Coronavirus Lockdown: बंदी का सातवां दिन और बुज़ुर्गों से बिछड़ता संसार
कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन (Coronavirus Lockdown) को 7 दिन हो गए हैं. इस बीच मन में तमाम तरह के विचार भी आ रहे हैं. चिंता का कारण बुजुर्ग बने हैं जिनसे समाज साफ़ तौर पर पीछा छुड़ाता नजर आ रहा है.
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मेरे प्रिय,
मैं अक्सर ही तुमसे ‘कब मिलेंगे’ पूछती रहती हूं. तिस पर एक बार तुमने मुझे बहुत चिढ़ाया था. कहा था, 'बत्तीसी के साइड टेबल पर रखी डब्बी में जाने से पहले मिल लेंगे'. तुमने यूं तो वह बात मज़ाक में कही थी लेकिन मैं आदत से मजबूर फिर ना जाने इस लम्बे इंतज़ार और वृद्धावस्था के बारे में क्या-क्या सोचने लगी. क्या तुम जानते हो कि तुम कितना जियोगे? दुनिया में कौन जानता है कि वह कितना जिएगा. फिर यह भ्रम पाले रहना कि बुढ़ापे में यह करेंगे, वह करेंगे कितना बेबकूफाना है ना.
लॉक डाउन के इस दौर में अगर किसी चीज को लेकर मन व्यथित है तो वो केवल बुजुर्ग हैं
तुम, प्रेम और बुढ़ापा जब-जब मेरे ज़हन में एक साथ आते हैं, मुझे ‘अप’ फिल्म याद आने लगती है. मैं उसके किरदारों में हम दोनों को देखने लगती हूं. अपने साथी के साथ बनाया गया घर, संजोये गए सपने, बुढ़ापे के लिए भरी गई उम्मीदों और ख्वाहिशों की तिजोरी को छोड़ने की जगह जब प्रेमी प्रेमिका के मर जाने के बाद भी उस घर को ना छोड़े. बल्कि गुब्बारों में बांधकर उसे दुनिया के दूसरे कोने तक ले जाए. यह कल्पना में ही संभव है ना. किन्तु ऐसी अनेक कल्पनाओं के साथ ही दफ़न हो रहे हैं इस समय दुनिया के कई वृद्ध जोड़े.
सारी दुनिया जिस विषाणु के भय में जी रही है उसने अपना ग्रास बनाया है बुजुर्गों को. आधा जीवन जीने के बाद जो बचा उसे बस अपने साथी के साथ, अपने बच्चों के साथ बिता देने की ख्वाहिश लिए ना जाने कितने जीवन चंद दिनों में समाप्त हो गए हैं. उनमें से कई जोड़े रहे होंगे और कई अपने जोड़े को तोड़कर अकेले ही परलोक की दिशा में बढ़ गए होंगे. बस छोड़ गए पीछे ना जाने कितने कल्पना लोक.
मैं बेचैन हो उठी थी तुम्हें गले लगाने जब मैंने पढ़ी थी ख़बर स्पेन के वृद्धाश्रम के बारे में. जिसमें कई बुजुर्गों की लाशें मिली, अकेली, लावारिश. उन्हें छोड़ गए वे लोग भी जिनके भरोसे छोड़ा था उनके अपनों ने. क्या इतना वीभत्स भी हो सकता है जीवन जब मृत्यु के समय अपना तो क्या कोई जीवित चेहरा भी ना दिखे. हमें मरना हो नितांत एकांत में. क्या मैं भी किसी दिन युहीं मर जाऊंगी? या होगा मेरा सर तुम्हारी गोदी में? या फिर हम दोनों साथ छोड़ेंगे ये जहां उस युगल की तरह जिसने छोड़ा था संसार अस्पताल के एक ही बिस्तर पर एक दूसरे की बाहों में.
अभी तो जीवन आधा ही बीता है. आधा बाकी है. किन्तु जो बाकी है उसके लिए ना तो कोई गारंटी मिली है ना वारंटी. इसलिए अब सोचती हूँ कि तुम्हें मिलने ख़ुद ही चली आऊं. बजाय इस बात की परवाह किए कि तुम आओगे कभी. वर्तमान में जी लेना ही सही मायनों में जीना है. मैं आज ही जी लेना चाहती हूं तुम्हारे साथ दुनिया का हर सुख और भोग लेना चाहती हूं हर विलासिता. मैं आज ही विचरना चाहती हूं नंगे पांव सूनी सड़कों पर तुम्हारा हाथ थामे, और खा लेना चाहती हूं रूखी रोटी अभाव के दिनों में.
आज ही उड़ जाना चाहती हूं तुम्हारी पीठ पर सवार होकर समन्दरों को पार करते हुए, और आज ही चढ़ जाना चाहती हूं, हांफते-थकते, तुम्हारी हथेली में अपना हाथ फंसाए दुनिया का सर्वोच्च शिखर. आज ही खा लेना चाहती हूं तुम्हारे हाथ से तृप्ति का निवाला और आज ही खिला देना चाहती हूं तुम्हें पकाकर तुम्हारी जिह्वा को संतुष्ट करने वाला सुस्वादु भोजन.
मैं आज ही देख लेना चाहती हूं अपनी पसंदीदा कोई फिल्म तुम्हारे कंधे पर सर रखकर और झूल लेना चाहती हूं झूला तुम्हारी बाहों में. मैं आज ही सुला लेना चाहती हूँ तुम्हे अपनी गोद में थपकियां देकर और देखते हुए बिता देना चाहती हूं एक पूरी रात तारों की चादर ओढ़े. आज ही जी लेने और कर लेने की इच्छाओं की फहरिस्त बहुत लम्बी है.
यदि तुम होते तो मैं हर एक को जी लेती. किन्तु अब क्योंकि तुम नहीं हो तो मैं बस इतना ही चाहती हूं कि यह विश्व जल्दी ही ढूंढ ले इस विषाणु के ख़ात्मे की दवाई, ताकि आज अपने घरों में कैद जो लोग अपने साथी के साथ वर्तमान ना जीकर देख रहे हैं सपने भविष्य के, बुन रहे हैं ख्वाहिशें बुढ़ापे की उन्हें निराश ना होना पड़े.
आज की तरह उनका कल काला न हो और फिर कोई बिमारी उनके साथ को ना तोड़ पाए, फिर कोई बुजुर्ग अपनी अंतिम इच्छा जीने से पहले ही ना मर जाए, और फिर कोई मजबूर अकेला वृद्ध किसी आश्रम में पंखे, दीवारों, पर्दों, मेज़ और कुर्सी को देखते हुए ही तड़पकर दम ना तोड़ दे. तो सुनो, मेरी बालों में सफ़ेदी अपने पैर जमा ले उससे पहले ही आ जाना कल्पना लोक से बाहर, और दे देना सुख मुझे आज को जीने का.
तुम्हारी
प्रेमिका
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