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Updated: 18 मई, 2019 05:48 PM
गिरिजेश वशिष्ठ
गिरिजेश वशिष्ठ
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फिर से दिल्ली की सड़कों पर कुछ मोमबत्तियों के धागे सुलगे हैं. फिर उनसे धुएं की सफेद लकीरें आसमान में गई हैं. फिर कुछ सौ लौग सड़क पर आए हैं और फिर कुछ गुस्सा है. कुछ नारे हैं कुछ बातें हैं और साथ में कुछ राजनीति है जो मोमबत्तियों के इस धुएं से सत्ता का एक टुकड़ा हड़प लेने को आतुर है.

लेकिन मोमबत्तियां गवाह हैं. वो इंडिया गेट गवाह है जो इन शमाओं के आस पास मंडराते तरह तरह के परवानों की एक-एक हरकतों का गवाह रहा है. इंडिया गेट जानता है कि वो अगर मुंह खोल दे तो यहां मोमबत्ती लेकर आए लोगों की बोलती बंद हो जाए.

इंडिया गेट देख रहा है कि कैसे मोमबत्तियां जलाकर घर लौटी दिल्ली, फिर से बेटियों और मांओं और बहनों के नाम से पुकारी जाने वाली औरत को सामान की नजर से देखता है. कैसे यही दिल्ली वाले सड़क पर खड़ी लड़की को प्रताड़ित करते हैं और कैसे छह साल की बच्ची से लेकर 90 साल की उम्र की औरत उनके लिए सिर्फ मादा होती है.

कैंडिल मार्च, महिला सुरक्षा, विरोध, दिल्ली, इंडिया गेटदिल्ली में कैंडिल मार्च सिर्फ दिखावा मात्र है क्योंकि असल में उसका असर कहीं नहीं दिखता.

इंडिया गेट कहना चाहता है कि कैसे यही मोमबत्ती आयोजन दिल्ली वाले कुछ लोगों के लिए मादा तलाशने के एक अवसर में बदल जाते हैं. लेकिन इंडिया गेट क्या कहे उसे बनाने वाले ने मुंह नहीं दिया लेकिन जिनके पास मुंह है वो सिर्फ उसे राजनीतिक के खेल के लिए इस्तेमाल करना चाहता है.

इंडिया गेट जानता है कि यहां आए कई लोगों के लिए औरत एक आंकड़ है. वो 50 फीसदी का वोट बैंक है और पचास फीसदी की भावनाओं के कारोबार का एक अवसर है. वे आएंगे चले जाएंगे लेकिन हाल वही बना रहेगा.

इंडिया गेट के पास मुंह होता तो वो पूछता कि तुम्हारे पास मोम बत्ती है तो वो हाथ क्यों नहीं है जो बसई दारापुर में दरिंदगी कर रहे लोगों का हाथ पकड़ पाता, वो हाथ कहां था जो सालों से चौराहे पर खड़े होकर लड़िकयों की छेड़छाड़ करने वालों को कभी नहीं रोकता था. क्या दिल्ली का हाथ सिर्फ मोमबत्ती को पकड़ सकता है.

अगर मोमबत्ती वाले हाथ लिए दिमाग इतना ही संवेदनाओं से भरे हैं तो फिर दिल्ली में ये गुंडे, बदमाश, दरिंदे, बलात्कारी, छेड़छाड़ करने वाले और बच्चों से बदसलूकी करने वाले कहां से आ रहे हैं. उन बच्चों को ये दिमाग संस्कार क्यों नहीं देते जो औरत की गैरत को शिद्दत से देखना नहीं चाहते, क्यों इन्सान को सामान समझने की सोच जन्म ले पाती है. कहां से ये बच्चे प्रेरणा लेते हैं जो मूछ के बाल आने से पहले किसी निर्भया तो किसी और लड़की को सिर्फ बुरी नजर से नहीं देखते बल्कि बुरा काम करने से भी नहीं चूकते.

इंडिया गेट पूछ रहा है कि तुम्हारी दिल्ली में रोज़ पांच लड़िकियों से दुष्कर्म, 12 महिलाओं से छेड़खानी, 26 महिलाओं से चेन स्नैचिंग की वारदात हो जाती है. इंडिया गेट पूछ रहा है कि इससे भी बीस गुना लड़कियों को कौन है जो थाने में रिपोर्ट तक लिखाने से रोक देता है. वो खौफ कौन समाज़ डालता है. अकेले इस साल जनवरी में आपकी मोमबत्ती आपके नारे, आपके पोस्टर और आपकी नेतागीरी के बावजूद कैसे इस साल 1 जनवरी से 12 जुलाई तक 1076 महिलाओं के साथ रेप हो गया. जी आप ही के शहर ने 1076 औरतों से रेप किया आप ही के शहर की वो औरतें शिकार बनीं. इसी शहर ने 2,574 महिलाओं के साथ छेड़खानी की. ये लोग कई बार उनसे ज्यादा हैं जो मोमबत्ती लेकर पहुंचते हैं.

इंडिया गेट अगर सोच सकता है तो आप भी तो सोच सकते हैं. समाज भी तो सोच सकता है. इंडिया गेट तो पत्थर का है लेकिन आप नहीं हैं. आपका दिल पत्थर का नहीं है. अगली बार मोमबत्ती लेकर जाने से ज़रूरी है अपने बच्चों को सिखाएं कि औरत मादा नहीं होती वो मां होती है, बहन होती है. उसकी भी भावनाएं होती हैं उनका भी दिल दुखता है उन्हें भी दर्द होता है और उनको भी तुम्हारी तरह जीने का हक है. वो धरती पर मोमबत्ती की तरह जलने और धुआं हो जाने के लिए नहीं आती बल्कि छा जाने के लिए आती हैं

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गिरिजेश वशिष्ठ गिरिजेश वशिष्ठ @girijeshv

लेखक दिल्ली आजतक से जुडे पत्रकार हैं

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