मैंने जीजस को 'मनुष्य' कहा और मुझे हॉस्टल से निकाल दिया गया
उस घटना को 11 साल हो चुके हैं. लेकिन आज भी हर बार जीजस के बर्थडे पर याद आता है कि उनके सो कॉल्ड मानने वालों ने उनमें सचमुच विश्वास करने वाली 24 साल की एक लड़की के साथ क्या सलूक किया था.
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जीजस के साथ मेरा पुराना रिश्ता है. वो मेरे लिए वो नहीं, जो ईसाइयत के वैध दावेदारों के लिए हैं. शायद इस बात ने मुझे जीवन में थोड़ी तकलीफ भी पहुंचाई है. इसलिए न जीजस मुझे भूलते हैं और न ही वो घटना.
"भौतिक रूप से जीजस एक सामान्य मनुष्य की तरह ही प्रकट हुए थे. जिस तरह महात्मा बुद्ध की तनकर बैठी हुई मुद्रा को बाद के बौद्ध धर्म की मुलम्मा चढ़ी हुई प्रतिमा के द्वारा धुंधला कर दिया गया है, उसी तरह जीजस के कृशकाय और कर्मठ व्यक्तित्व को भी अयथार्थ श्रद्धा द्वारा थोप दी गई अवास्तविकता और रूढिवादिता से विकृत कर दिया गया है. जीजस एक लकड़हारे के घर में पैदा हुए निर्धन शिक्षक थे और लोगों से उपहार स्वरूप प्राप्त होने वाले भोजन पर गुजारा करते थे. वे जूडिया के धूल भरे और धूप से तपते देहातों में घूमते रहते थे. इसके बावजूद उन्हें तस्वीरों में हमेशा साफ सुथरा, बालों में कंघा किए गए, साफ-सुथरे परिधानों में कुछ इस तरह दिखाया जाता है, मानो वे हवा में उड़ रहे हों. अगर हम जीजस की पूरी कहानी में मुलम्मे वाले हिस्से को अलग कर दें तो वे एक मनुष्य थे और उनका व्यक्तित्व जबर्दस्त रूप से आकर्षक था".
यह हिस्सा एच.जी. वेल्स की किताब ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द वर्ल्ड का है. किताब में जीजस पर एक पूरा अध्याय है. जाहिर है, ये किताब जीजस को वैसे नहीं देखती, जैसे पोप, वैटिकन और ईसाई धर्म को मानने वाले देखते हैं. धर्म तो मैंने वो वाला भी कभी नहीं माना, जिसमें पैदा हुई थी. तो जीजस को उस धर्म के महान प्रभु की तरह कैसे देखती. लेकिन जिस दुनिया में हर चीज को देखने के रेडीमेड तरीके बचपन से दिमागों में ठूंसे जाते रहे हों, वहां हर चीज को अपने ही तरीके से देखने, देख सकने की इजाजत कहां है. ये बात है दिसंबर 2004 की. मैं मुंबई में बॉम्बे सेंट्रल के पास एक ईसाई मिशनरी के हॉस्टल में रहती थी. मेरी रुममेट उदयपुर की एक बोहरा मुस्लिम लड़की थी. हॉस्टल में क्रिसमस सेलीब्रेशन की तैयारियां चल रही थीं. एक रविवार की दोपहर रुममेट से धर्म और ईसाइयत पर बहस छिड़ गई. मैंने वेल्स की किताब से ये हिस्सा पढ़कर सुनाया. मैंने जीजस को भगवान नहीं, बल्कि एक समाज सुधारक और "महान हृदय वाला मनुष्य" कहा. मैंने ये भी बताया कि मैं नास्तिक हूं और किसी भी धर्म और भगवान को नहीं मानती. जीजस को मेरा मानना भी उस तरह का मानना नहीं है, जैसे बाकी लोग मानते हैं. बातचीत खत्म होते-होते मुझे समझ में आ गया कि ये बात किसी रहस्यमय कड़वाहट और चुप्पी पर खत्म हुई है. जबकि न किसी ने आवाज ऊंची की थी और न ही कोई गुस्से में था.
मुझे तब ये बात ठीक से समझ में नहीं आई, लेकिन उस घटना के बाद से मुझ पर नजर रखी जाने लगी थी, मेरी हर गतिविधि पर. कभी मैं कहीं कोने में बैठकर कुछ पढ़ रही होऊं तो वॉर्डन आकर चेक करती कि मैं कौन-सी किताब पढ़ रही हूं. किसी सर्वेंट या नन से बात कर लूं तो तुरंत उनके दफ्तर में पेशी हो जाती. तकरीबन डेढ़ महीने बाद वॉर्डन ने पापा को इलाहाबाद फोन करके कहा कि हम आपकी लड़की को हॉस्टल में नहीं रख सकते. उन्होंने जो वजहें गिनाई थीं, वो बहुत अजीब थीं. वो बोलीं, "आपकी लड़की हमेशा अकेले रहती है. अजीब किताबें पढ़ती है. (उन्होंने मुझे एक बार मोपांसा की कहानियां और एक बार रोजा लक्समबर्ग की लेनिन के साथ बातचीत किताब पढ़ते हुए धरा था) हॉस्टल में उसका कोई दोस्त नहीं है. वो किसी से बात नहीं करती. उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं है. और सबसे बढ़कर कि वो "एथीस्ट (नास्तिक)" है".
सबसे इंपॉर्टेंट बात "एथीस्ट" होना था. बाकी तो मुलम्मा था. ये सच है कि वहां मेरा कोई दोस्त नहीं था और मैं ज्यादातर अकेली ही रहती थी. लेकिन दोस्त न होने, अकेले रहने का मतलब दिमागी रूप से बीमार होना तो नहीं होता. ये कोई ऐसी वजह तो नहीं कि जिसके लिए मुझे हॉस्टल से निकाल दिया जाए.
उस घटना के सदमे और तकलीफ से मैं कई दिनों तक बाहर नहीं निकल पाई. लेकिन पापा के ये कहने से बहुत राहत मिली थी कि मुझे तो गर्व होना चाहिए इस बात पर कि उन्हें गर्व है मुझ पर. वो अपनी दिमागी हालत के बारे में नहीं सोचते. वो मूर्ख और डरे हुए लोग हैं. रिलीजियस इंस्टीट्यूशन ऐसे ही चला करते हैं. चाहे वो स्टूडेंट हॉस्टल ही क्यों न हो. अब शायद ये बात तुम्हें ज्यादा ठीक से समझ में आए कि मैं धर्म को क्यों नहीं मानता.
इतने बड़े शहर में रातोंरात अपने कपड़े, होल्डाल और बाल्टी-मग्गा समेत मैं सड़क पर थी. लेकिन चार दोस्त मदद के लिए आगे आ गए. मरीन लाइंस में सनोबर के घर सारा सामान डंप किया. था ही कितना. उसके ऊंचे से पारसी पलंग के नीचे एक कोने में सब सेट हो गया. और मैं दूसरे ठिकाने की तलाश में निकल पड़ी.
उस घटना को 11 साल हो चुके हैं. लेकिन आज भी हर बार जीजस के बर्थडे पर याद आता है कि उनके सो कॉल्ड मानने वालों ने उनमें सचमुच विश्वास करने वाली 24 साल की एक लड़की के साथ क्या सलूक किया था. लेकिन आज भी मेरा यही विश्वास है कि जीजस में विश्वास दरअसल मनुष्यता में विश्वास है. दया, करुणा और प्रेम में विश्वास.
इसलिए जीजस में मेरा विश्वास है.
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