आखिर कैसे छठ पर हमने बिहारियों का नहीं, अपना मजाक बनाया है?
न्यूक्लियर फैमिलीज़ बनाते बनाते हम इतने परमाणु हो गए हैं कि पूजा पाठ क्रिया कार्य में भी सारे परिवार को इकट्ठा करना बंद कर दिया है. इसके ठीक उलट, छठ पर गांव गयी एक मित्र के द्वारा पता चला कि करीब चालीस पचास परिवार के सदस्यों के साथ वह छठ मना रही है. इतने लोग तो हमारी पूरी गली में इकट्ठे करने मुश्किल हैं. इतने रिश्तेदार मैंने इकट्ठे साथ कब देखे थे, मुझे याद नहीं.
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आज से कोई 5 साल पहले, पहली बार छठ पूजा का हिस्सा बना था. उससे पहले तक स्कूल में छठ मनाने वाले बच्चों का मज़ाक बनते बहुत देखा था. ये कड़वा सच है पर दिल्ली मुम्बई शहर में आप हर ट्रेडिशनल एक्ट या रिलिजियस व्यूज़ का मज़ाक बनते देख सकते हैं. जब 6th में था तब क्लास के इकलौते बिहारी लड़के को दीपावली के दो हफ्ते बाद तक छुट्टी मिलती थी और हम गैंग बनाकर उसे छट्ठो माई कह कह के चिढ़ाते थे. बड़े होने पर समझ आया कि दरअसल हम भेड़ चाल का हिस्सा थे. इसमें बहुत बड़ी कमी टीचर्स की भी थी जो ऐसी बुलिंग देखकर रोकने टोकने की बजाए हंस दिया करते थे. इसका कारण सिर्फ और सिर्फ यही समझ आता है कि दिल्लीवासियों के पास दशकों से फ़ुरसत न मिलने का बहाना है.
छठ के दौरान एकसाथ पूजा करती महिलाएं
यूं बिना फ़ुरसत के या तो कोई त्योहार मनाया नहीं जाता, या मनाया जाता है तो ऐसे कि काम निपटा दिया हो. - एक घण्टे में हवन पूजा कराएं, 10 मिनट की मिनी आरती, रात भर जागरण की बजाए साईं संध्या कराएं, आदि शॉर्टकट वाले पूजा पाठ के स्लोगन मैंने यहीं देखे. अब यहां जब कोई बताता है कि छठ की तैयारी सही मायने में तीन दिन का पारिवारिक कार्यक्रम है, तब हमारे मुंह से निकलता है कि हट, इतनी फ़ुरसत किसे है.
बीते दिन एक हवन शुद्धि कार्यक्रम का हिस्सा बनने का मौका मिला. वहां जाना कि 4 घण्टे से पूजा चल रही है और ये कम है, सही तरीके से किया जाए तो यह पूजा छः घण्टे में सम्पूर्ण होती है. अपने घर की बताऊं तो हाल ही में हवन कराया था. पंडित जी ने सवा घण्टे में नव ग्रह पूजा समेत हवन भी पूरा कर दिया.
अगेन, शॉर्ट कट, न्यूक्लियर फैमिलीज़ बनाते बनाते हम इतने परमाणु हो गए हैं कि पूजा पाठ क्रिया कार्य में भी सारे परिवार को इकट्ठा करना बंद कर दिया है. इसके ठीक उलट, छठ पर गांव गयी एक मित्र के द्वारा पता चला कि करीब चालीस पचास परिवार के सदस्यों के साथ वह छठ मना रही है. इतने लोग तो हमारी पूरी गली में इकट्ठे करने मुश्किल हैं.
इतने रिश्तेदार मैंने इकट्ठे साथ कब देखे थे, मुझे याद नहीं. अब समझ आता है कि ऐसी और भी कई वजह, या टीस हैं जो जड़ें छोड़ने के बाद फूहड़ मज़ाक में बदल जाती हैं. अब छठ मनाते हुए किसी की तसवेव्र देखता हूं, किसी परिवार को साथ में कोई क्रिया करते, हंसते खेलते मौज और चुगली करते देखता हूं तो एहसास होता है कि बचपन में हम सब मिलकर का इकलौते बिहारी का नहीं, अपना मज़ाक उड़ा रहे थे.
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