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Updated: 23 जुलाई, 2016 05:49 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
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एक तरफ सरकार महिला कर्मचारियों की मेटरनिटी लीव 3 महीने से बढ़ाकार 6 महीना करने जा रही है, वहीं कुछ निजी कंपनियां ऐसी भी हैं, जो मेटरनिटी लीव मांगे जाने पर नौकरी ही छीन लेती हैं. एक हालिया मामले में निजी कंपनियों के इस गैरजिम्मेदाराना और बेहद असंवेदनशील रवैये का खुलासा हुआ है.

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 राधिका गुप्ता को नहीं दिया गया मातृत्व अवकाश

ये मामला है 28 साल की राधिका गुप्ता का, जो पिछले दो सालों से नोएडा की एक निजी कंपनी रेडियस सिनर्जी इंटरनेश्नल प्रा. लिमिटिड के एचआर डिपार्टमेंट में बतौर असिस्टेंट मैनेजर काम कर रही थीं. राधिका गर्भावस्था के 7 महीनों तक ऑफिस में अपनी सेवाएं दे रही थीं, लेकिन जब उन्होंने कंपनी से मेटरनिटी लीव पर जाने की बात कही तब कंपनी ने उनपर रिजाइन करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया. कंपनी दबाव बनाकर उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करने लगी, जिसकी वजह से राधिका की तबियात बिगड़ गई. प्रेगनेंसी में परेशानी आने की वजह से डॉक्टर ने उन्हें आराम करने की सलाह दी. इसी वजह से उन्हें मेडिकल लीव एप्लाई करनी पड़ी. जबकि वो 1 सितंबर से मेटरनिटी लीव पर जाना चाह रही थीं.

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मौखिक तौर पर कंपनी उन्हें मेटरनिटी लीव देने के लिए मना करती रही. कंपनी का कहना था कि वो एक कर्मचारी की इतने दिनों की छुट्टियां अफोर्ड नहीं कर सकते. न सिर्फ उन्हें मेटरनिटी लीव के लिए मना किया गया बल्कि मेडिकल लीव भी नहीं दी गईं. जबकि राधिका के अनुसार, रिजाइन करने के दबाव के कारण वो तनावग्रस्त थीं और उसी वजह से ही उनकी तबियत खराब हुई. जब राधिका ने रिजाइन करने से मना कर दिया तो कंपनी ने उन्हें टर्मिनेशन लैटर भेज दिया. (कानून का उल्‍लंघन तो यहीं हो गया था, क्‍योंकि प्रेग्‍नेंसी के दौरान नौकरी से निकाले जाने का प्रावधान नहीं है.)

 

7 महीने की एक गर्भवती महिला जो पहले से ही अपनी प्रेगनेंसी से जुड़ी परेशानियों को झेल रही थी, उसे ऐसे समय नौकरी से निकाल दिया गया. राधिका भावनात्मक रूप से टूट गई थीं, स्वाभाविक भी था, क्योंकि एक कंपनी में दो साल से मेहनत कर रही राधिका को उनके गर्भवती होने की सजा दी गई थी.

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राधिका के आवेदन का जवाब टर्मिनेश लैटर के रूप में मिला

लेकिन राधिका ने हार नहीं मानी और अपनी आवाज महिला और बाल कल्याण विकास मंत्रालय तक पहुंचाई है. फिलहाल राधिका न्याय की आस लगाए हैं, मेनका गांधी ने भी उन्हें कार्रवाई करने का आश्वासन दिया है.

ऐसा क्यों करती हैं कंपनियां

यहां राधिका की हिम्मत की दाद देनी होगी जिन्होंने खुदपर हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई. लेकिन निजी सेक्टर में काम कर रही उन तमाम महिलाओं का क्या, जिनसे जुड़े ये मामले कभी सामने नहीं आते. यहां कुछ कंपनियां और निजी संस्थान अपने स्वार्थ के चलते सिर्फ ऐसी ही महिलाओं को नौकरी देते हैं जो अविवाहित होती हैं. विवाहित महिलाओं को इसी डर से नौकरी नहीं दी जाती कि उन्हें छुट्टियों की ज्यादा जरूरत पड़ती है. ऐसे भी मामले कम नहीं है जहां कंपनी महिलाओं से गर्भावस्था के दौरान रिजाइन करा लेती हैं और बच्चा हो जाने के बाद दोबारा ज्वाइनिंग दे देती हैं(खासकर स्कूलों में), क्योंकि मेटरनिटी लीव पेड लीव होती हैं, महिला 3 महीने छुट्टी पर भी रहे और काम न करने के पैसे भी देने पड़ें, यानी केवल घाटा. इस नफा नुक्सना में कंपनियां महिला कर्मचारियों की सालों की मेहनत और निष्ठा को भी अनदेखा करने से नहीं हिचकतीं और सरकारी नियमों को ताक पर रखकर अपने ही नियम कायदे थोपती हैं.

इसके बिलकुल उलट दुनिया में कुछ कंपनियां ऐसी भी हैं जो महिलाओं के लिए इतनी संवेदनशील हैं कि उन्हें पीरियड लीव तक उपलब्ध कराती हैं, माताओं के लिए मेटरनिटी लीव और पुरुषों के लिए पेड पेटरनिटी लीव भी दी जाती हैं.

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सरकार की सारी योजनाएं बोकार हैं अगर

हमारे देश में भी कामकाजी महिलाओं के हितों के लिए सरकार थोड़ी और सजग हुई है, सरकारी कर्मचारियों के लिए तो पहले से ही 26 सप्ताह या छह महीने का मातृत्व अवकाश दिया जाता है. वहीं निजी कंपनियां अधिकतम तीन महीने का अवकाश देती हैं. लेकिन मैटर्निटी बेनिफिट एक्ट 1961 में बदलाव करके प्राइवेट कंपनियों को एक नए विधेयक के तहत अपनी महिला कर्मचारियों को 6 महीने की मैटरनिटी लीव देनी ही होगी. इस विधेयक को आने वाले सत्र में पेश करने की योजना है.

महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सरकार अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ रही, लेकिन सरकार की सारी योजनाएं बेकार हैं अगर महिलाएं खुदपर हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज ही न उठाएं, अगर उन्हें अपने अधिकारों का ज्ञान ही न हो, अगर ऐसी कंपनियों के खिलाफ सख्ती न बरती जाए जो महिलाओं के हौसलों को सिर्फ इसलिए तोड़ती हैं क्योंकि वो गर्भवती हैं.

लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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