Coronavirus Lockdown और प्रेम दोनों राजनीति से परे नहीं
कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन (Coronavirus Lockdown) को 6 दिन हो गए हैं. इस बीच हम ऐसी तमाम तस्वीरें देख रहे हैं जिनमें लोग पलायन (Migration ) करते नजर आ रहे हैं. स्थिति जब ऐसी हो तो राजनीति (Politics ) का होना स्वाभाविक था जो बदस्तूर हो रही है.
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मेरे प्रिय,
संसार इतने आश्चर्य से भरा हुआ है कि कई बार जो घटित हो रहा है उस पर यकीन ही नहीं होता. हां लेकिन इस समय के साथ तुम्हारी वह सीख अब यथार्थ में उतारने लगी हूं कि 'जो आज है वह कल नहीं रहेगा'. तुम हमेशा से मुझे समझाते रहे हो. सिखाते रहे हो. मैं ही बस ना जाने कितनी उम्मीदें पाल लेती हूं. ख़ुद से भी और दूसरों से भी. दुनिया में निरर्थक वस्तुएं तो फिर भी उम्मीद के मुताबिक मिल जाती हैं किन्तु जो प्राकृतिक है, प्रेम है, वह उम्मीद के मुताबिक कहां मिलता है. अब देखो ना, कल सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में सड़कों पर जमा हुए उन मजदूरों को क्या प्रेम मिला? वह भीड़ कई लोगों को कूड़ा लग रही थी, कईयों को मानसिक दिवालियेपन का नमूना. किन्तु मुझे, मुझे लग रहा था कि वे सिर्फ और सिर्फ प्रेम के अभाव में वहां जमा हुए हैं.
लॉकडाउन के इस समय लोग पलायन पर मजबूर हैं जिसपर खूब राजनीति हो रही है
'यदि मरना ही है तो अपनों के पास जाकर क्यों ना मरें' यह कहते ये मजदूर अन्न से भी ज्यादा प्रेम के भूखे थे. उन्हें बिमारी का भय नहीं था, अपनों से एक बार मिल लेने की तड़प थी. देखो ना, प्रेम में मनुष्य स्वार्थी हो जाता है, मजबूर हो जाता है, असहाय हो जाता है यह कल फिर लगा. ये लोग जिनके ज़रिए वह भयानक बिमारी इनके उन्ही अपनों तक पहुंच सकती है इसे ना समझकर वे लोग बस अपने अपनों तक पहुंच जाना चाहते थे.
सोचती हूं यदि इन्हें उन राज्यों से रोज़ी-रोटी के अलावा प्रेम भी मिला होता तो क्या यह पलायन होता? यदि इन्हें प्रेम के साथ-साथ भरोसा भी मिलता तो क्या यह पलायन होता? दुनिया कितनी जटिल है ना. इसके नियम कितने कठोर. और इन सबके आगे एक ये प्रेम है जो अलग ही बेचैनी बनाए रखता है. अब मुझे देखो ना. मैं जानती हूं कि तुम वैरागी हो. विरक्तता तुम्हारे व्यक्तित्व का एक गुण है. तुम किसी से भी बंधते नहीं. जल भी कभी मुट्ठी में समाया है भला? वह तो इधर-उधर से अपने लिए रास्ता खोज ही लेता है. ऐसे में मूर्ख तो वही हुआ ना जो जल को मुट्ठी में कैद करने की चेष्ठा करे?
मैं और इन मजदूरों में यही समानता है. मैं तुम्हें, तुम्हारे प्रेम को, तुम्हारे साथ को अपने समीप बांधकर रखना चाहती हूं. और ये मजदूर भी हालातों को बांधकर रखना चाहते हैं. मैं चाहती हूं कि कभी तो तुम मुझ पर मेरी इच्छाओं पर, मेरी लगन पर, मेरे समर्पण पर ध्यान दो और ये चाहते हैं कि कभी तो इस दुनिया के हुक्मरान इनके हालातों पर ध्यान दें.
मैं चाहती हूं कि तुम्हारी देह की ऊष्मा में सिमटी रहूं. और ये चाहते हैं कि इनके पेट की ऊष्मा इन्हें इतना भी ना जलाए कि ये उसमें जलकर मर जाएं. हम दोनों ही संतुष्टि के पतले तारों पर चलते हुए जीवन जीना चाहते हैं. यह जानते हुए भी कि इन पतले तारों से फिसलना कितना आसान है. पर फिर भी हम कोशिश करना तो नहीं छोड़ सकते ना. प्रेम को जीते रहने की, खुशियां ढूंढने की कोशिश.
अब तुम ही कहो, कौन जानता था कि कटरा-बी-आरज़ू के किरदार मेरे सामने इतनी जल्दी जीवंत हो उठेंगे. राही मासूम रज़ा ने राजनीतिक परिवेश में पनपने वाली और उसकी चपेट में आकर दम तोड़ देने वाली जिस प्रेम कहानी को वर्षों पहले लिख दिया वह एक बार फिर से जन्म लेगी. एक बार फिर कोई बिल्लो और देशराज जन्म लेंगे वही कहानी दोहराने के लिए, कौन जानता था.
ऐसे समय में भी जब सिर्फ देश नहीं सारी दुनिया ही आपातकाल में जी रही है वहां क्या अब भी दो लोग प्रेम और छोटी-छोटी खुशियां बटोर रहे होंगे? तुम अक्सर ही तो कहते हो ना कि जीवन और राजनीति को अलग नहीं किया जा सकता. राजनीति का हिस्सा सिर्फ उच्चवर्गीय लोग नहीं बल्कि निचले तबके का ग़रीब भी है.
राजनीति आम मनुष्य के जीवन से सुई-धागे की तरह जुड़ी हुई है. जैसे बिल्लो और देशराज थे. वैसे ही कल की उस भीड़ में, पैदल चल रहे उन लोगों में, कोई बिल्लो और देशराज ज़रूर होंगे ना. कोई मैं और तुम भी ज़रूर होंगे ना. जो सोचते होंगे कि क्या हुआ अगर यह मुसीबत सामने आई, हम अपनी दुनिया को सर पर उठाकर फिर एक नए संसार को बसा लेंगे. फिर कंकरीले रास्तों पर चलकर फिर किसी क्यारी तक पहुंच जाएंगे जहां सिर्फ फूल ही फूल होंगे. कोमल और आरामदेह उन फूलों के बीच एक-दूजे को सहलाते हुए बिता देंगे बची हुई ज़िन्दगी के क्षण. आस से अधिक और क्या चाहिए जीवन में?
तुम्हारी प्रेमिका
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