'जो बेटी का नहीं हुआ वो जनता का क्या होगा !'
कौन पुत्री अपने पिता की मर्जी के खिलाफ जाना चाहेगी. कोई नहीं. हां ऐसी बेटी अपने पिता के खिलाफ जरूर बगावत कर सकती है जिसका पिता अपनी जातिवादी, ऊंच-नीच वाली सोच के आगे अपनी बेटी की खुशी, फैसले और प्यार को स्वीकार करने को राज़ी ना हो.
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"जो पिता का नहीं हुआ वो किसी का नहीं हो सकता". सोशल मीडिया पर ऐसे जुमलों की बारिश करने वाले विधायक की पुत्री पर हमलावर हो रहे थे. पुत्री का बचाव और पिता पर चढ़ाई करते हुए किसी ने जवाब में लिखा- "जो पुत्री का नहीं हुआ वो जनता का क्या होगा."
कौन पुत्री अपने पिता की मर्जी के खिलाफ जाना चाहेगी. कोई नहीं. हां ऐसी बेटी अपने पिता के खिलाफ जरूर बगावत कर सकती है जिसका पिता अपनी जातिवादी, ऊंच-नीच वाली सोच के आगे अपनी बेटी की खुशी, फैसले और प्यार को स्वीकार करने को राज़ी ना हो. बागी बेटी का समर्थन करने वालों से कहा जा रहा है कि एक बाप बनकर देखो. कोई ये नहीं कह रहा कि बेटी बनकर देखो. दलित बनकर देखो. धर्म-जाति और उंच-नीच को भुलाकर देखो. कोई नहीं कह रहा कि रूढ़िवाद और जाति की दूरियों को मिटा कर देखो.
विधायक की वयस्क सवर्ण बेटी ने अपनी मर्जी से दलित से शादी रचा ली तो हंगामा हो गया
पिता की भावनाओं को महसूस जरूर कीजिए. लेकिन खूबसूरत इंसान के अंदर छिपे बदसूरत इंसान को भी पहचानए. कथनी और करनी मे फर्क भी देखिए. जो जनप्रतिनिधि बनने से पहले अपने भाषणों में जातिव्यवस्था मिटा देने की बात करता हो. जो उस पार्टी का नुमाइंदा हो जो जातिवाद को मिटा देने का दावा करती हो. जो पार्टी सभी जातियों को एक करने की बात करती हो. जिसकी सरकार में अंतर्जातीय विवाह के प्रोत्साहन के लिए प्रोत्साहन राशि प्रदान की जाती हो. ऐसी पार्टी के विधायक नेता या जनप्रतिनिधि का बड़ा दिल और महान सोच होनी चाहिए.
पिता-पुत्री वाले इस वाकिए से सब वाकिफ हैं, इसलिए नाम लिखकर किसी निजी विवाद की नुमाइश करना मुनासिब नहीं. पर इस पर चर्चा को समाज की सोच की बानगी भर मानकर जातिवादी व्यवस्था पर फिक्र करना जरूरी है.
विधायक की बेटी ने अपनी मर्जी का दूल्हा चुना. व्यस्क सवर्ण लड़की ने दलित से शादी रचा ली तो हंगामा हो गया. विधायक की बेटी ने पिता के गुर्गों से अपनी जान का खतरा बताकर आरोप जड़े. पिता पर गंभीर आरोप लगाने वाला पुत्री का वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुआ. फिर पिता ने अपने बचाव में एक चिट्ठी में आरोपों को गलत बताया.
इन सबके बीच सोशल मीडिया इस बात की गवाह बन गई कि हमारा पिछड़ापन कम नहीं हुआ बल्कि बढ़ा है. हम इतना पिछड़े हैं कि हम ऊंच-नीच, दलित-पिछड़े, सवर्ण और हिन्दू- मुसलमान के फेर में इंसान भी नहीं बन पा रहे हैं.
देश बदल रहा है, ये कहना झूठ है. सच ये है कि देश पिछड़ रहा है. देश बदल रहा होता तो बहुत सारी घटनाएं होना बंद हो जातीं. अंतर्जातीय और दूसरे धर्म में शादी करने वालों को मौत के घाट नहीं उतारा जाता. ऑनर किलिंग नहीं होतीं. सवर्ण पिता को दलित दामाद स्वीकार होता. मुस्लिम लड़की हिन्दू लड़के से शादी कर लेती तो ये परिवार मिलकर लड़के को मार-मार कर उसके टुकड़े नहीं कर देते. (ऐसी एक दर्दनाक घटना घटित हुई थी)
धर्म और जाति की नफरत वाली सोच बदलो फिर देश बदलेगा. फिलहाल देश बदल नहीं रहा, पिछड़ रहा है.
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