10 साल पहले आंख मूंद कर लिया गया फैसला आज बदबू दे रहा है
मोदी सरकार शौचालय मोड में है. जहां शौचालय नहीं बने हैं, वहां बनाते जा रही है. जहां हैं, उन्हें बदलने की बात कर रही है. जी हां, अब नंबर आया है रेलवे का. जहां दस साल पहले 1300 करोड़ रुपए खर्च करके लगाए गए बायो-टायलेट को अब बदलने की बात कही जा रही है.
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लंबा सफर, गर्मियों के दिन और बार-बार पानी पीने का मन. ये नज़ारा भारतीय ट्रेनों में बहुत आम है. गर्मी की दोपहरी में पानी पीने के बाद लंबे सफर की ट्रेनों में यात्रियों का टॉयलेट जाना भी बहुत आम है, लेकिन टॉयलेट जाते ही नाक में कपड़ा बांध कर खुद को हल्का करना बहुत मुश्किल हो जाता है. लेकिन अब रेल विभाग कुछ नया ही करने जा रहा है. पीयूष गोयल ने बयान दिया है कि अब भारतीय रेलवे इस तैयारी में है कि ट्रेनों में मौजूद सभी 2.5 लाख टॉयलेट हवाई जहाज वाले वैक्यूम टॉयलेट में बदल दिए जाएं. एक कोच के एक टॉयलेट की कीमत 2.5 लाख रुपए होगी.
यानी सभी बायोटॉयलेट हटा दिए जाएंगे. अच्छा है वैसे भी बायोटॉयलेट काफी गंदे होते थे और उनका इस्तेमाल भी भारतीय सही से नहीं कर पाते थे. IIT चेन्नई (मद्रास) की एक स्टडी के मुताबिक ये नए टॉयलेट जो अब लगभग 5 सालों से भारतीय रेलों का हिस्सा बने हुए हैं. वो चलते फिरते सेप्टिक टैंक ही हैं. ये टॉयलेट 2008 में यूपीए सरकार ने लगवाए थे, और तर्क दिया था कि वह ऐसा DRDO की सलाह पर कर रही है. लेकिन करोड़ाें रुपए का वह खर्च अब कूड़े में जाता दिखाई दे रहा है.
असल में इनका क्या काम था?
ट्रेनों में पिछले 10 सालों से बायो-डाइजेस्टर टॉयलेट लगाए जा रहे हैं जो मेनलाइन एक्सप्रेस और मेल ट्रेनों का हिस्सा बन चुके हैं. ये छोटे सीवेज ट्रीटमेंट सिस्टम टॉयलेट सीट के नीचे लगे होते हैं जिसमें बैक्टीरिया चेंबर के अंदर मानव मल को पचाता है और सिर्फ पानी और मीथेन ही रह जाती है. इसमें से सिर्फ पानी ही रेलवे ट्रैक पर डाला जाता है.
ट्रेनों में लगे बायो टॉयलेट सिस्टम
ये तो अपेक्षित काम था, लेकिन IIT की स्टडी के मुताबिक ये असरदार नहीं हैं. कई सैनिटेशन एक्सपर्ट्स ने भी इसको लेकर अपनी राय दी है कि जो पानी ट्रेन ट्रैक पर फेंका जा रहा है वो सीवेज की तरह ही है. टेस्ट में पाया गया कि मानव मल का कोई ट्रीटमेंट नहीं होता है और न ही ये किसी भी तरह से सुरक्षित है. ये स्टडी IIT ने IndiaSpend के साथ मिलकर 2017 नवंबर में पब्लिश की थी. इसे गेट्स फाउंडेशन ने स्पॉन्सर भी किया था.
अब नज़र डालते हैं बायो-टायलेट कुछ आंकड़ों पर..
1. एक टॉयलेट को बनाने का खर्च - लगभग एक लाख रुपए
2. एक कोच में बायोटॉयलेट - 4 लाख का खर्च.
3. कुल कितने कोच में लगे हैं अभी तक ये टॉयलेट- 2017 तक 93,537 कोच में.
