Allopathy vs Ayurveda: आयुर्वेद को रामदेव से न जोड़िए, उसमें आस्था की वजह और है...
योगगुरु बाबा रामदेव की बदौलत आयुर्वेद और एलोपैथी की बहस ने समाज को दो वर्गों में बांट दिया है. एक वर्ग जहां एलोपैथी के साथ है और इस बात को लेकर एकमत है कि बिना एलोपैथी के समाज की कल्पना नहीं की जा सकती तो वहीं जो आयुर्वेद के पक्षधर हैं उनका कहना है कि उन्हें आयुर्वेद में पूरा विश्वास है जिसका बाबा रामदेव से कोई लेना देना नहीं है.
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आयुर्वेद और एलोपैथी को आमने-सामने रख बहस छिड़ी हुई है. हालांकि मेरे हिसाब से इस बहस की शुरुआत बाबा रामदेव के प्रतिवर्ष किए जाने वाले मीडिया स्टंट के अलावा कुछ और नहीं लेकिन क्योंकि लोग अब इस बहस में अपनी नाक घुसाकर ज्ञान देने ही लगे हैं तो सोचा मैं भी एक अनुभव साझा करूं. मेरा विश्वास आयुर्वेद में अधिक है, और इसका बाबा रामदेव से कोई लेना-देना नहीं है. इसका लेना-देना है मेरे माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, या घर-परिवार-रिश्तेदारी में कुछ अन्य बुजुर्गों द्वारा जीवन जीने की पद्धति से. आयुर्वेद हो एलोपैथी दोनों को एक तरफ़ रखते हुए मुझे हमेशा यही सिखाया गया कि इस पद्धति से जीवन जियो कि निरोगी काया रहे. फिर भी यदि कभी छोटी-मोटी व्याधि लगी भी तो पहला चुनाव आयुर्वेद रहा. मेरे पिताजी ने पिछले 22 वर्षों में एलोपैथी की कोई भी दवा नहीं ली. माता जी ने भी 2001 से 2021 के बीच एक गोली और दो-एक इंजेक्शन के अलावा एलोपैथी की कोई दवा नहीं ली.
ऐसा नहीं है कि इन 20-22 वर्षों में बुजुर्ग होता इनका शरीर व्याधिग्रस्त नहीं हुआ. हुआ! सर्दी, बुखार, दर्द, चोट, थकान आदि रोग लगते रहे लेकिन इसके लिए उन्होंने एलोपैथी की जगह हमेशा ही आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों, घरेलू इलाजों, भोजन-पानी में बदलाव, उपास, व्यायाम एवं मानसिक व्यायाम को तरज़ीह दी. आयुर्वेद को सिर्फ दवाओं से मत तौलिए.
आयुर्वेद और एलोपैथी की बहस ने समाज को दो भागों में बांट कर रख दिया है
यह जीवन जीने का एक सनातन तरीक़ा है. जिसमें यदि सर्दी हुई तो टैबलेट खाने की जगह हल्दी दूध पी लिया, एक दिन उपवास कर लिया, अजवाइन की पोटली से नाक सेक ली और यह समझने की कोशिश की कि आम सर्दी 3 दिन में स्वतः ही जाने लगती है. सर्दी होना बीमारी नहीं है बल्कि भीतर का मल निकालने का शरीर का अपना तरीक़ा है.
आपको एसिडिटी हुई तो आपने एक टैबलेट खा ली, वहीं आयुर्वेद कहेगा पहले ये देखो एसिडिटी हुई क्यों? आपके शरीर को क्या है जो ठीक नहीं लग रहा? उसका इलाज करो, उससे परहेज़ करो. इंस्टैंट इलाज की जगह यदि आपने दो-तीन दिन आयुर्वेदिक पद्धति से अपना इलाज कर लिया तो आप ठीक हो सकते हैं. इसी तरह बुख़ार हुआ तो एक पैरासीटामोल गटकने की जगह काढ़ा पी लिया.
खाने में परिवर्तन किया. कुछ दिन गरिष्ट खाने की जगह हल्का भोजन किया. बुख़ार को बड़ा रोग ना मानते हुए यह समझने की कोशिश की कि आपके शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता अभी ठीक-ठाक काम कर रही है जिसकी वजह से शरीर बाहर से हुए किसी हमले से लड़ रहा है और इसी लड़ाई की वजह से तप रहा है. आयुर्वेद आपके शरीर से 'क्यों पूछने कहता है.
