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Updated: 09 मार्च, 2018 06:25 PM
श्रुति दीक्षित
श्रुति दीक्षित
  @shruti.dixit.31
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महिलाओं के लिए और खास तौर पर भारतीय महिलाओं के लिए पीरियड एक बहुत चिंताजनक विषय है. इस विषय पर बात करने वाली सभी महिलाओं को फेमिनिस्ट और सभी मर्दों को एक्स्ट्रा मॉर्डन का दर्जा दिया जाता है और इसे ऐसा माना जाता है जैसे ये अछूत हो. इसी बात को शायद पैडमैन के बाद लोगों ने समझना शुरू किया है और भारत में पैड्स अपनाने और उसके बारे में इतना खुल कर बात करने के लिए 2018 तक इंतजार करना पड़ा. खैर, जो भी हो.. 8 मार्च 2018 को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर कम से कम सरकार ने महिलाओं के लिए कुछ नया किया....

 

सरकार ने सुविधा नाम का एक नया बायोडिग्रेडेबल पैड लॉन्च किया है जो 2.50 रुपए प्रति पैड की कीमत पर मिलेगा यानि 10 रुपए में 4. ये प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधी सेंटर पर मिलेगा और देश के 3200 सेंटर से ये लिया जा सकता है. इसे उन महिलाओं के लिए लॉन्च किया गया है जो गरीब हैं और सैनेट्री पैड्स का इस्तेमाल नहीं कर पातीं. ये पैड्स 28 मई 2018 से मिलने शुरू होंगे जो वर्ल्ड मेंस्ट्रूअल हाइजीन डे भी है.

भारत में सैनेट्री पैड्स और पीरियड्स को लेकर कितनी जागरुकता है और किस तरह से पीरियड्स को लिया जाता है ये शायद बताने की जरूरत नहीं है.

कुछ आंकड़ों पर गौर करते हैं...

Water Supply and Sanitation Collaborative Council (WSSCC) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 23% स्कूल जाने वाली लड़कियां पीरियड्स शुरू होने के बाद स्कूल जाना छोड़ देती हैं. नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे - 4 (2015-2016) के अनुसार 15-24 साल की 62% लड़कियां, देश में अभी भी कपड़े का इस्तेमाल करती हैं. NFHS- 4 के मुताबिक सिर्फ 42% महिलाएं देश में सैनेट्री पैड्स का इस्तेमाल करती हैं और उनमें से सिर्फ 16% लोकल बने पैड्स का इस्तेमाल करती हैं. गांवों में रहने वाली आधे से ज्यादा महिलाएं हाइजीनिक प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल नहीं करती हैं और लगभग 48% महीलाओं ने कभी नैप्किन इस्तेमाल ही नहीं किया.

जागरुकता तो है, लेकिन...

यूनिसेफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार और झारखंड की 85% लड़कियां कपड़े का ही इस्तेमाल करती हैं और 65% को कम से कम ये तो पता है कि सैनेट्री नैपकिन होता क्या है क्योंकि उन्होंने टीवी पर ये देखा है. इसी स्टडी के मुताबिक 85% लड़कियों को ये नहीं पता होता कि जब पीरियड्स होंगे तो वो क्या करेंगी और पढ़ाई का क्या होगा. इनमें से आधी तो स्कूल ही नहीं जातीं.

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WSSCC की रिपोर्ट कहती है कि भारत में 75% महिलाओं को पूजा करने से रोक दिया जाता है, 45% को किचन में जाने नहीं दिया जाता और 25% को खाने-पीने से मना किया जाता है. ये आंकड़े बताते हैं कि जागरुकता अभी भी कितनी कम है.

क्यों सरकार का ये कदम सराहनीय है...

सबसे अहम बात है कीमत. खुद ही सोचिए हमारे देश पर सैनेट्री पैड्स पर 12% जीएसटी लगाया जाता है और अगर गौर करें तो विस्पर, स्टेफ्री, सॉफ्टी, केयरफ्री जैसे पैड्स कितने महंगे आते हैं ये जानने के लिए एक गूगल सर्च ही काफी है. 350-400 रुपए का एक लार्ज पैकेट जिसमें करीब 30 पैड्स (कुछ में कम या ज्यादा भी) आते हैं. यानि 11-15 रुपए प्रति पैड की कीमत. अब सरकार ने जो पैड लॉन्च किया है वो इस हिसाब से 5 गुना सस्ता है. खास बात ये है कि प्रोडक्शन कॉस्ट काफी कम है.

जब भारत के पैडमैन यानि अरुनाचालम मुरुगनाथम ने भारत में कम कीमत वाले सैनेट्री पैड्स बनाने की सोची तो उनकी रिसर्च से ये सामने आया था कि इसकी कीमत हाई-कॉस्ट मशीन के कारण बढ़ जाती है. तभी से उन्होंने एक मशीन बनाई जो फुट पैडल और इलेक्ट्रिसिटी से चलती थी. ये मशीन 1000 नैप्किन एक दिन में बनाती है और इसकी प्रोडक्शन कॉस्ट 16 रुपए प्रति 8 नैपकिन यानि 2 रुपए प्रति नैपकिन तक गिर जाती है.

