हिंदी दिवस को एक और वर्ष बीत गया लेकिन आज भी स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है!
हिंदी दिवस भले ही ख़त्म हो गया हो लेकिन कहा यही जाएगा कि हम वो लोग हैं जो हिंदी में ही सोचते हैं, हिंदी ही पढ़ते और सुनते हैं, हिंदी ही लिखते हैं इसलिए कहीं न कहीं हमारी दिली इच्छायही है कि हमारा हिंदुस्तानी समाज हिंदी बोलने को ही प्राथमिकता दे और हर घर हिंदी, हर दर हिंदी नजर आये.
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एक और वर्ष बीत गया- कल 14 सितम्बर था और हमेशा की तरह ही इस बार भी सुबह से ही चारों तरफ हिंदी की गूंज सुनाई और दिखाई दे रही थी. सुबह से हिंदी दिवस से सम्बंधित तमाम सन्देश (जिनमें कुछ में तो हैप्पी हिंदी डे भी लिखा हुआ था) आ जा रहे थे और कुछ सुंदर और प्रेरक वीडियो भी एक दूसरे को भेजे जा रहे थे. शाम होते होते तमाम सरकारी, अर्धसरकारी और अन्य कार्यालयों में हिंदी दिवस से सम्बंधित कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे जिनमें लोग मन से कम लेकिन लिहाज और भय से ज्यादा भागीदारी कर रहे थे. कुल मिलाकर सब कुछ एक ढर्रे पर चलता महसूस हुआ जो यह दर्शाता है कि अगर यह दिवस नहीं मनाया जाए तो शायद एक दिन के लिए भी तथाकथित ज्यादा पढ़े लिखे लोग और नेता/नौकरशाह हिंदी बोलने में अपनी तौहीन समझेंगे.
हिंदी दिवस ख़त्म हो गया है और एक बार फिर चीजें पुराने ढर्रे पर आ गयीं हैं
वैसे बहुत से लोग ऐसे भी थे जो इस दिन भी फर्राटेदार अंग्रेजी झाड़ रहे थे चाहे वह हिंदी दिवस समारोह में जाने की तयारी ही क्यों न कर रहे थे. बहरहाल इन सब के बावजूद भी कहीं न कहीं हम सब का हिंदी लेखन, बोलने और समझने के प्रति रुझान काफी बढ़ा है और यह सबसे ज्यादा सोशल मीडिया पर परिलक्षित होता है.
वैसे अगर हम यह भी कहें तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हिंदी भाषा की सबसे ज्यादा मदद हाल के दिनों में इस सोशल मीडिया ने ही की है. मुझे अच्छी तरह से याद है कि आज से लगभग १० साल पहले तमाम सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम इत्यादि पर गिने चुने लोग ही हिंदी में लिखते नजर आते थे.
शायद झिझक की वजह से या हीनभावना की वजह से, या इन दोनों की वजह से, लोग अंग्रेजी में लिखना शान समझते थे. एक और वजह थी कि उस समय तकनीक इतनी हिंदी के पक्ष में नहीं थी, मतलब हिंदी के की बोर्ड सभी जगह मौजूद नहीं थे, चाहे वह फोन हो या कंप्यूटर. जैसे जैसे लोग हिंदी में ज्यादा लिखने पढ़ने लगे, तकनीक भी साथ साथ परिष्कृत होने लगी और आज तो हम आप बोलकर भी हिंदी लिख सकते हैं.
आज एक दिन बीतने के बाद हिंदी उस तरह से मुखर नहीं प्रतीत हो रही है जिस तरह कल लग रही थी लेकिन यह तो हर चीज के साथ होता है. नए साल के दिन जितने प्रण लिए जाते हैं वह सब अगले दिन से ही कमजोर पड़ने लगते हैं और कुछ हफ़्तों के बाद तो शायद ही किसी को याद रहतें हों कि हमने इस वर्ष क्या नया करने का प्रण लिया था.
इसी तरह से हिंदी में कार्य करने का प्रण, बोलने और पढ़ने का प्रण सब धीरे धीरे कमजोर पड़ने लगते हैं लेकिन इन सबके बावजूद भी आज हिंदी में लिखने पढ़ने वालों की संख्या हमें इस बात का एहसास तो करा ही देती है कि अब लोग हिंदी में बोलना हीन नहीं समझते. खैर हम तो हिंदी में ही सोचते हैं, हिंदी ही पढ़ते और सुनते हैं, हिंदी ही लिखते हैं इसलिए हमारी दिली इच्छा तो यही है कि हमारा हिंदुस्तानी समाज हिंदी बोलने को ही प्राथमिकता दे और हर घर हिंदी, हर दर हिंदी नजर आये.
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