Coronavirus Lockdown: बंदी के 10 दिन और इंसान की काली करतूतें
कोरोना वायरस के कारण लॉकडाउन (Coronavirus Lockdown) को 10 दिन हो चुके हैं. ऐसे में चाहे लोगों की भीड़ का डॉक्टर्स की टीम पर हमला हो या इलाज कर रही नर्सों से जमातियों की छेड़छाड़ कई ऐसे मामले आए हैं जो बताते हैं कि काली करतूत करते इंसान को इंसान बनने में अभी लंबा वक़्त लगेगा.
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मेरे प्रिय,
राहुल सांस्कृत्यायन अपनी किताब ‘वोल्गा से गंगा’ में स्त्री-पुरुष, परिवार समाज के बीच प्रेम का जो रूप लिखते हैं वह बहुत ही निराला है. हज़ारों साल पहले जब धरती पर बंधन नहीं थे तब सिर्फ प्रेम था और जीवन को चलाए रखने की जद्दोजहद. विज्ञान कहता है कि मनुष्य का आज का रूप आदिमानव से मानव बना. फिर ये धर्म जाने कब आए. जाने कब एक ही प्रजाति के जीव, हाड़-मांस से बना एक ही तरीके का शरीर बंटता चला गया. जाने कब ये सरहदें बनी और कब धर्म. कई धर्मों में लिखा है कि एक निश्चित समय के पश्चात् दुनिया ख़त्म हो जाएगी. यह जिसने भी लिखा होगा संभवतः स्थितियों को देखकर लिखा होगा. आज एक तरफ दुनिया के अनेकों देश हैं और दूसरी तरफ हमारा देश. जाति-धर्म का डंका सारी दुनिया में बजाने वाला, सौहाद्रता की बातें करने वाला यह देश अब मुझे काल का ग्रास बनता दीख रहा है.
एक तरफ जहां सारी दुनिया का विज्ञान इस बीमारी से लड़ने की कोशिश में लगा है. वहीं दूसरी तरफ हमारे यहां के लोग जाति-धर्म के नाम पर लड़ने में. ना जाने कहाँ से इतनी ज़हालत आ गई है कि हम अपने ही भले के लिए निकले चिकित्सकों की ही अवहेलना करने में लगे हैं.
इंसान अपनी फितरत से बाज नहीं आता है और बीते दस दिनों के लॉक डाउन में हम इसे बखूबी देख चुके हैं
जब-जब यह सब देखती हूं, मुझे यह किसी दुस्वप्न सा जान पड़ता है. जान पड़ता है जैसे मैं गहरी नींद में हूं. सिमटी हुई सी बिस्तर में, डरी हुई देख रही हूं कोई सपना. ऐसा लगता है चंद ज़ाहिल लोग जिसमें हर धर्म के व्यक्ति शामिल हैं वे दौड़ रहे हैं हाथों में हथियार लिए, पत्थर लिए, उनके आगे दौड़ रही है एक स्त्री अपनी अस्मिता की रक्षा करते हुए. वह स्त्री कौन है?
वह कभी मुझे भारत माता दिखाई पड़ती है कभी मैं ख़ुद ही अपना अक्स उसमें देखती हूं. जब-जब ऐसा होता है मैं पसीने से तर हो जाती हूं. मेरी मौन चीखें वातावरण में घुलने लगती हैं, मैं कांपती हूं अपने लोगों के हाल पर, अपने देश के हाल पर, मूर्खों के हाल पर, अपनी अस्मिता लुटने के डर से, भारत के मिट जाने के डर से, सब कुछ तहस-नहस हो जाने के डर. और उस डर में कांपते-चीखते नींद में ही खोज रहे होते हैं मेरे हाथ तुम्हें, ताकि तुम्हारा स्पर्श मुझे तसल्ली दे सके.
अपनी सबसे कठिन घड़ी में तसल्ली पाने, समझाइश देने, पुचकारने के लिए हमें सबसे ज्यादा ज़रुरत होती है किसी अपने की. मैं भी ऐसे में तुम्हें अपने सबसे पास चाहती हूं. चाहती हूं कि तुम मुझे तसल्ली दो कि ये चंद ज़ाहिल ना पत्थर मारकर, ना थूककर, ना ही अल्लाह के नाम पर जिहाद कर, ना ही राम के नाम पर लीचिंग कर, ना ही जमात इकट्ठे कर, ना ही विमान निकालकर इस देश का कुछ बिगाड़ पाएंगे.
तुम फेरो मेरे सर पर हाथ और कहो, 'ये चंद हैं. किन्तु इस देश में हज़ारों हैं जो इस देश को बचाना चाहते हैं. यहाँ की सौहाद्रता, यहां का परस्पर प्रेम बचाना चाहते हैं. इस देश की मिट्टी की आबरू बचाना चाहते हैं. यहां अनेकों हैं जो सच बोलना और कहना जानते हैं. तुम डरो मत. झूठ फ़ैलाने वालों से सच बोलने वाला बहुत अधिक ताक़तवर होता है.'
मैं बस तब तक बैठी रहूंगी तुम्हारे सीने से लिपटकर जब तक उस दुस्वप्न भरी काली रात के बाद की सुबह नहीं हो जाती. जब तक फिर कोई तितली आकर निडर मेरी बगिया के गुलाब पर नहीं बैठ जाती. जब तक फिर कोई कोयल मंज़र आने की ख़ुशी में कूकने नहीं लगती. जब तक फिर कोई चिरैया उड़कर मुंडेर पर चहकने नहीं लगती. जब तक फिर आसमान उम्मीदों से भरकर नीला नहीं हो जाता.
जाति-धर्म के नाम पर लड़ते हुए, मानवता से ऊपर धर्म को रखकर उसके नाम पर ज़हालत करते हुए इन मनुष्यों ने आसमान को काले अंधेरे से भर दिया है. यह अंधेरा डरावना है. मेरे जैसे कई होंगे जो इस अंधेरे से डरते होंगे. लेकिन मुझे यकीन है कि मनुष्यता, प्रेम, सच कहने की ताक़त, उम्मीद से भरे हुए तुम्हारे जैसे प्रेमी ही इस दुनिया को उबार ले जाएंगे.
हमें बस इतना ही करना है कि ‘सच कहना है’. हर जाति हर धर्म से ऊपर उठकर सच कहना इतना भी कठिन तो नहीं. यह करना अब इसलिए भी ज़रूरी हो चला ताकि यह दुनिया ख़त्म होने से पहले अपना सबसे कुरूप रूप इन मनुष्यों द्वारा ना देखे. कुछ प्रेम, कुछ इंसानियत बाकी रहे. बस इसी ख्वाहिश में मैं आज सो जाती हूं कि कल जब जागूं तो अपने आसपास तुम्हारी प्रेमिल बांहों का घेरा पाऊं, जिसमें भरोसे की नरमाई हो.
तुम्हारी
प्रेमिका
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