इसमें Arthoscopic washout भी शामिल है जिसमें Knee ज्वाइंट की सफाई की जाती है. इसके अलावा, हड्डी को सही जगह पर बैठाया जाता है जिससे वजन की समस्या ज्यादा न हो.

इसके अलावा, कई अन्य तरीके भी हैं जो डॉक्टर अपना सकते हैं और टोटल Knee रिप्लेस्मेंट से बचा सकते हैं. Knee रिप्लेस्मेंट की उम्र 10-15 साल ही होती है और अगर कोई 45-55 वर्ष की आयु वाला इसे करवाता है तो उसे 10 सालों में दोबारा सर्जरी करवाने की जरूरत पड़ सकती है.

कुल मिलाकर मरीजों को खुद अपनी समस्या के लिए ध्यान देने की जरूरत है. आपको ये सोचना है कि क्या वाकई सर्जरी ही आखिरी उपाय है और क्या सर्जरी के बाद होने वाली कठिनाइयों से आप निजात पा सकेंगे या नहीं? किसी भी मरीज को सर्जरी आखिरी विकल्प के तौर पर चुनना चाहिए क्योंकि इससे शरीर में सर्जरी के साइडइफेक्ट्स से बचा जा सकता है.

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