4. कुल जनता का कितना पैसा खर्च- प्रोजेक्ट की शुरुआत मिलाकर 1305 करोड़ हमारा टैक्स मनी.
5. दिसंबर 2018 तक और कितने टॉयलेट बनाए जाने हैं- 1,20,000 बायोटॉयलेट और बनाए जाने हैं यानी 1200 करोड़ का खर्च और.
दुनिया का सबसे बड़ा टॉयलेट?
अगर आपको पता न हो तो बता दूं कि भारतीय रेलवे को दुनिया का सबसे बड़ा टॉयलेट कहा जाता है जो करीब 3980 टन कचरा हर दिन रेलवे ट्रैक पर फेंकता है. ये रिपोर्ट 2013 की है और इतने बायोटॉयलेट बनने के बाद अब ये आंकड़ा आधा तो हो ही गया होगा, लेकिन उतना ही आंकड़ा अब सेप्टिक टैंक की तरह भारतीय रेलों में घूम रहा है.
कितने एक्सपेरिमेंट?
1993 से ही भारतीय रेलवे इस मामले में एक्सपेरिमेंट कर रही है कि कैसे सभी ट्रेनों में बायो टॉयलेट, ऑन ट्रैक टॉयलेट, वैक्यूम टॉयलेट, CRDS यानी कंट्रोल डिस्चार्ज सिस्टम (ट्रेन 30 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पकड़ ले तभी टॉयलेट से बाहर कचरा गिरे), जीरो डिस्चार्ज टॉयलेट जहां सॉलिड वेस्ट स्टोर हो जाता है. ये सारे तरीके अपना चुकी है. या कम से कम प्रोसेस में तो हैं, लेकिन हर तरीके में कोई न कोई खामी होती है.
10 साल पुराना फैसला अभी तक नहीं हो पाया काम?
2008 में रेलवे ने ये तय किया था कि बायो डाइजेस्टर मॉडल ट्रेनों में लगाए जाएंगे. जिसे ग्वालियर स्थित डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट एस्टैब्लिशमेंट (DRDE) द्वारा बनाया गया था. 2018 तक ये पूरी तरह से न लग पाएं हैं और न ही इनका काम ठीक तरह से हुआ है. अगर भारतीय ट्रेनों को देखें तो ये टॉयलेट ओवर फ्लो होते रहते हैं नाक में कपड़ा बांध कर इस्तेमाल करने होते हैं और इतनी गंदगी फैलती है कि लंबे सफर वाली ट्रेनों के यात्रियों को आफत हो जाए.
इसपर जो भी आलोचना की जाती है उसके बारे में यही कहा जाता है कि अभी काम चल रहा है और ये काम आगे भी चलेगा.
तो क्या पब्लिक का पैसा बर्बाद है?
इसे और क्या कहेंगे कि इतनी ज्यादा आलोचना के बाद भी अभी तक बायोटॉयलेट लगाने का काम पूरा नहीं हुआ है और न ही उसकी खामियों को ठीक किया गया है. खुद ही सोचिए 1 लाख का एक टॉयलेट कितना टैक्स का पैसा बर्बाद करता है? 1200 करोड़ खर्च करने का प्रोजेक्ट अभी भी है और रेल मंत्रालय अब नए टॉयलेट लगाने की बात कर रहा है. यानी 1200+1300=2500 करोड़ रुपए भारतीय करदाताओं के खराब किए गए, 10 सालों से तरक्की के नाम पर कुछ नहीं हुआ और अभी भी ऐरोप्लेन वाले वैक्यूम टॉयलेट की बात कही जा रही है. कुल मिलाकर ये सारा एक्सपेरिमेंट सिर्फ भारतीय करदाताओं के साथ ही किया जा रहा है.
बाकी देशों के क्या हाल हैं?
1. जापान..
जहां से बुलेट ट्रेन लाने की बात हो रही है वहां से टॉयलेट टेक्नोलॉजी को लाना चाहिए. जापान में ट्रेन में भी वैक्यूम टॉयलेट होते हैं.
जापानी ट्रेनों के वैक्यूम टॉयलेट
2. नीदरलैंड्स..
