बरेली विधायक की बेटी का संघर्ष क्या उसका अकेले का है?
प्यार को लेकर हर कोई एक ही तरह से सोचता है. खासतौर पर जब मामला अपने घर की बेटी का होता है. यानी बरेली के विधायक की बेटी साक्षी हो या फिर मुंबई के रहने वाले रौशन परिवार की बेटी सुनैना रौशन, हर किसी की समस्या एक ही है कि लड़की ने जो लड़का चुना उससे घर की इज्ज्त मिट्टी में मिल गई.
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उत्तर प्रदेश का शहर बरेली पिछले कई दिनों से साक्षी और अजितेश की लव स्टोरी का साक्षी बना हुआ है. लोगों के लिए ये कहानी भले ही एक आम लव स्टोरी हो. लेकिन राजनीति से जुड़ा होने के कारण ये मामला और भी ज्यादा गर्मा गया है. वजह है कि शहर के विधायक राकेश मिश्रा की बेटी ने भागकर शादी कर ली. इसके बाद सोशल मीडिया पर दोनों ने वीडियो भी डाला कि उनकी जान को विधायक जी से खतरा है. साक्षी के घरवाले यानी विधायक जी के आदमी दोनों के पीछे लगे हुए हैं और एक शहर से दूसरे शहर उन्हें जान बचाकर भागना पड़ रहा है.
आजतक के स्टूडियो पहुंचे साक्षी और अजितेश की आंखों में छिपा दर्द हर उस व्यक्ति का दर्द लगा जो किसी से प्यार करता है. साक्षी अपने घर से क्यों भागी उसके पीछे की कहानी कोई नई नहीं है. भारत के हर घर की कहानी है. कोई छोटा-बड़ा, अमीर और गरीब नहीं, प्यार को लेकर हर कोई एक ही तरह से सोचता है. खासतौर पर जब मामला अपने घर की बेटी का होता है. यानी बरेली के विधायक की बेटी साक्षी हो या फिर मुंबई के रहने वाले रौशन परिवार की बेटी सुनैना रौशन, हर किसी की समस्या एक ही है और वो ये कि लड़की ने जो लड़का चुना उससे घर की इज्ज्त मिट्टी में मिल गई.
पिता से ही है जान का खतरा
हमारे समाज में घर की इज्जत की टोकरी बेटी के ही नाजुक कंधों पर टिकी होती है. बेटी को बेटी नहीं घर की इज्जत कहा जाता है. जबकि घर का चिराग होता है बेटा. बेटा किसी के भी घर की इज्जत को सड़क चलते छेड़ सकता है. और ऐसा करने से घर की इज्जत पर कोई आंच नहीं आती. क्योंकि उनके घर की इज्जत तो घर में बंद है.
समाज में किस तरह का दोगलापन है वो इस बात से समझा जा सकता है कि एक लड़का अपनी शादी अपनी पसंद से करना चाहता है. लेकिन अपनी बहन की शादी भी अपनी ही मर्जी से करवाना चाहता है. वो किसी की भी बहन को पटा सकता है लेकिन इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि उसकी बहन को कोई देख भी नहीं सके. ये वही हैं जिन्हें उनकी पसंद की लड़की मिल जाए तो ही प्यार पर यकीन करते हैं, और नहीं मिले तो सारी लड़कियां खराब.
लेकिन जब बात प्यार करने वाली बेटियों की हो तो कुछ बातें भी कॉमन होगीं. स्टूडियो में बैठी साक्षी ने काफी कुछ बताया लेकिन कुछ बातें जिनपर हम सभी को गौर करना चाहिए उनका जिक्र यहां कर रही हूं.
व्यवहार- हमारे घरों में बेटे और बेटी को पालने का तरीका बहुत अलग है. बेटियों की साथ अलग व्यवहार होता है और बेटे के साथ अलग. बेटों पर कोई पाबंदी नहीं लेकिन सारे नियम और कायदे बेटियों को ही निभाने की हिदायत दी जाती है. घर में व्यवहार के चलते अगर बेटियां कुछ कहें तो माताएं भी उनके खिलाफ खड़ी हो जाती हैं. क्योंकि उन्होंने भी दबकर रहना ही सीखा है.
आत्मनिर्भरता- भाई की आंखें बहन की हर गतिविधि पर लगी रहती हैं, किससे फोन पर बात कर रही है. कॉलेज से आने में 10 मिनट देर क्यों हुई. छत पर क्यों टहल रही है वगैरह-वगैरह. बहन को सही और गलत का पाठ पढ़ाने वाले ये भाई वो होते हैं जिनकी नाक बहनें बचपन में पोंछा करती थीं. बहन कितनी ही बड़ी क्यों न हो लेकिन छोटे भाई भी बहन के रखवाले की तरह बड़ा किया जाता है.