Indiafilings की रिपोर्ट के मुताबिक एक सेनेट्री नैपकिन प्लांट के लिए बहुत ज्यादा मेहनत की जरूरत नहीं होती इसके लिए एक 400 स्क्वेयर फिट का कमरा, वुड पल्प यानि लकड़ी का गूदा डिफाइबरेट करने वाली मशीन 20 हजार रुपए, एक नैपकिन कोर फॉर्मिंग मशीन जो 5000 की आएगी, एक सॉफ्ट टच सीलिंग मशीन जो 30 हजार रुपए की आएगी, नैपकिन कोर डाई जिसकी कीमत लगभग 4000 रुपए होगी और एक यूवी ट्रीटमेंट यूनिट जो 10 हज़ार रुपए का आएगा. इसके अलावा, सिर्फ वजन नापने का यूनिट और प्रोडक्शन के लिए फर्नीचर. इसके अलावा, फुल यूनिट कई कंपनियां बेचती हैं जो लगभग 1 लाख से 2.5 लाख के बीच आ सकता है. इससे करीब 1500 नैपकिन एक दिन में बनाए जा सकते हैं.

अगर ब्रांडेड सैनेट्री नैपकिन की बात करें तो यहां एडवर्टिज्मेंट कॉस्ट, प्रोडक्शन कॉस्ट, उसे 5 गुना ज्यादा एब्जॉर्बेंट बनाने, सेंट डालने आदि से बढ़ती है, लेकिन इसकी आधी कॉस्ट में भी काम हो सकता है.

बायोडिग्रेडेबल क्यों बेहतर...

अगर एवरेज निकाला जाए तो एक महिला 125 किलो सैनेट्री वेस्ट अपनी पूरी जिंदगी में पीरियड्स के समय पैदा करती है. ये सारा कचरा नालियों में, सीवेज में, जमीन में फेंका जाता है. सैनेट्री पैड्स अपने आकार से 5 गुना तक ज्यादा पानी और गीलापन सोख सकते हैं, तो सोचिए नाली, नदी, तालाब, जमीन आदि को ये कितना नुकसान पहुंचा सकते हैं. बिहार में लगभग 60% महिलाएं अपना सैनेट्री कचरा खेतों में या जमीन पर फेंकती हैं. भारत का कचरा मैनेजमेंट कैसा है वो तो किसी को घर से बाहर निकलते ही समझ आ जाएगा. कचरा उठाने और साफ करने के लिए निचली जाती के लोगों का सहारा लिया जाता है. ऐसे में हर साल हजारों किलो सैनेट्री पैड्स का कचरा पर्यावरण के लिए कितना खतरनाक है ये सोचिए. ये पूरा कचरा अगर बायोडिग्रेडेबल हो तो पर्यावरण को कितना फायदा पहुंचेगा अब ये सोचिए.

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बड़े ब्रैंड्स के सभी पैड्स अत्यधिक सुविधाजनक भले ही लगते हों, लेकिन सेहत और पर्यावरण दोनों के लिए ये सही नहीं हैं. इसे के साथ, इन पैड्स में कैमिकल का इस्तेमाल होता है और इन्हें एब्जॉर्बेंट बनाया जाता है ऐसे में मेंस्ट्रूअल हेल्थ पर कितना असर पड़ता होगा ये सोचा जा सकता है. पैड्स के अलावा, टैम्पून, मेंस्ट्रूअल कप, मेंस्ट्रूअल स्पंज आदि के बारे में तो महिलाओं को पता ही नहीं है.

वो देश जहां लड़कियों को अपनी अंडरवियर और ब्रा भी तौलिए के नीचे कोने में सुखानी पड़ती है क्योंकि कोई देख लेगा तो लोगों को ये पता चल जाएगा कि उनके पास ब्रा है उस देश में पीरियड्स को ऐसा समझा जाता है जैसे वो एक राक्षस है और महिलाओं को तो ये होता ही नहीं है. लोग इसका नाम भी नहीं लेते हैं, अभी भी न सिर्फ गावों में बल्कि शहरों में भी कई महिलाएं ऐसी हैं जिनके लिए पीरियड्स एक बहुत बड़ा विषय है जिसके बारे में बात करने का मतलब है शर्मिंदा होना. ऐसे में सरकार की ये पहल वाकई महिला दिवस का सबसे अच्छा तोहफा माना जा सकता है. भारत में और भी कई ऐसे बायोडिग्रेडेबल पैड्स उपलब्ध हैं जिनका इस्तेमाल किया जा सकता है. वो देश जहां वैसे भी कचरा बहुत पैदा होता है और हाईजीन, सैनिटेशन जैसे शब्द बेमानी लगते हैं वहां बायोडिग्रेडेबल सस्ते पैड्स यकीनन महिलाओं की जरूरत है.

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लेखक

श्रुति दीक्षित श्रुति दीक्षित @shruti.dixit.31

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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