नोएडा के एक सरकारी अस्पताल में जाकर मेरे कई भ्रम टूट गए...
अस्पताल जाने से पहले मन में एक कश्मकश थी और लग रहा था कि किसी प्राइवेट हॉस्पिटल में जाना चाहिए, लेकिन वहां पहुंच कर कुछ अलग ही अनुभव हुआ.. वहां का माहौल एकदम अलग था...
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सरकारी अस्पताल के बारे में सुनकर कैसा लगता है? एक पत्रकार कहीं भी जाए वो हमेशा पत्रकार ही रहता है. चाहें ऑफिस के अंदर हो या बाहर हर जगह को एक अलग नजरिए से देखता है और शायद यही कारण है कि अस्पताल जैसी जगह में भी कुछ अलग अनुभव हो जाता है.
ये बात हाल ही की है. इमर्जेंसी में पास के डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर अस्पताल जाना हुआ. दरअसल, एक दोस्त का एक्सिडेंट होने के बाद वो प्राइवेट क्लीनिक में दिखाने गया था. डॉक्टर ने ऊपरी तौर पर देखकर उसे एक खास जगह से एक्सरे करवाने को कहा. काफी पैसा खर्च करने के बाद भी जब राहत नहीं मिली तो सुबह-सुबह इमर्जेंसी में सरकारी अस्पताल जाना पड़ा.
अस्पताल जाने से पहले मन में एक कश्मकश थी और लग रहा था कि किसी प्राइवेट हॉस्पिटल में जाना चाहिए, लेकिन वहां पहुंच कर थोड़ी राहत मिली. अस्पताल साफ था. वाकई किसी प्राइवेट अस्पताल की टक्कर का. अस्पताल में पर्चा बनवाने के लिए लाइन लगी हुई थी.
महिलाओं की लंबी कतार सबसे पहले दिखी. देखकर लगा कि बस अब तो घंटों के लिए पर्चे का इंतजार करना पड़ेगा, लेकिन लाइन लंबी होते ही एक और काउंटर खोल दिया गया. मुश्किल से 10 मिनट के अंदर पर्चा बन गया और हम ओर्थोपेडिक वॉर्ड के पास चले गए.
पूरे अस्पताल में वॉर्ड काफी साफ थे. लोग अपनी-अपनी परेशानी के हिसाब से अलग-अलग वॉर्ड के सामने खड़े थे और अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे. थोड़ी देर में जांच करवाई तो डॉक्टर ने एक्सरे लिखा. एक्सरे करवाने पर पता चला हड्डी टूटी है. थोड़ी देर में प्लास्टर करवाया गया. प्लास्टर बांधने वाले भी काफी मिलनसार थे. लोगों की भीड़ काफी थी और प्लास्टर करवाने में थोड़ा समय लग गया. हंसते-खेलते वापस भी आ गए. दवाएं हमने बाहर से लेना सही समझा अस्पताल की दवाएं ज़रूरतमंदों के लिए होती हैं और जो उन्हें खरीद सकते हैं वो खरीदें ये बेहतर है.
वैसे देखा जाए तो हमारा एक्सपीरियंस दिल्ली के किसी भी प्राइवेट अस्पताल से तो बेहतर रहा, लेकिन अस्पताल में कुछ बातों पर गौर ज़रूर किया.
शक्ल देखकर होता है इलाज...
दरअसल, हमारे साथ अच्छा व्यवहार होने का कारण शायद ये था कि हमारी स्थिती औरों की तुलना में बेहतर दिख रही थी. अस्पताल में प्लास्टर वाले कमरे के बगल में एक और कमरा था. वहां बैठा इंसान एक महिला जिसके गोद में एक बच्चा था और एक बच्चा साथ में था उसे बहुत बुरी तरह चिल्ला रहा था. कारण सिर्फ ये था कि महिला अपना स्थाई पता नहीं बता पा रही थी. वो कह रही थी कि वो नाले के पास पुल के नीचे रहती है. थोड़ा गौर से सुनने पर समझ आया कि असल में महिला का कोई स्थाई पता था ही नहीं.
