Burari Death mystery: अकेले शहर में इकट्ठे 11 मौत !
बुराड़ी की घटना सिर्फ 11 लोगों की मौत का मामला नहीं है. अकेली दिल्ली में हर कोई अपनी ही दुनिया का कैदी है. यहां जिसने खुद को फांसी नहीं भी लगाई, वो भी घुट रहा है. अपनी ही सांसें बोझ बनती चली जा रही हैं, क्योंकि कोई इस अकेलेपन को बांटने वाला नहीं है.
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क्यों दिल्ली इतनी अकेली है? इतनी अकेली कि 11 लोगों की मौत हो जाती है, लेकिन किसी को पता नहीं चलता. कौन, कैसे, क्या, कहां... न जाने कितने सवाल कौंधते हैं ज़ेहन में, लेकिन जवाब कोई नहीं मिलता. मिले भी तो कैसे, सब अकेले हैं, कहीं ना कहीं सब बीमार हैं. अपनी ही दुनिया के क़ैदी. यहां जिसने खुद को फांसी नहीं भी लगाई, वो भी घुट रहा है. अपनी ही सांसें बोझ बनती चली जा रही हैं, क्योंकि कोई इस अकेलेपन को बांटने वाला नहीं है.
बुराड़ी की घटना, न सिर्फ एक ही परिवार के 11 लोगों की मौत का मामला है, बल्कि एक ऐसा मामला भी है जहां एक संयुक्त परिवार में भी इस शहर के लोग इतने अकेले हो जाते हैं कि उनके मन में क्या चल रहा है, उनके दोस्तों तक को पता नहीं. हर किसी के पास अपनी ही कहानी है, क्योंकि हर कोई एक ऐसा ही जीवन जी रहा है, एक ऐसे शहर में जहां की आबादी 2 करोड़ से भी ज़्यादा है. भाटिया परिवार की कहानी चाहे जो रही हो, उनकी मौत की वज़ह भी चाहे जितनी लौकिक या पारलौकिक हो, लेकिन 11 मौतों की एक कहानी हो ऐसा आम तौर पर देखने को मिलता नहीं. वो तभी होता है जब अंदर की शांति हम कहीं और ढूंढ़ने पहुंच जाते हैं, एक ऐसी दुनिया तलाशते हैं जो इस दुनिया से बेहतर हो, जहां वो ग़म ना हों, जिनसे हम हर रोज़ दो-चार होते हैं.
बड़ी विचित्र स्थिति है कि घर में शादी की शहनाई बजने वाली हो, हर कोई खुश हो या फिर खुश होने का ढोंग कर रहा हो, लेकिन अंदर ही अंदर इतना बिखराव हो कि रात के अंधेरे में खुशी ढूंढ़ते हुए खुद को फांसी के फंदे से लटका ले. 11 शख्स एक परिवार से बेशक हों, लेकिन उनमें उम्र के हिसाब से कई विभिन्नताएं हैं. तकरीबन 80 साल की बुजुर्ग महिला भी हैं और 12 साल के दो मासूम बच्चे भी. बच्चों से सुख-दुख के विमर्श की तो बात छोड़िए, उन्हें भावों का मतलब भी शायद ही पता हो. फिर ऐसा क्या हुआ कि सब एक साथ उस अनजान रास्ते पर चल पड़े, जिनसे वापस लौट कर आने की कोई उम्मीद थी ही नहीं.
ये तो बात हुई उस संयुक्त परिवार की जहां लोगों ने फैसला तो इकट्ठा किया, लेकिन फैसला था मौत का. हो सकता है अकेलापन ना भी हो, मकसद भी मौत को गले लगाने का ना हो, लेकिन बड़ी मिस्ट्री तो यही है ना कि आखिर इस पूरे रहस्यात्मक खेल का मतलब कुछ तो हासिल करना रहा ही होगा, चाहे वो मौत के बाद मोक्ष हो या फिर आने वाली ज़िंदगी में खुशहाली की खोज. दिल्ली जैसे शहर में वैसे भी आपको कितने संयुक्त परिवार मिलेंगे, मेरी नज़र में तो अब ऐसे काफी कम परिवार बचे हैं. समझ लीजिए, जब ये कहानी एक ऐसे परिवार की है जो साथ-साथ रहते थे, बात-चीत करते होंगे, सुख-दुख भी बांट लेते होंगे, फिर वो परिवार जिन्हें हम एकल परिवार या न्यूक्लियर फैमिली कहते हैं, उनमें तो अकेलेपन की पराकाष्ठा ही होगी फिर.
मैं भी यूं तो दिल्ली का नहीं हूं. देश की राजधानी में रहने वाले ज़्यादातर बाशिंदों की तरह. अपने परिवार और जड़ों से दूर एक बेहतर भविष्य ढूंढ़ने एक छात्र के तौर पर आया और फिर यहीं बस गया. दिल्ली में बिताए तकरीबन 20 साल का अनुभव बताता तो यही है कि हर कोई खुशियां ढूंढ़ रहा है. कभी इसमें तो कभी उसमें, लेकिन अकेले-अकेले. एक शहर जो दिल वालों का कहा जाता रहा है, वहां पता नहीं दिल ही नहीं लगता, ये विडंबना नहीं तो और क्या है?
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