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Updated: 30 जनवरी, 2016 05:30 PM
गिरिजेश वशिष्ठ
गिरिजेश वशिष्ठ
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दिल्ली के नजदीक वसुंधरा के एक नामी स्कूल ने अपने एक छात्र को सबक सिखाने के लिए उसे इम्तिहान में नहीं बैठने दिया. बच्चे की इतनी सी गलती थी कि वो पुराने जूते पहनकर स्कूल पहुंच गया था. स्कूल ने पिता को फोन किया कि आप अपने बच्चे को घर ले जाइये उसके जूते पुराने हैं इसलिए परीक्षा में बैठने नहीं दिया जाएगा. पिता के तो जैसे पांव से ज़मीन ही निकल गई. घर की मजबूरियों का असर बच्चे पर पड़ने लगा था. पिता पिछले कुछ समय से बेरोजगार था. नौकरी चली गई थी. नये जूते खरीदने की हालत नहीं थी. इसलिए पुराने जूतों को ही झाड़पोंछ कर पत्नी बच्चों को स्कूल भेज दिया करती थी. बच्चा नए जूते दिलाने को कहता तो मां समझा बुझाकर चुप करा देती. बच्चा भी मजबूरी समझता और चुप हो जाता. और तो और उसने घर में इस बारे में बात करनी भी बंद कर दी.

लेकिन एक बाप के लिए इससे दुखद और दर्दनाक क्या हो सकता है कि घर की आर्थिक तंगी के कारण बच्चे को स्कूल में ऐसा बेइज्जत होना पड़े. माता-पिता कभी नहीं चाहते कि उनकी कमियों या मजबूरियों का लेस मात्र भी असर उनके बच्चों पर पड़े. वो गरीबी का गरल खुद ही पीते रहते हैं लेकिन बच्चों पर इसका असर पड़े ये कभी नहीं चाहते. वो नहीं चाहते कि उनके बच्चे दूसरों के सामने हीन महसूस करें. पिता को उम्मीद थी कि मानवता और दया का पाठ पढ़ाने वाले स्कूल के संचालक उस पर दया जरूर करेंगे. उन्होंने विनती की कि आज इम्तिहान में बैठ जाने दीजिए. कल से ऐसा नहीं होगा. लेकिन स्कूल ने अनुशासन का चाबुक चला दिया. एक वैन में बैठाकर बच्चे को घर छुड़वा दिया गया.

मासूम बच्चा स्कूल ज्ञान लेने गया था, स्कूल ने सबक सिखा दिया लेकिन भगवान न करे वो स्कूलवालों से कोई सीख ले. पत्थरदिली की सीख उसे न ही मिले तो ठीक है. इस पूरे मामले को हो सकता है कि आप स्कूल की पत्थरदिली के तौर पर देख रहे हों. हो सकता है कि कहानी में छुपा मजबूर बाप का दर्द आपको हिलाकर रख दे. लेकिन इस कहानी में तीन पहलू हैं तीनों ही बेहद दर्दनाक हैं और हमारी व्यवस्था की चुभती हकीककत बयान करते हैं. इस मामले में दोषी दरअसल तीनों ही संबंधित पक्ष नहीं हैं. सबसे ज्यादा दोषी दिखाई देने वाला स्कूल प्रबंधन भी इस मामले में शिकार ही है. आगे पढ़िए कैसे...

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1. शिक्षा व्यवस्था

दरअसल ये मामला शिक्षा के नाम पर कूढ़मगज सोच और गुलामों और जानवरों को प्रशिक्षित करने की सदियों पुरानी और हर तरह से अवैज्ञानिक सिद्ध हो चुकी शिक्षाशैली का है. भारत दुनिया के उन गिने चुने देशों में से है जो इस बेहद अमानवीय और असरहीन शिक्षा व्यवस्था को ढो रहा है. दहेज गरीबी और बेरोजगारी से जितने लोग आत्महत्या नहीं करते उससे ज्यादा बच्चे हमारी निपट जंगली शिक्षा व्यवस्था का शिकार होकर आत्महत्या करते हैं. 2013 में ही हमने 2471 बच्चों की जान सिर्फ इम्तिहान में असफल होने पर ले ली. 

हम सबसे ज्यादा अलाव पॉजीटिव एटीट्यूड और निगेटव बिहेवियर का करते नहीं थकते लेकिन जब बात हमारे अपने बच्चों की आती है तो सबसे ज्याद अमानुषिक और निगेटिव व्यवहार हमारा ही होता है. वनस्थली स्कूल ने जब इस बच्चे को घरभेजा तो वो हमारी उसी सोच और तथाकथित अनुशासन का ही पालन कर रहा था. उसकी इन अमानवीय हरकतों के कारण ही बड़ी संख्या में अभिभावक अपने बच्चों को इस स्कूल में भेजते होंगे. इस धारणा के मानने वाले माता-पिता और स्कूल दिन-रात, खाते-पीते, उठते-बैठते सिर्फ एक ही काम करते हैं. अपने बच्चों की कमियां ढूंढना, उन कमियों पर चीखना चिल्लाना या उलाहना देना, किसी भी प्रकार की अवहेलना करने पर बच्चों को दंडित करना. इस सबके साथ-साथ ये अभिभावक और अध्यापक हमेशा बच्चों के सामने असंभव जैसी दिखने वाली अपेक्षाएँ रखते रहते हैं और उनकी जिंदगी की पूरी खुशियां छीनकर बच्चों को अपने अधूरे और अतार्किक सपने पूरे करने के लिए मजबूर करते हैं. ऐसे माहौल में पलने और बढ़ने वाले बच्चे या तो दब्बू और लकीर के फकीर होते हैं या फिर अपराधी और बागी मानसिकता के होते हैं. वो अवसाद के मरीज भी हो सकते हैं. ऐसे बच्चे जो करते हैं मजबूरी में या दबाव में करते हैं. लीडर बनने की योग्यता अक्सर इनमें नहीं होती. यही वजह है कि ज्यादातर जीवन में सफल रहने वाले भारतीय पढ़ाई में औसत ही होते हैं.