2011 में डच नैशनल रेलवे ने ये बताया था कि उनकी टॉयलेटलेस (बिना टॉयलेट वाली) स्प्रिंटर ट्रेनों में प्लास्टिक बैग्स दिए जाते हैं जो इमर्जेंसी के वक्त इस्तेमाल किए जाते हैं अगर यात्री उतरकर स्टेशन पर टॉयलेट नहीं जा पाए तो. ये बैग्स कंडक्टर कम्पार्टमेंट में रखे होते हैं और कप शेप के प्लास्टिक टॉप के साथ आते हैं. इसमें बहुत ज्यादा सोखने वाला मटेरियल होता है जो मानव कचरे को जेल की तरह एक पदार्थ में बदल देता है.
3. रोमानिया..
रोमानिया में भी वैक्यूम टॉयलेट का इस्तेमाल होता है ट्रेनों में.
4. इटली..
इटली में दो तरह की ट्रेनें होती हैं एक वो जिनमें होल्डिंग टैंक होते हैं और दूसरी वो जिसमें CRDS सिस्टम लगा होता है. दोनों ही तरह के टॉयलेट काफी साफ होते हैं और ट्रैक की सफाई का सिस्टम भी होता है.
5. फ्रांस..
फ्रांस की ट्रेनों में अधिकतर वैक्यूम टॉयलेट इस्तेमाल होते हैं या फिर वहां होल्डिंग टैंक का इस्तेमाल होता है. पर ज्यादातर वैक्यूम टॉयलेट के आधार पर काम करती हैं. बहुत ही कम पुराने समय की ट्रेनों में होल्डिंग पाइप 10सेंटीमीटर डायामीटर का होता है और उनमें ऑन द ट्रैक सिस्टम लगा हुआ है.
6. ईजिप्ट..
ईजिप्ट में एशियन स्टाइल टॉयलेट ज्यादा लगे होते हैं ट्रेनों में लेकिन वो साफ होते हैं और उनमें होल्डिंग टैंक भी होता है.
7. बुल्गारिया..
बुल्गारिया में भी ऑन द ट्रैक वेस्ट सिस्टम है. यहां भी कचरा सीधे रेलवे ट्रैक्स पर ही जाता है. हां कुछ एक्सप्रेस गाड़ियों में होल्डिंग टैंक हैं. toilet-guru.com के मुताबिक ये भी गंदगी से भरपूर रहते हैं.
8. बेल्जियम..
बेल्जियम में भी फ्रांस, जापान की तरह वैक्यूम टॉयलेट हैं और सफाई के मामले में ये काफी बेहतर हैं.
अमेरिका, चीन, स्पेन जैसे देशों में भी होल्डिंग टैंक, वैक्यूम टॉयलेट जैसी सुविधाएं ट्रेनों में दी गई हैं और सफाई पर पूरा ध्यान दिया जाता है.
कुल मिलाकर गंदगी के मामले में भारतीय ट्रेनों का कोई सानी नहीं. कुछ सवाल हैं जो अभी भी सोचने योग्य हैं..
1. अगर 2008 में ही ये फैसला ले लिया गया था कि ट्रेनों में बायो टॉयलेट लगाए जाएंगे तब से लेकर अब तक इसपर परीक्षण क्यों चल रहा है?
2. वैक्यूम टॉयलेट लगाने का फैसला लेने के बाद कितने समय तक ये काम होगा?
3. आखिर क्यों हमेशा भारतीय रेलवे ट्रायल एंड एरर वाला सिस्टम अपनाती है?
4. खर्च में तो कोई कमी नहीं होती फिर क्यों बेहतर देशों की तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया जाता?
5. क्या ये टॉयलेट भी ट्रायल एंड एरर पर बनाए जाएंगे?
6. इनकी ट्रेनिंग भारतीयों को कैसे दी जाएगी?
ये सारे सवाल वाजिब भी लगते हैं और शायद रेल मंत्रालय को इसका जवाब दे देना चाहिए. बुलेट ट्रेन तो आ जाएगी, लेकिन वहां भी टॉयलेट की समस्या ऐसी ही रही तो यकीनन भारत में गंदगी और बढ़ेगी ही.
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