...तो मान लिया गया है कि नैतिकता शिक्षक नहीं दे सकते?
क्या ऐसा नहीं लगता कि नैतिकता, ईमानदारी, सच्चाई, आदर्शवादिता और अच्छे संस्कार; परिवार और परिवेश से आते हैं! हर बात की जिम्मेदारी स्कूल ही क्यों ले?
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राजस्थान सरकार के अनुसार सरकारी स्कूलों के बच्चों को अब महीने के हर तीसरे शनिवार को संतों के प्रवचन सुनने होंगे. सरकार का मानना है कि ऐसा करने से बच्चों में नौतिक मूल्यों का विकास होगा. सरकार की नैतिक मूल्यों वाली बात तो समझ आती है, पर यहां एक गंभीर समस्या यह उभर सकती है कि प्रवचन देने वाले किसी धर्म विशेष पर ही फोकस करें और बच्चों के कोमल मस्तिष्क में उसी की महानता के गीत रच दिए जाएं. इसलिए यह तय करना अत्यावश्यक है कि प्रवचन देने वाले धर्मगुरु केवल अपना झंडा न फहराते हुए सभी धर्मों के समर्थक हों और 'सर्व-धर्म-समभाव' में विश्वास रखते हों. अन्यथा ये विद्यालय अपने मूल उद्देश्य से भटककर 'धर्म प्रशिक्षण केंद्र' बनकर रह जायेंगे.
बच्चे प्रवचन सुनेंगे तो उनमें नैतिक मूल्यों का विकास होगा
यूं तो पहले भी विद्यालयों में नैतिक एवं शारीरिक शिक्षा एक विषय हुआ करता था तथा अब भी कई विद्यालय इस पक्ष की ओर ध्यान देते हुए मैडिटेशन करवाते हैं, विविध उत्सवों पर कार्यक्रम करते हुए छात्रों को उनसे सम्बंधित सम्पूर्ण जानकारी भी देते ही हैं. अतः इस कदम से छात्रों को प्राप्त लाभ का अनुमान लगा पाना कठिन है पर चलो, रुटीन पढ़ाई से एक ब्रेक तो मिलेगा ही उन्हें और विद्यार्थियों के लिए ऐसी क्लासेज चैन की बंसी बजाने की तरह होंगीं.
पर क्या ऐसा नहीं लगता कि नैतिकता, ईमानदारी, सच्चाई, आदर्शवादिता और अच्छे संस्कार; परिवार और परिवेश से आते हैं! हर बात की जिम्मेदारी स्कूल ही क्यों ले? यह माता-पिता और परिवार का मूल कर्त्तव्य है कि वे अपने बच्चों को न केवल जीवन की सही राह दिखाएं बल्कि स्वयं उन मूल्यों पर चलकर उनके आदर्श बनें.
यदि प्रवचन से ही ज्ञान प्राप्ति होती तो अपनी ही आवाज सुनकर शालीनता और भक्ति का नकली आडम्बर ओढ़े 'तथाकथित' बाबा आसाराम, राम पाल, राम रहीम, राधे मां और इन जैसे कितने ही संत टाइप लोग स्वयं ही सुधर चुके होते और आदर्श संतों की छवि पर यूं बट्टा न लगता.
हां, एक बात और....यदि प्रवचन से ही नैतिक मूल्यों का प्रादुर्भाव होता है तो क्यों न 'प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम' के अंतर्गत सबसे पहले नेताओं की ही क्लास ली जाये क्योंकि पतन की पराकाष्ठा और कट्टर प्रथा तो यहीं से प्रारम्भ हुई है. तो फिर सुधार का परीक्षण और अभ्यास भी यहीं से क्यों न हो!
वैसे एक मजेदार आईडिया और भी है पहले शनिवार को भाजपा समर्थक महापुरुषों का, दूसरे शनिवार कांग्रेस, तीसरे में आप तथा चौथे, पांचवे में अन्य दलों को स्थान दिया जाए. इससे बारहवीं पास करते-करते बच्चे यह भी तय कर लेंगे कि उन्हें किस तरह का नेता बनना या नहीं बनना है. ऐवीं पढ़ लिखकर वैसे भी क्या फ़ायदा होना है!
बोलो तारा रा!
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