कुछ इस तरह से होता है पुरुषों के साथ लिंगभेद और शोषण..
स्त्री पुरुष में वर्चस्व की लड़ाई कोई आज की नहीं है. मगर इसमें मामला तब गड़बड़ हो जाता है जब एक वर्ग अपने बल या अधिकारों के नाम पर दूसरे वर्ग को दबाना और फिर उसका शोषण शुरू कर देता है.
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सोशल मीडिया और हैशटैगों वाले इस दौर में स्त्री पुरुष को लेकर बहस पूर्व की अपेक्षा, वर्तमान में ज्यादा तेज हो गयी है. चाहे फेसबुक, ट्विटर हो या फिर व्हाट्स ऐप. आज ऐसे तमाम ग्रुप हैं जो किसी एक जेंडर को समर्पित हैं. यानी कुछ ग्रुप वो, जहां पुरुष रो रहे हैं, अपनी व्यथा का बखान कर रहे हैं. और उन्हें पुरुष ही सुन रहे हैं. पुरुष ही राय दे रहे हैं. इसके विपरीत कई ऐसे ग्रुप भी जिनकी कर्ता धर्ता औरतें हैं. जहां औरतों को मजबूत किया जा रहा है और बताया जा रहा है कि कैसे और किन-किन मार्गों पर चलकर वो पुरुषों से मुकाबला कर सकती हैं. एक ग्रुप में महिलाएं फेमिनिस्म का चोला ओढ़े पुरुषों के खिलाफ रहती हैं, तो वहीं दूसरे ग्रुप में पुरुष भी 'male chauvinism' के चलते तमाम महिलाओं को काटने दौड़ते हैं.
अब तक हमने महिलाओं पर हो रहे शोषण और लिंगभेद पर बहुत पढ़ा है, बहुत सुना है, बहुत लिखा है. मगर क्या कभी हमने पुरुषों के लिंगभेद और शोषण के विषय में सोचा? शायद जवाब न में आए. बात आगे बढ़ाने से पहले ये बताना बेहद जरूरी है कि ये लेख किसी महिला को नीचा दिखाने और पुरुषों को शोषित बताने के उद्देश्य से नहीं लिखा जा रहा है. न ही इस लेख का उद्देश्य ये बताना है कि दुनिया में सबसे ज्यादा शोषण केवल और केवल पुरुषों के साथ ही हो रहा है.
स्त्री, पुरुष को लेकर आज हमारा समाज दो धड़ों में बंट चुका है
इस लेख को लिखने का मकसद सिर्फ इतना है कि जब हम ये जानना चाहते हैं कि एक महिला के साथ अराजकता कहां-कहां और किन क्षेत्रों में होती है तो हमें ये भी अवश्य ही जानना चाहिए कि एक पुरुष कब-कब शोषण का शिकार या लिंगभेद होता है.
आज के इस सोशल मीडिया के दौर में, ये बात एक फसाना सरीखी है कि स्त्री और पुरुष एक गाड़ी के दो पहिये हैं. और ये समाज तभी चल सकता है जब ये दोनों पहिये सुचारू ढंग से काम करें. आज जहां एक तरफ महिलाओं पर शारीरिक मानसिक हिंसा हो रही है तो वहीं दूसरी ओर पुरुष भी इसका शिकार हैं जिससे उनका दिन का चैन और रातों की नींद कहीं खो चुकी है. हो सकता है कि इस बात को सुनकर कोई भी व्यक्ति इसे नकार दे और ये प्रश्न करे कि,' भला पुरुष भी शार्रीरिक या मानसिक हिंसा का शिकार हो सकते हैं.
तो इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि, 'हां, पुरुष भी उन्हीं चीजों का अनुभव करते हैं जिनका अनुभव एक महिला करती है. एक पाठक के तौर पर शायद आपको हैरत हो. जब आपको पता चले कि पुरुषों के साथ हुए रेप के 10 मामलों में से केवल एक मामला पुलिस तक जाता है. इन मामलों में पुलिस की प्रतिक्रिया कैसी रहती होगी इसका अंदाजा आप खुद लगा सकते हैं.
आज जिस तरह हम अपने को स्त्री, पुरुष के सांचे में डाल चुके हैं वो समाज के लिए सही नहीं है
शारीरिक या मानसिक हिंसा का शिकार होने के लिए स्त्री या पुरुष होना जरूरी नहीं है. ये किसी के साथ और किसी भी उम्र के व्यक्ति के साथ कहीं भी हो सकती है. अब तक हम यही मानते आए हैं कि ये महिलाओं के साथ ही हुआ है और ऐसा करने वाले पुरुष हैं. मगर अब वो वक़्त आ गया है जब हमें ये मान लेना चाहिए कि लिंगवाद की शिकार केवल महिलाएं नहीं है. क्या फायदा जब तक हम इसे समझें तब तक बहुत देर हो जाए. आइये देखें कि वो कौन - कौन से बिंदु हैं जो पुरुषों को अवसाद में डालने की हैसियत रखते हैं.
यौन उत्पीड़न या बलात्कार पर बना कानून
एक महिला को सिर्फ शिकायत करने की देर है और इस कानून के आधार पर बिना किसी जांच पड़ताल के किसी भी व्यक्ति के जीवन को आसानी से नरक बनाया जा सकता है. आज एक महिला किसी भी पुरुष को रेप के नाम से ब्लैकमेल कर उसका जीवन बर्बाद और उसे अवसाद में डाल सकती है.
