Coronavirus Lockdown: पांच दिन और डूबता दिल जो मांग रहा है प्रेम
कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन (Coronavirus Lockdown) का पांचवा दिन है. लोग एक दूसरे के साथ अपने अपने घरों में कैद हैं. अब ये लॉक डाउन भारी पड़ रहा है और गहरी निराशा हो रही है. मगर हमें अपने को इस उदासीनता से परे रखना चाहिए.
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मेरे प्रिय,
ये दिन अब दिन-ब-दिन भारी होते जा रहे हैं. ये भार सन्नाटे का नहीं, बल्कि हताशा का है. आज इस समय में मैं हताशा, निराशा और उदासीनता से भरी हुई हूं. पांच दिन पहले तक मैं सोचती थी कि लॉकडाउन की यह स्थिति इस बीमारी को हरा पाएगी. किन्तु आज... आज मैं डर रही हूं. मैंने देखी एक बच्चे की तस्वीर जो अपनी मां के पैरों में बैठा है. जो गुहार लगा रहा है कि अब वह नहीं चल सकता. वे लोग निकले हैं शहर से अपने गांव जाने. क्योंकि उन्हें लगता है कि अब शहर में कुछ बचा नहीं.
मैंने पढ़ी एक ख़बर जिसमें इन्हीं में से किसी मजदूर के साथ बीमारी शहर से गांव तक का सफ़र तय कर चुकी है. मैंने पढ़ी एक ख़बर जिसमें विषाणु के भय शहर से गांव के लिए निकली एक लड़की का बलात्कार हो जाता है. मैंने पढ़ी एक ख़बर जिसमें बताया गया कि यह बीमारी अब तीसरी स्टेज पर पहुंच चुकी है. इन ख़बरों को पढ़ने के बाद मैं सही-ग़लत, अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं समझ पा रही.
काश कि तुम होते मेरे पास. नीम के नीचे लगे लोहे के उस झूले पर मुझे बैठाते और पीछे से अपनी बाहें में मुझे कैद कर लेते. कुछ पल को ही सही मैं महसूस करती कि मैं इन सारी उदासियों से दूर हो चुकी हूँ. प्रेम की पट्टी आंखों पर बांध चंद क्षण के लिए ही सही सब भुला देना क्या स्वार्थी होना कहलाएगा?
अब ये लॉकडाउन चिंतित कर रहा है और इसको लेकर गहरा अवसाद हो रहा है
मुझे यकीन है कि तुम होते तो इस वक़्त सड़क किनारे खड़े होकर किसी मजदूर की मदद कर रहे होते. किसी को खाना खिला रहे होते, किसी को पानी पिला रहे होते. तुम भूल जाते अपना अस्तित्व और समर्पित कर देते ख़ुद को इन लोगों के लिए. मुझे यह भी यकीन है कि तुम होते तो मुझे समझा रहे होते. मेरे बालों को सहलाते हुए कह रहे होते कि, 'जीवन में कुछ भी वैसा नहीं होता जैसा हम सोचते हैं. सामने संकट है. लोग नासमझ हैं और सरकार मजबूर होने के साथ-साथ नदारद भी.'
मैं चाहती हूं कि इस वक़्त तुम्हारा हाथ थामकर निकल पडूं उस दिशा में जिस दिशा से ये मजदूर अपने गांव की तरफ लौट रहे हैं. मैं समझाऊं इन्हें कि ये जहाँ हैं वहीं थम जाएं. मैं मिटा दूं इनका भय और सिखा दूं इन्हें जीवन. तुम होते तो उस थके हुए बच्चे को गोद में उठा लेते. उसे पुचकार कर मेरी गोद में डाल देते ममत्व लुटाने.
तुम उस मां को अपने कंधे पर बैठाते और मेरा हाथ पकड़कर आगे बढ़ते जाते. मजदूरों की इस भीड़ में तुम ना जाने कहाँ गुम हो जाते. लेकिन मैं पहचान लेती तुम्हें, तुम्हारी ख़ुशबू से, तुम्हारी रंगत से, तुम्हारे प्रेम से. तुम्हारे अस्तित्व में वो जादू है कि तुम भीड़ में गुम होकर भी अलग दिखते हो.
अच्छा सुनो, कुछ ऐसा करो ना कि ये डूबता मन शांत हो जाए. कोई धुन ही गुनगुना दो. या तुम बन जाओ कान्हा कुछ पल के लिए और बांसुरी से कोई ऐसा संगीत छेड़ दो जो हवा में घुलकर देश के हर उस भयभीत मनुष्य तक पहुंच सके जो इस समय तिल-तिल कर अपना समय काट रहा है. और कुछ नहीं तो मुझे यह यकीन ही दिला दो कि गांव की एक खिड़की में उम्मीद के दिए तले जो मजदूर की पत्नी बैठी है. जिसने शहर जाने से पहले अपने पति को आलिंगन में भरकर वादा लिया था कि वो जल्दी वापस आएगा. इतना धन कमाकर लाएगा कि उनकी गरीबी दूर हो जाएगी.
जिसने कहा था कि अगली दफ़ा जब आएगा तो हीरोइनों जैसे कपड़े लाएगा जो रात के अंधेरे में वह जब पहनेगी तो एकदम कटरीना लगेगी. जिसने वादा किया था कि अगली दफ़ा उसे भी अपने साथ ले जाएगा ताकि फिर विरह में रतियां ना बीतें, ताकि फिर देह रातभर जलती ना रहे, ताकि फिर मन मिलन की आस में तड़पता ना रहे.
खिड़की में बैठी उस पत्नी रुपी प्रेमिका को, जो अब पैसा नहीं सिर्फ अपना पति वापस मांग रही है, क्या वह उसे मिलेगा? और यदि मिलेगा भी तो क्या वह उस विषाणु से संक्रमित हुए बिना मिलेगा जिसके भय से वह चला आ रहा है अकेला ही, पैदल सैकड़ों मील?
कितना कुछ मांग लिया ना आज मैंने तुमसे? पर तुम ही तो कहते हो कि मैं तुमसे जितना चाहूं, जब चाहूं प्रेम मांग सकती हूं. तुमने देने का वादा भी तो किया था ना. अब प्रेम सिर्फ मेरे लिए ही हो यह ज़रूरी तो नहीं. मेरी देह तुम्हारे प्रेम की ऊष्मा से रोमांचित हो या मेरा मन-मस्तिष्क औरों के लिए तुमसे मांगे गए प्रेम से रोमांचित हो एक ही बात है ना. तो दोगे वह प्रेम?
क्या मैं सो जाऊं आज इस उम्मीद में कि बंदी का आने वाला दिन और कोई हताशा नहीं लाएगा? और फिर से कुछ उम्मीदें, कुछ प्रेम हमें आसपास दिखेगा? और इक्कीस दिन किसी बड़ी त्रासदी के साथ नहीं बल्कि जीत के साथ ख़त्म होंगे...
तुम्हारी
प्रेमिका
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