गाय की ये 'अग्निपरीक्षा' गौरक्षकों को क्यों नहीं दिखती?
मकर संक्रांति पर कर्नाटक का एक रिवाज बेहद अजीब है. यहां गायों को अग्निपरीक्षा देनी होती है. और इसका तर्क भी दिया जाता है कि ये उनकी भलाई के लिए ही है.
-
Total Shares
भारत इतना बड़ा देश है कि उत्तर से दक्षिण जाते-जाते, या पूरब से पश्चिम आते-आते किसी एक चीज के बारे में बातें, धारणाएं और रिवाज पूरी तरह बदल जाते हैं. गाय उनमें से एक है. गाय को पूज्य मानकर उसकी रक्षा करने वालों की हिंसा हमारे सामने है. तो इसी देश में जलीकट्टू को लेकर तमिलनाडु वाली जिद भी है. देश में जहां बीफ का लेकर संवेदनाएं अपने उफान पर हैं, तो पूर्वोत्तर में बीफ रोज के खाने में शुमार है. अब ताजा विवाद कर्नाटक की वर्षों पुरानी रीति को लेकर सामने आया है. कर्नाटक में पिछले कई सालों से मकर संक्रांति पर एक त्योहार मनाया जाता है- किच्चु हाईसुवुदु (Kicchu Hayisuvudu या Kichh aayesodu). ये खास त्योहार गायों की अग्निपरीक्षा जैसा लगेगा. इस त्योहार में गायों को और उनके मालिकों को आग पर से गुजरना होता है. कहने को ये आग 1 फिट ऊंची ही होती है और मुश्किल से 2-5 सेकंड में गुजर जाना होता है, लेकिन अगर देखा जाए तो इसमें जलने का अहसास तो बेजुबान जानवरों को होता ही है.
कर्नाटक में गायों को इस तरह आग पर से गुजरना होता है.
क्यों मनाया जाता है ये त्योहार?
इस त्योहार को हार्वेस्ट यानी फसल काटने के सीजन में मनाया जाता है. मकर संक्रांति के दौरान दो दिन का ये त्योहार होता है. पहले दिन गाय-बैलों को खूब खिलाया पिलाया जाता है. उन्हें खुले में छोड़ दिया जाता है, दूसरे दिन यानी संक्रांति के दिन उन्हें खूब सजाया जाता है. अलग-अलग रंगों से, घंटियों से, मोरपंख से, उनपर रंग बिरंगे कपड़े भी डाले जाते हैं और फिर उन्हें शाम होते-होते आग पर से कुदवाने की तैयारी की जाती है.
इस त्योहार के पीछे का तर्क बेहद रोचक है. कुछ कहते हैं कि ये सदियों से मनाया जाता रहा है और ये हमारी संस्कृति का हिस्सा है और कुछ कहते हैं कि ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि गाय बैलों के पैरों में कोई इन्फेक्शन न हो सके.
I grew up in a farm and this has been a practice since I remember as a kid, the fire is barely 1 feet or less, it's a ritual every year and the farmer and the cow get through in maybe a second
— Sunil Mande (@sunilmande) January 16, 2019
It's not suprise ritual practiced all over South India as cattle are used to plough paddy fields & their feet will be more wet during cultivation.There may be chances of foot infection from worms, to kill that worms cattle will be made jump over the fire.
— Mahendra K (@gowda_mahee) January 16, 2019
इस त्योहार के बारे में थोड़ी सी रिसर्च से ही पता चल गया कि ये बहुत पुरानी प्रथा है और इसका तर्क सीधे तौर पर यही दिया जाता है कि इससे गाय को बीमारी नहीं होती. ये कर्नाटक के मैसूर के ग्रामीण इलाकों और मांड्या जिले में होता है. सुदूर गांवों में होने वाला ये त्योहार किस तरह से गायों के लिए अच्छा है ये समझा नहीं जा सकता.
पहली बात तो ये कि इस त्योहार को सदियों से मनाया जा रहा है. कितना पुराना ये किसी को नहीं पता, लेकिन चलिए मान लिया कि 100 सालों से भी मना रहे हैं तो भी उस समय गाय को बचाने के लिए इतने साधन नहीं थे. उन्हें जल्दी इन्फेक्शन हो जाता था. उस समय ये प्रथा एक इलाज के तौर पर ही देखी जाती थी. पर उस समय तो इंसानों के इलाज के लिए भी बड़ी मुश्किल होती थी. पर जब इंसानों के इलाज का तरीका बदल गया तो गायों के इलाज का तरीका क्यों नहीं?
दुनिया भर के इंजेक्शन, दवाइयां उपलब्ध है तो फिर उनका इस्तेमाल क्यों नहीं? जानवर को दर्द देना कहां तक सही है?
This is bunk ( fake ) science and has no basis at all in reality. The only way to deworm an animal is with medication. Extreme heat applied for seconds to one part of the body does not eradicate pests. The cattle don't understand & are terrified. It's not humane or harmless.
— Three cats in a trench coat. (@arahabakls) January 16, 2019
एक फेसबुक पेज Indigenous Games of Karnataka इसके बारे में कई पोस्ट डाल चुका है. इस पेज पर कई वीडियो, फोटो इस त्योहार से जुड़ी मिल जाएंगी. उस पोस्ट में लिखा है कि पहले गायों का बहुत ख्याल रखा जाता है और फिर रात में उन्हें सूखे चारे पर लगाई आग में चलना होता है. गायों को एक ही दिशा में दौड़ने को मजबूर किया जाता है. बाकी दिशाओं से उन्हें भगाया जाता है. ये पूरी प्रथा सिर्फ कुछ ही मिनटों में खत्म हो जाती है. लेकिन कुछ मिनट भी काफी हैं किसी को परेशानी में डालने के लिए.
ये सिर्फ एक विश्वास के तहत किया जाता है कि मवेशियों को इससे कोई बीमारी नहीं होगी और भगवान प्रसन्न होंगे और सुख-समृद्धि लाएंगे, लेकिन अगर देखा जाए तो ऐसे रिवाज की जरूरत ही अब खत्म हो चुकी है. जलीकट्टू, मुर्गों की लड़ाई, और किच्चु हाईसुवुदु जैसे रिवाज सिर्फ जानवरों पर अत्याचार जैसा ही काम करते हैं. आखिर कब तक हम पुराने रिवाजों का बोझ ये समझकर ढोते रहेंगे कि जो सदियों से चला आ रहा है उसे अभी भी चलते रहना चाहिए. सच पूछिए, तो ऐसी रूढ़ियों को दूर करने के लिए ही गोरक्षकों को आगे आना चाहिए. न कि, किसी अनजाने शक के चलते कुछ ट्रकों पर चढ़ी गाय देखकर उस ट्रक के ड्राइवर को पीट-पीटकर मार डालने के लिए.
ये भी पढ़ें-
आपकी राय