क्या एक कश्मीरी पंडित को अपनाने को तैयार है कश्मीर?
कश्मीर से आर्टिकल 370 और 35 (ए) हटाए जाने से सारा देश खुश है मगर उन कश्मीरी पंडितों का क्या जिन्होंने भय के साय में घाटी छोड़ी थी. सवाल है कि क्या उन कश्मीरी पंडितों को अपनाने को तैयार है कश्मीर ?
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जहां पूरे देश में कश्मीर से आर्टिकल 370 के हटने को एक त्योहार की तरह देखा जा रहा है. वहीं मेरे जैसे कश्मीरी हिन्दू के लिए ये बहुत संवेदना से भरा हुआ एक जीता जागता सपना पूरे होने जैसा है. पर अब भी मेरे अंदर की टीस जैसे कहीं अटक सी गई है. कुछ है जो अब भी चुभ सा रहा है. शायद ये कि इस समय मुझे वहां मेरे कश्मीर में होना चाहिए था. दिल्ली की हवाओं में कुछ खिचाव सा लगता है. अपने दादाजी की लिखीं आतुरता से भरी चिट्ठियां याद आ रही हैं. उनकी राख में झुलसती कलम याद आ रही है. जो कश्मीर में चल रहे बुरे हालातों को रोकने के लिए अपनी जान तक देने के लिए तैयार हो गई थी, उसकी एड़ियां फट रही थी पर वो चलती जा रही थी लिखती जा रही थी.
भले ही जम्मू कश्मीर को लेकर सरकार ने बड़ा फैसला लिया हो मगर एक टीस है जो अब भी कश्मीरी पंडितों के दिल में है
मैंने आज से 2 साल पहले लिखी अपनी कविता, जो हर कश्मीरी हिन्दू की आवाज़ है उसमें ये कहा था- 'मैं लौटूंगा' 'मैं लौटूंगी' जिसकी छोटी सी पंक्ति नीचे है वो पढ़िए फिर आगे मेरे विचारों पर ध्यान दीजिये.
मेरे चिपटे हुए मौन पर, मौन रखने वालों
उम्मीद पर दुनिया कायम है
हौसला बुलंद है
याद रखना हर चिनार के पत्ते पर नाम
मेरा होगा
हर मुरझाये फूल पर सवेरा होगा
मेरा घर फिर मेरा होगा
हां!! मैं लौटूंगा ज़रूर लौटूंगा...
इरफान हफीज लोन के घड़ियाली आसूं इस बात का सबूत बन गए हैं कि इतिहास को जाहिल बनाने में इनके जैसे नेताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी. मैं आज भी इस असमंजस में हूं कि भारत के इतिहास में हुए विभाजन और कश्मीरी हिन्दुओं के विस्थापन की जवाबदेही किसकी है? अपनी कुर्सी सेकने वाले पत्रकारों की? वोट बैंक की राजनीति करने वाले नेताओं की? या स्वार्थ की चादर बिछाकर सोने वाले कुछ मतलबी कश्मीरियों की? जिन्होंने 27 साल के इस मुद्दे पर कभी प्रश्न नहीं उठाया? इसीलिए आज दुख होता है कि मेरा जन्म 1990 में हुआ. मैंने सब कुछ देर से समझा और जाना. गुस्सा था. चिढ़ थी कि क्यों उस दिन अपनी ही कुलदेवी के मंदिर में अपनी ही जन्मभूमि के ऊपर विचार रखने से मुझे मेरे ही परिवार ने रोका.
मुझे गुस्सा आता है कि अपने कश्मीर में जब मुझे पत्थर मारा गया तो मेरी चीख क्यों नहीं निकली? कितना छोटा और लाचार बना दिया गया मुझे. आखिर क्यों? आज अगर कश्मीर का विकास होगा तो क्या मुझे ये पूछने का हक़ है कि विकास में, मैं कहां हूं? क्या मैं 'वितस्ता' (झेलम) की बेटी नहीं हूं? अगर बिना ज्ञान के वहां रह रहे कश्मीरी मुस्लिम 370 को वापस लाने के लिए इतने आततायी हैं तो इसका अर्थ केवल यही है कि वो कश्मीर पर राज करना चाहते हैं. वो कश्मीर से इश्क़ नहीं करते. वो इश्क वो जूनून तो हमारे ही अंदर है जो कश्मीर में ना रहते हुए भी उसका अच्छा और उसके विकास के बारे में ही सोचते हैं.
मेरी तड़प और मेरी चीख पर हथौड़ा मारा गया क्यों? क्योंकि मैंने कश्मीर को संजोय रखने का प्रयास किया. आज लगभग सभी कश्मीरी हिन्दू कश्मीर से बाहर रह रहे हैं और जो वहां रह रहे हैं वो बहुत कुछ चुपचाप झेल रहे हैं. मेरा अभी कुछ दिन पहले भोपाल जाना हुआ. जहां मुझसे आईएएस टॉपर मिली जिसका जन्म वहीं हुआ है और उसने अपनी पूरी पढ़ाई वहीं की है. उस बच्ची को देखकर और सुनकर मेरे मन में भी यही विचार आया कि ऐसा कश्मीर में संभव क्यों नही है?
हमारे ही परिवार की एक लाड़ली बेटी जिसने कुछ समय अपनी स्कूलिंग कश्मीर में ही की उस छोटी 8 साल की बच्ची ने मुझे तब बताया था कि कैसे जब सारे बच्चे एक होकर उसे हिन्दू होने के लिए कोसते हैं तो उसकी बेस्ट फ्रेंड भी उन्हीं की भाषा बोलती है. क्या ये मान लिया जाना चाहिए कि कश्मीर में चल रही लड़ाई केवल राजनीतिक है या इसे धर्म और समाज की लड़ाई भी कहा जा सकता है?
मुझे किसी से नफरत नहीं है पर अगर मैं 27 साल से कश्मीर में नहीं हूं तो कोई तो मेरा दुश्मन है. क्या वो मुझे कश्मीर से फिर से जुड़ने देगा? क्या वो मेरे मुरझाये चिनार पर पानी की छींटे छिड़केगा? मैं सरकार के इस फैसले के समर्थन में हूं. एक कश्मीरी हिन्दू और उससे पहले एक भारतीय होने के नाते ये फैसला मेरे लिए किसी साहसी फैसले से कम नहीं है. बस बात इतनी है कि मुझे अपनाने के लिए क्या मेरा कश्मीर तैयार है?
कांगड़ी से निकलती हुई प्यार की चिंगारियां
दही को आज भी पंजों पर रखकर खाता हूं
सुबह मां चूमती थी जब माथा
मैं उसकी अठ की चाशनी से आज भी पिघल जाता हूं
मिटटी के चूल्हे पर उबलता दमालू
अब स्वप्न में ही चुरा पाता हूं
उठा कर बर्फ के प्रसन्न टुकड़े
अब कहां उससे में खेल पाता हूं
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