स्वतंत्रता- क्या हमारे घरों की बेटियां संवतंत्र हैं? नहीं. ज्यादातर घरों में बेटियों को उनके जीवन से जुड़े फैसले ही लेने नहीं दिए जाते. बहुत से घरों में तो बेटियों को फोन तक इस्तेमाल करने नहीं दिया जाता. उनके मन मुताबिक शिक्षा भी नहीं दिलवाई जाती. कुछ अच्छा करना चाहें तो भी तमाम तरह के किंतु परंतु होते हैं. क्योंकि अकसर लोग ये कहा करते हैं कि ज्यादा पढ़ लिख जाने से भी बेटियां बिगड़ जाती हैं. इसलिए थोड़ा बहुत पढ़ाओ और बेटी के हाथ जल्दी पीले करके गंगा नहाओ.
अहमियत- पढ़ाई तो बहुत छोटी चीज है. बेटियों की राय भी कई घरों में कोई मायने नहीं रखती. भले ही बेटियां बेटों से ज्यादा समझदार और पढ़ी लिखी हों. घर के फैसले पुरुष ही करते आए हैं. सो उन्हें लगता है कि वो लोगों के जीवन के फैसले भी खुद ही लें. बहुत से घरों में बेटियां अपने पापा से बात करने में भी डरती हैं.
फैसले लेने की बात पर बहुत से माता-पिता ये कहते हैं कि बेटी इतनी समझदार नहीं कि वो अपने फैसले खुद करे. लेकिन उसी बेटी की शादी कर दी जाती है. यानी जिस उम्र में बेटी अपने फैसले नहीं ले सकती, उस उम्र में उसकी शादी कर दी जाती है. वो किसी शादी करने और उस उम्र में मां बनने के लिए कैसे एकदम परफेक्ट हो जाती है. क्या ये दोगलापन नहीं है?
ऐसे घर जहां बेटे और बेटी दोनों हों और मानसिकता वही रूढ़ीवादी हो तो वहां अक्सर बेटियों का जीवन घुटन में ही बीतता है. रोक-टोक, कट्टरपन, असमानता और ऐसी मानसिकता की वजह से लड़कियां इस तरह के कदम उठा लेती हैं. अगर उनके लिए भी जीवन उतना ही सरल हो जितना बेटों का होता है तो शायद चीजें इस स्तर पर न पहुंचें. तब शायद बेटियों को माता-पिता का बुरा व्यवहार नहीं उनका प्यार और त्याग याद आए.
साक्षी और अजितेश फिलहाल भाग रहे हैं. साक्षी के पिता पर दबाब ज्यादा है इसलिए मीडिया में सारे आरोपों को नकार दिया. कह दिया कि बेटी बालिग है अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकती है. जहां रहे खुश रहे. लेकिन डर अभी भी खत्म नहीं हुआ है. इस मामले को देखकर अचानक ही इससे मिलते जुलते मामले की याद ताजा हो जाती है. वो मामला था 2002 का नीतीश कटारा हत्याकांड. उसमें भी यूपी के प्रभावशाली राजनीतिज्ञ डीपी यादव के बेटे विकास ने अपनी बहन के प्रेमी नीतीश कटारा की हत्या कर दी थी. और यही क्यों तमाम ऐसे मामले सुने जाते हैं जहां परिवारवाले बेटी को अपनाने की बात तो करते हैं लेकिन बाद में हत्या हो जाती है. राजनीतिक प्रभाव वाले इन मामलों में और थोड़ी मुश्किलें और होती हैं क्योंकि पुलिस का साथ प्रेमी जोड़ों को नहीं मिलता. साक्षी की भी ममद बरेली के SSP ने नहीं की.
भागने वाले जोड़ों की स्थिति कितनी खराब होती है ये समझा जा सकता है. जिस वक्त इन्हें अपनों के प्यार और विश्वास की जरूरत है उस, वक्त ये अपनी जान बचाकर इधर उधर भाग रहे होते हैं. वजह भले ही दूसरी जाति में शादी बताई जा रही हो, लेकिन असल वजह होती है वो झूठी इज्जत जिसके आगे रिश्ते भी अपनी पहचान खो देते हैं. बाप बेटी के दुश्मन हो जाता है. बचपन में खाना खिलाने वाले हाथ उसे जान से मारने में भी कांपते नहीं. माता-पिता को अपने बच्चों की खुशी सबसे प्यारी होती है, बच्चों के चेहरों की मुस्कान के लिए माता-पिता क्या नहीं करते. लेकिन बात जब प्यार और शादी पर आती है तो यही माता-पिता अचानक बदल जाते हैं. यहां बेटी की खुशी मायने नहीं रखती, तब घर की इज्जत का हवाला देकर मरना मारना तक हो जाता है. घर की इज्जत को अगर इन्हीं सब से जोड़ते रहेंगे तो इज्जत तो लुटेगी ही.
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