ज्यादातर पेरेन्ट्स की सोच भी इसी व्यवस्था के अनुरूप ही बनी हुई है. इसकी वजह है लोगों के पास समझ की कमी. समझ की कमी इसलिए क्योंकि भारत में अंग्रेज़ों के जमाने ले लेकर हाल तक जानवरों की तरह मनुष्यों को प्रशिक्षित करने वाली शिक्षा प्रणाली ही काम कर रही थी. हम सभी उसी शिक्षा प्रणाली को देखते आ रहे हैं हमारा सारा ज्ञान इसी परंपरा के आधार पर है. 

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2. बेरोजगारी

सोचने की जरुरत है कि छात्र के पिता मनोज भारती बेरोजगार क्यों थे? सामान्य सा उत्तर है नौकरी किसी की भी जा सकती है. लेकिन भारत में लोगों को नौकरी से निकालना इतना आसान क्यों हो गया है? इसकी वजह है अर्थव्यवस्था का नया मॉडल. मनमोहन सिंह के जमाने में लाया गया ये मॉडल पूरी तरह नौकरी देने वालों और व्यापार करने वालों के हित की वकालत करता है. ये मॉडल कहता है कि व्यापार को बढ़ावा देने से उद्योग तरक्की करते हैं और नयी नयी नौकरियां तैयार होती हैं. उदयोगों को बढ़ावा देने की होड़ में सरकारें इन नौकरियां देने वालों की नौकरियां छीनने का हक भी देती चली जाती हैं.

भारत में यही स्थिति है. यही वजह है कि किसी को भी नौकरी से निकाल देना बड़ा आसान हो गया है. इसके साथ-साथ कंपनियों की तरफ से कर्मचारियों का वेतन न देने या उसे लटका देने की नीति भी बढती जा रही है. हाल ही में नोएडा की एक बडी कंपनी अपने कर्मचारियों के वेतन देने में असमर्थता दिखाती रही और उसके ऑफिस से ही सैकड़ों करोड़ का कालाधन मिला. सरकारें इन कंपनियों के खिलाफ मजदूरों या कर्मचारियों की सुनवाई करने में डरती हैं. तर्क होता है कि इससे उद्योग निराश होंगे और रोजगार कम हो जाएगा. यानी रोजगार देने का लालच देकर रोजगार छीन लेने की छूट. ये कंपनियां सस्ते कर्मचारियों के मिलने पर पुराने कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा देती हैं. लेकिन बड़ा सवाल ये कि जब बाजार में खरीदारी करने वालों को वेतन ही नहीं मिलेगा तो बाजार और उद्योग की तरक्की कैसे होगी. बहरहाल बेरोजगारी इस दर्दनाक हादसे का दूसरा पहलू है. 

3. सरकारी कोताही

शिक्षा देश का भविष्य तय करती है. नयी पीढी को तैयार करने की जिम्मेदारी शिक्षा के कंधे पर ही होती है. इसके बावजूद ऐसा कैसे संभव है कि हर स्कूल अलग अलग तरीके से शिक्षा दे और अलग-अलग तरीके की शैक्षिक पद्धतियां निकाले. ऐसा न हो इसके लिए सरकार भी काम करती है. सीबीएसई जैसे बोर्ड शिक्षा के मानकीकरण के लिए काम करते हैं. लेकिन स्कूलों की प्रशासन और बच्चों के साथ रवैये को लेकर भारत में मानकीकरण जैसा कुछ नहीं है. जिस स्कूल को जो समझ आता है वो वही नियम थोपता रहता है. इसी स्कूल में पुराने जूते पहनने पर बच्चों को स्कूल के चक्कर लगवाना, मुर्गा बनाना और दंड स्वरूप खड़ा कर देना आम है. जबकि बच्चों को शारीरिक दंड देना तो अपराध है.

क्या शिक्षा विभाग की ये जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए कि इन बेहद संवेदनशील मामलों में स्कूलों को समझाया जाए उन्हें शिक्षा के महत्व से अवगत कराया जाए. शिक्षकों को ट्रेनिंग दी जाए. बताया जाए कि आपको जिस जमाने में पढ़ाया गया तबसे अबतक दुनिया कितनी बदल चुकी है. उन्हें ये भी बताया जाए कि अनुशासन के नाम पर आप जो कर रहे हैं उससे बच्चों का भला न होकर बुरा ही हो रहा है.  

लेखक

गिरिजेश वशिष्ठ गिरिजेश वशिष्ठ @girijeshv

लेखक दिल्ली आजतक से जुडे पत्रकार हैं

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