'तू यहां क्यों खड़ी है. क्या नाला लिखूं पते में.. जाने कहां से आ गई है.. सिर पर मत खड़ी रह'
ऐसा महिला से कहा गया. वही महिला जब प्लास्टर वाले कमरे के पास आई तो उससे थोड़ा सही व्यवहार हुआ ये देखकर लगा कि कम से कम सभी शक्ल देखकर इलाज नहीं करते. बगल वाले कमरे में एक थोड़ा ठीक स्थिती में दिखने वाली लड़की आई और उससे बात करने का लहजा ही बदल गया. वो सज्जन जो बैठे थे और कुछ देर पहले आई महिला पर चिल्ला रहे थे अब थोड़ा नम्र हो गए थे.
डॉक्टर और शेयर मार्केट का अनोखा नाता...
जो डॉक्टर मरीजों को देख रहे थे वो एक नजर में एक्सरे देखकर दवा लिखकर वापस अपने फोन की ओर रुख कर रहे थे. बात ये थी कि उनके फोन में शेयर मार्केट का कोई ऐप खुला हुआ था. वो शायद ट्रेडिंग कर रहे थे. ये सही है कि अस्पताल के समय ही ट्रेडिंग का समय होता है, लेकिन अगर देखा जाए तो दो इतने दिमाग वाले काम (एक शेयर ट्रेडिंग और एक मरीजों की तकलीफ देखना) एक साथ नहीं किया जा सकता. कुछ मरीज़ ऐसे भी थे जिन्हें 1 मिनट से भी कम वक्त में दवा लिखकर, पर्चे देखकर, एक्सरे का बोलकर चलता कर दिया गया.
काउंटर पर जानकारी देना बोझिल काम...
पर्चे बनवाने वाले काउंटर के बगल में एक और काउंटर था. वहां कई महिलाएं बैठी हुई थीं. उनसे जब पूछा गया कि ऑर्थो रूम कहां है (और दूसरी बार एक्सरे रूम कहां हैं) तो उन्हें सवाल का जवाब देने में काफी कठिनाई हुई. उन्हें अपने फोन से मुंह उठाकर बाहर देखना पड़ा और ये वाकई उनके लिए काफी दुखदाई लग रहा था.
वैसे देखा जाए तो कोई ऐसी लापरवाही नहीं दिख रही थी कि किसी मरीज़ को बहुत दिक्कत हुई हो, लेकिन फिर भी अगर ध्यान से देखें तो छोटी-छोटी चीजें भी मरीज़ों के लिए जानलेवा साबित हो सकती हैं. ओपीडी के आगे लगी भीड़ में कम से कम 60 लोग लाइन में लगे थे. हड्डी वाले डॉक्टर अपने मरीजों के साथ-साथ शेयर मार्केट भी मैनेज कर रहे थे ऐसे में अगर किसी मरीज़ के साथ कुछ हो जाता है तो जिम्मेदारी किसकी रहेगी?
बहरहाल, कम से कम ये अस्पताल उस प्राइवेट अस्पताल से तो बेहतर था जिसमें पैसे भी ज्यादा लगे और बहुत समस्या भी हुई. ये अस्पताल उन सरकारी अस्पतालों से भी अच्छा था जहां ऑक्सीजन की कमी के कारण बच्चों की जान गई हो. हो सकता है कि इस अस्पताल में भी कई कमियां हों, ज्यादा समय बिताने पर या किसी को एडमिट करने पर यहां और समस्याएं समझ आ जाती, लेकिन दिल्ली एनसीआर में जहां फोर्टिस और मैक्स जैसे हॉस्पिटल के चर्चे हो रहे हैं जो ज्यादा पैसे लेकर भी मरीजों का सही इलाज नहीं कर पा रहे उन्हें देखते हुए तो ये सरकारी अस्पताल वाकई बहुत अच्छा है.
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