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Updated: 07 जून, 2016 08:23 PM
अक्षय दुबे ‘साथी’
अक्षय दुबे ‘साथी’
  @akshay.saathi
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व्यवस्था का अमृत जब लापरवाही से परोसा जाता है तब उसे जहर बनते देर नहीं लगती और जनता अमृत के भ्रम में विषपान करती हुई दम तोड़ने लगती है. ऐसी घटनाओं के दूरगामी परिणाम लोकतंत्र के लिए भयावह स्थिति पैदा करने वाले साबित होते हैं.  

ऐसी ही कुछ घटनाएं घटी है छत्तीसगढ़ के बीजापुर और जांजगीर जिले में, जहां राज्य सरकार की ‘अमृत योजना’ के तहत आंगनबाड़ी द्वारा दिए जाने वाला दूध पीने से दो बच्चों की मौत और पांच बच्चों का स्वास्थ्य बिगड़ गया है. शासन की योजना के अंतर्गत आंगनबाड़ी आने वाले इन मासूमों के लिए यह ‘अमृत योजना’ विषधर नाग की तरह जहरीली साबित हुई.

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 राज्य सरकार की ‘अमृत योजना’ के तहत आंगनबाड़ी में बच्चों को दिया जाता है ये दूध

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स्वाभाविक है कि सरकार की संवेदना पीड़ित परिवारों के प्रति होगी, परिणामस्वरूप मुआवजा भी दिया गया होगा लेकिन इस चूक की वजह से हुई मौत की भरपाई, शासन और उनकी योजनाओं से उठते विश्वास की भरपाई कौन करेगा? ऐसे हादसों की जिम्मेदारी कौन लेगा? ऐसी कौन सी वजह है कि ऐसी घटनाएं आम हो रही हैं? ऐसे तमाम सवालात आज हमारे सामने है जो हमारे लोकतांत्रिक समाज के लिए किसी खतरे से कम नहीं है. 

यह पहला मौका नहीं है जब छत्तीसगढ़ में इस तरह की घटना घटी हो बल्कि शासन की लापरवाही की एक लम्बी फेहरिस्त है, जो मानवीय संवेदनाओं से हीन चेहरे को बेनकाब करने के लिए काफी है. 

2011 में बालोद में मोतियाबिंद आपरेशन के लिए शिविर लगाया गया था जहां 48 लोगों की आंखो की रौशनी शासन की चूक से अंधेरो में तब्दील हो गई थी. आमतौर पर शिविरों में वे लोग आते हैं जो बड़े-बड़े अस्पतालों में इलाज कराने की हैसियत नहीं रखते. वे इलाज के लिए शासकीय योजनाओं पर ही निर्भर होते हैं, पर ऐसी ह्रदय विदारक घटनाओं के दुष्प्रभाव से उनका विश्वास और हौसला टूटता दिखाई दे रहा है. 

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यह एक मौका था सरकार के पास कि वे आगे से सावधानियां बरते और खाद्य तथा औषधियों पर मानकों के प्रति कठोर रवैया अपनाकर स्वार्थनिहित चूकों की आजादी की बजाय नियमों के पालन में सख्ती से पेश आए, लेकिन 8 नवम्बर 2014 को बिलासपुर जिले के सकरी, पेंड्रा, गौरेला और मरवाही में जो कुछ हुआ वह छत्तीसगढ़ सरकार की कलई खोलने के लिए काफी है. जब वहां लगे नसबंदी शिविरों में अमानक दवा ‘सेप्रोसीन’ की वजह से 13 महिलाओं की मौत हो गई थी और उसी समय ये जहरीली गोलियां खाकर और पांच लोग भी कालकलवित हुए थे, तब छत्तीसगढ़ की सरकार कार्यवाई करने की बजाय इस मामले की लीपापोती में लग गई थी. गमगीन जनता के आंसुओं को नजरअंदाज करते हुए मुख्यमंत्री का बयान आया था कि ‘स्वास्थ्य मंत्री को इस्तीफा देने की कोई जरूरत नहीं है, उन्होंने थोड़े ही ऑपरेशन किया है’. वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री साहब उपलब्धियों की पगड़ी अपने सर बांधकर स्वयं को चाऊँर वाले बाबा कहलवाने में कतई परहेज़ नहीं करते. 

खैर सवाल यहां राजनीतिक बयानबाजी का नहीं बल्कि शासनतंत्र की लापरवाही से पीड़ित लोगों को मिल रही मानसिक यंत्रणा का है, जो शासन की योजनाओं में बतौर सहयोगी या लाभार्थी शरीक होते हैं. मगर तंत्र की लचर व्यवस्था की वजह से जनता के हिस्से में अंधकार और मौत के सिवा कुछ नहीं आता. परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता की सहभागिता कम होने लगती है. उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ में हुए अंखफोड़वा कांड और नसबंदी कांड के बाद लोग सरकारी शिविरों में जाने से हिचकने लगे हैं. अब मौत के मुंह में कौन अपने बच्चों को झोंकना चाहेगा.

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कुल मिलाकर आम जनता के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं से जनता का मोहभंग होता जा रहा है, साथ ही ये पीड़ित तबका खुद को बहुत असहाय महसूस कर रहा है. ऐसे में व्यवस्था से विश्वास का उठना आश्चर्य वाली बात नहीं है, लेकिन चिंताजनक ज़रूर है, क्योंकि लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत या उद्देश्य तंत्र में लोगों की सहभागिता बढ़ाना है ना कि ऐसे कृत्यों के मार्फत डर और अविश्वास पैदा करना. जनता को अच्छी नीतियों के साथ-साथ अच्छी नीयत की भी दरकार है ताकि फिर कोई अमृत योजना किसी के लिए जहर बनकर प्राण घातक ना बनने पाए.

लेखक

अक्षय दुबे ‘साथी’ अक्षय दुबे ‘साथी’ @akshay.saathi

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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