दहेज हत्या (भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी)
शादी के 7 साल के भीतर यदि किसी शादीशुदा पुरुष की पत्नी की मृत्यु हो जाती है और मृत्यु की वजह प्राकृतिक मौत नहीं है तो उसेभारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी के तहत दोषी करार किया जा सकता है और भले ही किसी पुरुष ने ऐसा न किया हो मगर फिर भी उसके पूरे जीवन को बर्बाद किया जा सकता है.
घरेलु हिंसा का नाम देकर आज किसी की भी जिंदगी बर्बाद की जा सकती है
घरेलू हिंसा (भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए)
यदि कोई महिला अपने नजदीकी थाने में जाकर इस कानून का इस्तेमाल करते हुए केस दर्ज कर दे तो यकीन मानिए एक पुरुष की जिंदगी बर्बाद हो जाएगी. दुखद बात ये है कि आज महिलाओं द्वारा इस कानून का इस्तेमाल बेमतलब किया जा रहा है औ जब तक पूरी जांच के परिणाम सामने आते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.
एडल्ट्री (भारतीय दंड संहिता की धारा 497)
केवल एक व्यक्ति को व्यभिचार या एडल्ट्री के लिए दंडित किया जा सकता है मगर यहां महिलाओं को कानून छूट देता है. इस कानून का इस्तेमाल करके किसी पुरुष को आसानी से प्रताड़ित किया जा सकता है.
सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये है कि आज समाज स्त्री पुरुष के विचार को अलग ढंग से लेता है
समान विचार, अलग-अलग प्रतिक्रियाएं
कई बार ऐसा होता है कि किसी विषय पर स्त्री और पुरुष के समान विचार हो सकते हैं मगर चूंकि यहां स्त्री और पुरुष जुड़ा है तो इसमें लोगों की प्रतिक्रियाओं का अलग आना लाजमी है. जाहिर है ये बात किसी भी व्यक्ति को आहत करने के लिए काफी है.
पुरुषों को हमेशा अपनी सीमाओं में रहने को कहा जाता है
ये बेहद दुखद है कि जब एक तरफ हम समान अधिकारों की बात करते हैं तो वहीं दूसरी ओर ये कहना कि पुरुष अपनी सीमाओं में रहें या फिर अपने खर्च पर नियंत्रण रखें. ये लिंगभेद किसी भी पुरुष को अवसाद में डाल सकता और ये सोचने पर मजबूर कर सकता है कि समाज में उसका अपना अस्तित्व क्या है.
शिष्टता का पैमाना हर बार पुरुष हो ये जरूरी नहीं
शिष्टता
शिष्टता की सारी ठेकेदारी पुरुषों पर ही क्यों? जब एक पुरुष शिष्टता के नाते स्त्री के लिए खड़ा हो सकता है तो फिर स्त्री उसके सम्मान में खड़ी क्यों नहीं हो सकती. जब हम एक दूसरे के साथ की बात कर रहे हैं तो इस साथ की जांच का पैमाना निष्पक्ष होना चाहिए. हर बार ये कहना कि,'फलां काम केवल पुरुषों के लिए है किसी भी पुरुष को गहरी चिंता में डाल सकता है.
तलाक के बाद बच्चे महिला को मिलेंगे
इस बात को नकारते हुए कि कौन बेहतर पेरेंट साबित होगा यदि ये कहा जाए कि किसी के तलाक के बाद उसके बच्चे महिला को मिलने चाहिए अपने आप में समाज का दोगला चरित्र दिखाने के लिए काफी है. कहा जा सकता है कि भारत में ये लिंगभेद का एक बहुत बड़ा कारण है.
जब हम समानता की बातें करते हैं तो फिर स्त्री और पुरुष के लिए समान अधिकार होने चाहिए
सोशल स्टिग्मा
सबसे अंत में बात उस बिंदु पर जो लिंगभेद को सबसे ज्यादा बढ़ावा देती है. यदि कोई महिला किसी पुरुष पर हाथ उठा दे तो समाज उसे बहादुर कहता है इसके ठीक विपरीत यदि कोई पुरुष किसी महिला पर हाथ उठा दे तो उसेविलेन बना दिया जाता है. जब हम बात बराबरी और समान अधिकारों की कर रहे हैं तो फिर इस पर इतना हो हल्ला क्यों. इसे एक सामान्य सी बात मानकर हम नकार क्यों नहीं देते हैं.
कुछ चीजें केवल महिलाओं के लिए हैं
ये वाकई एक बेहद अजीब बात है कि कुछ कामों जैसे नर्सिंग, चाइल्ड केयर, प्राइमरी स्कूल अध्यापन, को हमनें स्त्री और पुरुषों में बांट दिया है. अब इन कामों में कोई पुरुष अपनी उपस्थिति दर्ज करा ले तो उसे शायद ऐसे-ऐसे तानें सुनने को मिलें जिसकी कल्पना शायद ही उसने कभी की हो.
ये वो कुछ कारण थे जो ये बताने के लिए काफी हैं कि जब हम महिलाओं पर हो रहे अत्याचार पर बात कर रहे हैं तो हमें पुरुषों पर हो रहे जुल्म ओ सितम पर भी बात करनी चाहिए और लिंगभेद या शारीरिक, मानसिक हिंसा का एकजुट होकर विरोध करना चाहिए.
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