हिंदी अकादमियों से सम्मानित लोग नहीं हैं हिंदी सेवी !
प्रेम, संस्कृति और मानवीय संवेदना की भाषा हिन्दी सारे संसार में अपने पैर जमा चुकी है. और इसके लिए हिन्दी के गैर-हिन्दी भाषी मित्रों और प्रेमियों के योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता.
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क्या उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश या बिहार की हिन्दी पट्टी में जन्में और किसी अन्य जगह में रचे-बसे हिन्दी अध्यापक, लेखक या कवि को हिन्दी सेवी माना जाए? कतई नहीं. वह निश्चित रूप से एक लेखक, कवि या कहानीकार हो सकता है. उसका उस रूप में तो अवश्य ही सम्मान किया जा सकता है. लेकिन उसे हिन्दी सेवी की श्रेणी में रखना सही नहीं होगा. हिन्दी अकादमियां और हिन्दी के प्रसार-प्रचार से जुड़ी संस्थाएं जिन हिन्दी सेवियों को सम्मानित करती हैं, उनमें से अधिकतर दूर-दूर तक किसी भी माइने में हिन्दी की सेवा नहीं की होती है. हिन्दी सेवी तो वो व्यक्ति या संस्था है, जो गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्र में हिन्दी के प्रसार-प्रचार के लिए नि:स्वार्थ भाव से प्रतिबद्धता से दशकों से जुटा हुआ है. इसमें देश-विदेश के अनेक जगहों के हज़ारों हिन्दी सेवक शामिल हैं.
हिंदीदक्षिण भारत का 'हिन्दी प्रचार आंदोलन'
दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की बात करते हैं. लगभग 100 वर्ष पूर्व 1918 में मद्रास में 'हिन्दी प्रचार आंदोलन' की नींव रखी गई थी. उसी वर्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन मद्रास कार्यालय की स्थापना हुई थी, जो आगे चलकर दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के रूप में स्थापित हो गई. बाद में तमिल और अन्य दक्षिणी राज्यों की जनता की भावनाओं का आदर करते हुए, इस संस्था को 'राष्ट्रीय महत्व की संस्था' के रूप में घोषित कर दिया गया. वर्तमान में इस संस्थान के चारों दक्षिणी राज्यों में प्रतिष्ठित शोध संस्थान है. और बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीय मूल के साहित्यप्रेमी इस संस्थान से हिन्दी में दक्षता प्राप्त कर ज़्यादातर दक्षिण राज्यों में ही हिन्दी की सेवा कर रहे हैं. हिन्दी के प्रसार और प्रतिष्ठा में संलिप्त हजारों दक्षिण भारतीय बंधु न मात्र हिन्दी से अपनें रोजगार के अवसरों को स्वर्णिम बना रहें हैं, अपितु दक्षिण में हिन्दी प्रचार के क्रम में ऐसी कई प्रतिष्ठित हिन्दी संस्थाओं को भी स्थापित करते रहे हैं. जो लोग कहते हैं कि तमिलनाडू में हिन्दी में संवाद संभव नहीं है, उन्हें यह कौन बताए कि हर साल हिन्दी प्रचार सभा, चेन्नई हजारों हिन्दी प्रेमियों को हिन्दी लिखना-पढ़ना सिखाती है. इससे जुड़े तमिल मूल के अध्यापक सच्चे हिन्दी सेवी हैं.
दक्षिण भारत में हिन्दी की सेवा करने के लिए केरल में 1934 में 'केरल हिन्दी प्रचार सभा', आंध्र में 1935 में 'हिंदी प्रचार सभा', हैदराबाद और कर्नाटक में 1939 में 'कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति', 1943 में 'मैसूर हिंदी प्रचार परिषद' तथा 1953 में 'कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति' की स्थापना हुई. ये मात्र कुछ ही उदाहरण हैं. लगभग हर वर्ष ग़ैर-हिन्दी प्रदेशों में कोई न कोई हिन्दी साहित्य के शिक्षण से सम्बंधित संस्था खड़ी होती ही रहती है. इन संस्थानों में लाखों छात्र हिन्दी की परीक्षाओं में सम्मिलित व उत्तीर्ण होते हैं. हाल के दिनों में कर्नाटक में चंद लफंगों और नासमझ हिन्दी विरोधियों को खाद-पानी देने वाले कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दरमैया जी को काश यह पता होता कि उनके राज्य में हिन्दी की जड़ें कितनी गहरी हैं. वहां पर हिन्दी किसी भी तरह से कन्नड़ को चुनौती नहीं देती. वो कन्नड़ की मित्र बनकर ही रहती है. हिन्दी तो सही माने में प्रेम, मैत्री और सौहार्द की भाषा है. हिन्दी का तो मूल स्वभाव ही मेल-जोल का है.
