अफगानिस्तान, रमजान, और मासूम कुर्बान: ये तो हरगिज नहीं इस्लाम!
बीते दिनों अफगानिस्तान के एक अस्पताल पर आतंकी हमला (Afganistan Kabul Terrorist Attack) हुआ है और जिस तरह इस्लाम (Islam) और जिहाद (Jihad) के नाम पर छोटे छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं को गोलियों का निशाना बनाया गया वो कई मायनों में दिल को दहला कर रख देने वाला है.
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ज़रा सोचिए कोई औरत लेबर-पेन से गुज़र रही हो. किसी भी पल में वो एक ज़िंदगी को इस दुनिया में लाने वाली हो. उस दर्द के बीच कोई उसे गोली मार दे.फिर ये सोचिए कि एक 6 साल की बच्ची बाहर इंतज़ार कर रही हो कि उसकी मां उसके लिए बेबी सिस्टर लाने गयी है और उस बच्ची को उसका बाप बताए कि, अब मान नहीं आएगी और बेबी भी नहीं. दोनों को गोली मार दी आतंकवादियों (Terrorist Attack In Kabul) ने. ऐसी ही और 22 कहानियां होंगी काबुल के इस मैटरनिटी अस्पताल (Kabul Terrorist Attack) की जहां इस्लाम (Islam) के नाम पर धर्म की स्थापना के लिए किसी सनकी ने 24 लोगों की जान ले ली. इन 24 लोगों में ज़्यादातर वो स्त्रियां थी जो किसी भी पल मां बन सकती थीं या फिर जिन्होंने तुरंत किसी बच्चे को जन्म दिया था. अलजज़ीरा न्यूज़ की मानें तो 8 बच्चे जो इस दुनिया में अभी आए ही थे उनको भी उस शैतान ने गोलियों से भून डाला. उसने उन नर्सो को भी नहीं बख़्शा जो इस वक़्त उन मांओं की मदद कर रही थी किसी को ज़िंदगी देने के लिए.
ये तो एक अस्पताल की कहानी हुई. उसी दिन यानि 12 मई को अफ़ग़ानिस्तान के एक दूसरे प्रांत नानगहर में किसी की मौत हुई. उसमें कई लोग शरीक थे. उस फ़्यूरनल सेरेमनी पर फिर किसी सनकी ने हमला किया. इस बार हमलावर आत्मघाती था. बम बांध कर उस भीड़ में घुसा जो भीड़ किसी की मौत का मातम मना रही थी. उस हमले में 40 से अधिक लोगों की मौत हो गयी और सौ से अधिक अब भी ज़िंदगी और मौत से जूझ रहें हैं.
मैं समझ नहीं पा रही हूं ये कैसा धर्म और कैसा जिहाद है जिसमें इंसान, इंसान नहीं दानव बनता जा रहा है. कौन सा धर्म कहता है कि किसी मासूम की जान लो. क्या क़ुरान में यही लिखा गया है? पैग़म्बर साहेब ने यही समझाया है कि बच्चे जनती औरत, मौत का मातम मानते लोगों को मार डालो. क्या इस्लाम के इस रास्ते पर चल कर इस्लाम को मानने वाले लोग अल्लाह के क़रीब होंगे?
सवाल ये है कि अफगानिस्तान में छोटे छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं को मारकर कौन सा जिहाद किया जा रहा है
जब सारी दुनिया कोरोना जैसी महामारी से लड़ रही, हर दिन हज़ारों लोग वैसे ही मर रहें, ऐसे में कैसे ये आतंकी और लोगों की जान ले रहें हैं. क्या ये सच में इंसान भी हैं? ऊपर से अभी रमज़ान का पाक महीना चल रहा. क्या मायने है इस महीने के और क्या सोचते हैं रोज़ा रखने वाले इन दिनों के बारे में? क्या किसी हदीस में लिखा है कि रमजान के पाक महीने में मासूमों की जान की क़ुर्बानी देने से अल्लाह ख़ुश होंगे. कोई जानकार हैं अगर क़ुरान के तो बताएं.
मैं सच में जानना चाहती हूं जान लेने के इस पागलपन को. आख़िर इस्लाम को मानने वाले ही क्यों पूरी दुनिया में आतंक फैला रहे. कहीं भी आतंकी हमला हो तो हमलावर मुसलमान क्यों होता है. अपवादों का ज़िक्र नहीं कर रही मैं यहां. ना ही किसी को आहत करने का इरादा है. लेकिन ये भी तो देखने वाली बात है कि ऐसी खबरों पर ज़्यादातर मुस्लिम चुपी साध लेते हैं. वो इनके ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं कहते और न लिखते.
क्यों भला? अपने समुदाय की ये चुप्पी उन सनकी आतंकियों को और बर्बर बना रही. ऊपर से लिबरल का तमग़ा लिए घूमते लोग भी ऐसी खबरें पढ़ कर भी नहीं पढ़ने जैसा व्यवहार करते हैं. क्यों नहीं उन्हें दुःख होता है इन मासूमों की मौत पर.
सच में जितनी खबरें छपती हैं या सुनती हूं अक्सर इस्लाम को मानने वाले ही इन साज़िशों के पीछे होते हैं. आख़िर इनका मक़सद क्या है. पिछले ही दिनों अफ़ग़ानिस्तान के एक गुरद्वारे पर हमला हुआ था, हमलावार इस्लाम को मानने वाले थे. कोई तो वजह होगी इसकी. आख़िर जो वो चाहते हैं अगर उन्हें वो मिल जाए तो शायद मासूम और निरीह लोगों की जान लेना छोड़ दे. कब तक ये ख़ूनी सिलसिला यूं ही चलता रहेगा?
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