धार्मिक कट्टरता रोकने के लिए फ्रांस जैसा कानून क्या भारत में लागू हो सकता है?
भारत में ‘कट्टरता’ के अलग-अलग स्वरूपों की उपस्थिति ऐसा विषय है, जिस पर नीति निर्माताओं को विशेष ध्यान देने की जरूरत है. किसी भी प्रकार की आधिकारिक नीति की अनुपस्थिति में यह समस्या और भी गंभीर हो गई है. सरकार इन चुनौतियों से निपटने के लिये फ्रांस की भांति एक व्यापक नीति की रूपरेखा तैयार करे ताकि कट्टरता के किसी रूप से प्रभावित लोगों को बचाया जा सके.
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फ्रांस (France) की संसद ने कट्टर और अलगाववादी विरोधी बिल को मंजूरी दे दी है. बिल में मस्जिद-मदरसों पर निगरानी का प्रावधान किया गया है. पत्रकारों द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या भारत में भी कट्टरता के खिलाफ ऐसा बिल आएगा? केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि वो फ्रांस के बिल का अध्ययन करने के उपरांत ही इस सवाल का जवाब देंगे. फ़िलहाल कट्टरपंथियों पर लगाम लगाने और हाल फिलहाल में हुई हिंसक गतिविधियों के कारण फ्रांस सरकार यह बिल ला रही है. जबकि दूसरी तरफ फ्रांस में इस्लामी संगठनों द्वारा इस बिल का जमकर विरोध किया जा रहा है.
सरकार का तर्क है बिल फ्रांस की धर्मनिरपेक्ष परंपराओं को कमजोर करने वालों के खिलाफ कठोर कार्यवाही सुनिश्चित करेगा. इस बिल के समर्थन में 347 वोट पड़े जबकि 151 सांसदों ने इसका विरोध किया है. इस बिल के अनुसार सरकार धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बिगाड़ने वालों पर कार्यवाही कर सकेगी. मस्जिदों की फंडिंग, इमामों की ट्रेनिंग पर नजर रखेगी. कट्टरवाद बढ़ाने वाली मजहबी शिक्षा पर नियंत्रण रखा जाएगा. मस्जिदें सिर्फ धार्मिक स्थल होंगी, वहां पढ़ाई नहीं होगी और पढ़ाई के लिए मुस्लिम बच्चे सिर्फ स्कूल ही जाएंगे. साथ ही इंटरनेट पर नफरत फैलाने के खिलाफ कड़े नियम बनाए जाएंगे. बहुविवाह और जबरन विवाह को अवैध माना जाएगा.
फ्रांस में कट्टर और अलगाववादी विरोधी बिल का विरोध करते मुस्लिम समुदाय के लोग
तो भैया बात निकली है तो दूर तलक़ जाएगी. निश्चित रूप से भारत भी कमोबेश कट्टरता की समस्या से जूझ रहा है. इसमें संदेह नहीं है कि बहुलतावादी बहुसांस्कृतिक समाज में धार्मिक अतिवाद और हिंसा के कारण न केवल देश की आंतरिक सुरक्षा बल्कि देश के सामाजिक ताने बाने पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है. अभी कुछ समय पूर्व ही भारत में गृह मंत्रालय ने ‘भारत में कट्टरता की स्थिति’ पर अपनी तरह के पहले शोध अध्ययन को मंज़ूरी दे दी है, जिसके माध्यम से विधिक रूप से ‘कट्टरता’ को परिभाषित करने का प्रयास किया जाएगा और उसी आधार पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 में संशोधन किया जाएगा.
मंत्रालय का दावा है कि यह अध्ययन पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष होगा. भारत में अभी भी ‘कट्टरता’ को कानूनी रूप से परिभाषित नहीं किया गया है. जिसके कारण प्रायः पुलिस और प्रशासन द्वारा इस स्थिति का दुरुपयोग किया जाता है. धार्मिक ‘कट्टरता’ की इस समस्या को हल करने के लिये साथ समाज में सकारात्मक और समरस माहौल तैयार करने तथा लोगों को एकजुट करने की भी आवश्यकता है. इस कार्य के लिये सर्वप्रथम ‘कट्टरता’ को परिभाषित करना होगा.
फ़िलहाल दुनिया भर के चिंतकों और विधि एवं समाजशास्त्रियों ने इस पर बहुत मंथन किया है लेकिन वैश्विक स्तर पर भी ‘कट्टरता’ की कोई स्वीकृत परिभाषा नहीं बन पाई है क्योंकि संदर्भ और परिस्थितियों की भिन्नता भी इसके सर्वमान्य परिभाषा के राह में एक प्रमुख बाधा है. सरल शब्दों में कट्टरता को ‘समाज में अतिवादी ढंग से कट्टरपंथी परिवर्तन लाने के विचार को आगे बढ़ाने और/अथवा उसका समर्थन करने के रूप में समझा जाता है.
विभिन्न धार्मिक साम्प्रदायिक कट्टरता के अतिरिक्त वैचारिक कट्टरता भी दक्षिणपंथ और वामपंथ के रूप में अस्तित्व में है. भारत में संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट में धार्मिक कट्टरता के सन्दर्भ में केरल और कर्नाटक में इस्लामिक स्टेट (IS) और अलकायदा जैसे आतंकी संगठनों के सदस्यों के बढ़ते गतिविधियों के बारे में आगाह किया गया है. गृह मंत्रालय की तरफ से राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने लोकसभा को सूचित किया था कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने तेलंगाना, केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में इस्लामिक स्टेट (IS) की उपस्थिति से संबंधित 17 मामले दर्ज किये गए हैं.
इसी भांति भारत के कई राज्यों में वामपंथी अतिवाद की समस्या को अब तक समाप्त नहीं किया जा सका है. वामपंथी अतिवाद से प्रभावित ज़िलों में लगातार पुलिस प्रशासन द्वारा गिरफ्तारियाँ की जा रही है किन्तु नक्सलवाद की समस्या अब भी आंतरिक सुरक्षा और विधि व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती बनी हुई है. इसी भांति हाल में चर्चित मॉब लिंचिंग की घटनाएँ, लोगों के मन में धर्म विशेष के प्रति पैदा होती घृणा और नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और गौरी लंकेश जैसे मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं की हत्या के मामले दक्षिणपंथी अतिवाद की ओर इशारा करते हैं.
यह स्पष्ट है कि भारत में ‘कट्टरता’ के अलग-अलग स्वरूपों की उपस्थिति ऐसा विषय है, जिस पर नीति निर्माताओं विशेष ध्यान देने की जरूरत है. किसी भी प्रकार की आधिकारिक नीति की अनुपस्थिति में यह समस्या और भी गंभीर हो गई है. यह कतई गलत नहीं है यदि सरकार इन चुनौतियों से निपटने के लिये भारत के लिए भी फ्रांस की भांति एक व्यापक नीति की रूपरेखा तैयार करे ताकि कट्टरता के किसी रूप से भी प्रभावित लोगों को बचाने के साथ ऐसी भावनाओं को हतोत्साहित भी किया जा सके.
निश्चित रूप से ऐसी नीति गंभीर अध्ययन, विश्लेषण और व्यापक परिचर्चा की मांग करती है. भारत के बहुलता वादी समाज और बहुसांस्कृतिक स्वरूप में धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों से संगति बिठाने के लिए ऐसी नीति और कानून को अवश्य लाना चाहिए.
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