गांधी, हिन्दी और दक्षिण
महात्मा गांधी के हिन्दी प्रचार आंदोलन के परिणामस्वरूप "दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा" की स्थापना मद्रास नगर के गोखले हॉल में डॉ.सी.पी. रामास्वामी अय्यर की अध्यक्षता में एनी बेसेन्ट ने की थी. इसके गांधीजी आजीवन सभापति रहे. उन्होंने देश की अखंडता और एकता के लिए हिन्दी के महत्व एवं उसके प्रचार-प्रसार पर बल दिया. गांधीजी का विचार था कि दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार का कार्य वहां के स्थानीय लोग ही करें. महात्मा गांधी और उनके बाद के बाद हिन्दी के महान उपासक डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इस संस्था के अध्यक्ष बने. यह संस्था "हिन्दी समाचार" नाम की एक मासिक पत्रिका भी निकालती है. 'दक्षिण भारत' नामक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका में दक्षिण भारतीय भाषाओं की रचनाओं के हिन्दी-अनुवाद और उच्चस्तर के मौलिक साहित्यिक लेख छपते हैं. हिन्दी अध्यापकों और प्रचारकों को तैयार करने के लिए सभा के शिक्षा विभाग के मार्गदर्शन में 'हिन्दी प्रचार विद्यालय' नामक प्रशिक्षण विद्यालय तथा प्रवीण विद्यालय संचालित किया जा रहा हैं.
केरल में हिन्दी फिल्में की धूम
केरल तो हिन्दी फिल्मों का दीवाना है. मलयाली बहुत चाव से हिन्दी फिल्में देखते हैं. ऋतिक रोशन और कैटरीना कैफ की फिल्म ‘बैंग-बैंग’ ने केरल में एक सप्ताह के अंदर चार करोड़ रुपये की कमाई कर राज्य में सबसे ज्यादा सफल हिन्दी फिल्म बन गई थी. तब फिल्म की सफलता से खुश ऋतिक ने ‘यूट्यूब’ पर साझा किए वीडियो में कहा था, “केरल में अपनी फिल्म को मिली प्रतिक्रिया देखकर मैं भावविभोर हूं.” ‘बैंग-बैंग’ केरल के कुल 105 सिनेमाघरों में एक साथ प्रदर्शित की गई थी और सिर्फ़ कोच्चि में ही इसके 40 शो हुए थे. इसी से आप केरल में हिन्दी की स्थिति को समझ सकते हैं. इसके अलावा केरल में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने के लिए हिन्दी की छोटी-बड़ी सभी परीक्षाओं को संचालित करना, हिन्दी की पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करना तथा हिन्दी नाटकों को अभिनीत करना केरल हिन्दी प्रचार सभा के मुख्य उदेश्य रहे हैं. सभा की ओर से हिन्दी, मलयालम और तमिल भाषाओं में सामंजस्य स्थापना करने के प्रयोजन से 'राष्ट्रवाणी' नाम की एक त्रिभाषा साप्ताहिक पत्रिका का भी प्रकाशन किया जाता है. इसके अतिरिक्त 'केरल ज्योति' नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी हो रहा है. आंध्र प्रदेश और तेलगांना में भी स्थानीय भाषाओं के साथ हिन्दी भी आगे बढ़ती जा रही है. केरल में हिन्दी फिल्में भी जमकर देखी जाती हैं.
पूर्वोत्तर में हिन्दी की बिन्दी
पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी के प्रति प्रेम में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है. इन राज्यों में सेना, सुरक्षा से जुड़े हुए जवान, व्यापार के लिए हिन्दी क्षेत्रों से जाकर इन राज्यों में बस जाने वाले व्यापारी, पूर्वी उत्तर-प्रदेश और बिहार से काम के सिलसिले में इन राज्यों में आए मजदूरों के कारण यहां हिन्दी भाषा का प्रचार प्रसार हुआ. और देश के पूर्वोत्तर भागों में हिन्दी को स्थापित करने में गांधी जी ने भी पहल की थी. गांधी जी ने असमिया समाज को हिन्दी से परिचित कराने के लिए बाबा राघवदास को हिन्दी प्रचारक के रूप में नियुक्त करके असम भेजा था. पूर्वोत्तर में हिन्दी इसलिए भी आराम से स्थापित हो गई, क्योंकि माना जाता है कि जिन भाषाओं की लिपि देवनागरी है, वह भाषा हिन्दी न होते हुए भी उस भाषा के जरिए हिन्दी का प्रचार हो जाता है. जैसे कि अरूणाचल में मोनपा, मिशि और अका, असम में मिरि, मिसमि और बोड़ो, नगालैंड में अडागी, सेमा, लोथा, रेग्मा, चाखे, तांग, फोम तथा नेपाली, सिक्किम में नेपाली लेपचा, भड़पाली, लिम्बू आदि भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि है. देवनागरी लिपि अधिकांश भारतीय लिपियों की मां रही है. अत: इसके प्रचार-प्रसार से पूर्वोत्तर में हिन्दी शिक्षा और प्रसार का मार्ग सुगम हो गया.
पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी समझने एवं जानने वाले तथा बोलने वाले लोगों की संख्या पर्याप्त है. एक बात और! पूर्वोत्तर राज्यों में हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार में केंद्रीय हिन्दी संस्थान का योगदान भी उल्लेखनीय रहा है. संस्थान के तीन केन्द्र गुवाहाटी, शिलांग तथा दीमापुर में सक्रिय हैं. ये तीनों केन्द्र अपने-अपने राज्यों में हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार के विशेष कार्यक्रम चलाते हैं. वहीं मणिपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने सन् 1928 से ही हिन्दी का प्रचार-कार्य शुरू कर दिया था. कुछ वर्षों बाद राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने अपनी शाखा मणिपुर में खोली. यहां इम्फाल के हिन्दी प्रेमियों ने मिलकर 7 जून, सन् 1953 को ‘मणिपुर हिंदी परिषद’ की स्थापना की. मणिपुर की दूसरी प्रमुख हिन्दी संस्था का नाम ‘मणिपुर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ है. ‘नगालैण्ड राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ भी अपने प्रदेश में हिन्दी को स्थापित कर रही है.
केन्द्रीय हिंदी संस्थान नगालैंड के हिन्दी अध्यापकों के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करता रहा है जिसमें प्रति वर्ष नगालैंड से बीस से तीस हिन्दी अध्यापक आगरा हिन्दी संस्थान आते हैं तथा प्रशिक्षण के बाद आगरा से अपने यहां ‘हिन्दी के राजदूत’ बनकर लौटते हैं. धीरे धीरे नगालैंड के अंगामी, रेंगमा, लोथा, चाखेसाङ, फोमा आदि जनभाषाओं के बोलने वाले देवनागरी लिपि को अपना रहे हैं. नगालैंड के पड़ोसी मिज़ोरम में हिंदी के प्रचार की संस्था का नाम ‘मिज़ोरम हिन्दी प्रचार सभा’ है. इसी तरह मेघालय तथा त्रिपुऱा में भी हिन्दी सेवी सक्रिय हैं.
विदेशों में हिन्दी की स्थिति
अगर हम देश की सीमाओं को लांघकर भी देखें तो अब हिन्दी सारे संसार में बोला और पढ़ा जा रहा है. भारत की पुरातन संस्कृति, इतिहास और बौद्ध धर्म से संबंध एक अरसे से भाषाविदों को बारास्ता हिन्दी भारत से जोड़ते हैं. टोक्यो यूनिर्विसिटी में 1908 में हिन्दी के उच्च अध्ययन का श्रीगणेश हो गया था. जापान में भारत को लेकर जिज्ञासा के बहुत से कारण रहे. बौद्ध धर्म भी एशियाई देशों से भारत के संबंध की एक बड़ी वजह रही है. अब तो जापानी मूल के लोग ही वहां पर मुख्य रूप से हिन्दी पढ़ा रहे हैं. वहां पर हर वर्ष करीब 20 विद्यार्थी हिन्दी के अध्ययन के लिए दाखिला लेते हैं. पूर्व सोवियत संघ और उसके सहयोगी देशों जैसे पोलैंड, हंगरी, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया वगैरह में भी हिन्दी के अध्ययन की लंबी परम्परा रही है. एक दौर में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के बहुत से देशों और भारत की नैतिकताएं लगभग समान थीं. वहां पर कम्युनिस्ट व्यवस्था थी, वहीं भारत में लगभग तीन दशकों तक नेहरुवियन सोशलिज्म का प्रभाव रहा है. दुनिया के बहुत से नामवर विश्वविद्लायों में हिन्दी चेयर इंडियन काउंसिल आफ कल्चरल रिलेशंस (आईसीसीआर) के प्रयासों से ही स्थापित हुईं. इनमें साउथकोरिया के बुसान और सियोल विश्वविद्यालयों के अलावा पेइचिंग, त्रिनिडाड, इटली, बेल्जियम, स्पेन, तुर्की, रूस के विश्वविद्यालय शामिल हैं. साउथ कोरिया में हिन्दी को सीखने की वजह तो विशुद्ध बिजनेस के सरोकार है. वहां की अनेक मल्टीनेशनल कम्पनियों जैसे हुंदुई, सैमसंग, एलजी का भारत में भारी निवेश हो चुका है. कंपनी अपने उन्हीं पेशेवर मैनेजरों को यहां पर भेजती हैं, जिन्हें हिन्दी का गुजारे लायक ज्ञान तो हो ही. अमेरिका के भी येले, न्यूयार्क, विनकांसन वगैरह विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है. छात्रों की तादाद भी बढ़ती ही चली जा रही है. अमेरिका में भी अमेरिकी या भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक ही हिन्दी अध्यापन कर रहे हैं.
प्रेम, संस्कृति और मानवीय संवेदना की भाषा हिन्दी सारे संसार में अपने पैर जमा चुकी है. और इसके लिए हिन्दी के गैर-हिन्दी भाषी मित्रों और प्रेमियों के योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता.
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