यह मेरा अब तक का निजी अनुभव रहा है कि किसी बीमारी के लिए एलोपैथी डॉक्टर के पास जाओ तो वे आपको सीधे दवाइयां लिखते हैं, न के बराबर ही एलोपैथी डॉक्टर्स ऐसे देखे जो मरीज़ को ढंग से डायग्नोज करें, उसका इतिहास जानें, अधिक समय देकर उसके मर्ज़ की जड़ पकड़ें. ऐसा शायद हमारी पॉपुलेशन से डॉक्टर्स पर बने लोड से या हर डॉक्टर के उतने अनुभवी ना होने की वजह से भी हो सकता है.
जबकि आयुर्वेद में कोई भी डॉक्टर के पास जाओ तो वे पहले पूरा इतिहास खोदते हैं, क्या खाया था? कहां गए थे? क्या पिया था? कैसे जीते हो? वग़ैरह-वग़ैरह. हो सकता है आपका अनुभव अलग रहा हो लेकिन वर्तमान के एलोपैथी डॉक्टर्स को देखते हुए यही लगता है कि वे मरीज़ के शरीर को समझने से अधिक उसके लिए दवाइयां लिखने की हड़बड़ी में रहते हैं जबकि हर शरीर अलग हो सकता है.
दूसरी तरफ़ यह भी सच है कि मॉडर्न साइंस ने हमें कई ऐसे उपकरण दिए हैं, जांच पद्धतियां दी हैं जिनकी वजह से शरीर के भीतर की हर समस्या को कम समय में पकड़ा जा सकता है जबकि वर्तमान आयुर्वेद में समस्या पकड़ने में समय लगता है और इलाज भी धीमी गति से होता है. मॉडर्न साइंस की वजह से ही आज हम पोलियो जैसी कुछ भयावह बीमारियों को जड़ से मिटा पाए हैं.
ये और बात है कि आयुर्वेद को उतनी रिसर्च आदि करने का मौका नहीं दिया गया और हमेशा उसे मॉडर्न साइंस से कमतर दिखाकर उसका मज़ाक ही बनाया गया जोकि बेबकूफी है. यहां किसी भी पद्धति की तुलना करके किसी दूसरे को महान बताना उद्देश्य नहीं है बस इतना कहना है कि आयुर्वेद को ढकोसला समझने की जगह उसे भी विज्ञान समझिए.
और उससे भी अधिक जीवन जीने का ऐसा तरीक़ा जो आपको निरोगी रहने की और रोगी बनने पर जड़ से रोग को ठीक करने की बात कहता है बशर्ते आप उसके लिए अपनी जीवनशैली/खानपान में बदलाव ला सकें.
आयुर्वेद कहता है कि मनुष्य की जननी प्रकृति है और प्रकृति में ही ऐसी जड़ी-बूटियां और तत्व उपलब्ध है जो प्रकृति के एक सृजन को दूसरे से ठीक कर सके. इसके लिए आपको सिंथेटिक रसायनों से बनी दवाइयों के आदी होने की आवश्यकता नहीं. आयुर्वेद प्राकृतिक प्रक्रिया है.
एलोपैथी भी विज्ञान है जो आपके शरीर की डिसाइनिंग को समझते हुए इलाज करता है लेकिन मैं इसे इंस्टैंट फ़ूड की तरह देखती हूँ. ये मेरी कम समझ भी हो सकती है लेकिन अब तक के अनुभव से यही सीखा है कि शरीर को यदि किसी का आश्रित नहीं बनाना है और एक बीमारी को दबाकर कोई अनजान नई बीमारी पैदा नहीं करनी है तो बात-बात में गोलियां गटकने की आदत से परहेज़ करना होगा. बल्कि आयुर्वेदिक पद्धति और जीवनशैली से जीवन जीते हुए जितना हो सके शरीर को ऐसे खाद्य पदार्थ देने होंगे जिससे उसकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता प्राकृतिक रूप से स्वतः बढ़े बजाय किसी सिंथेटिक रासायनिक टैबलेट के.
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